सारी डाक को अलग कर पिजन हॉल में ठूँसने के बाद कमर सीधी की ही थी कि डाकखाने का घड़ियाल टन-टन बोल उठा , पांच बज गए थे , नौमीलाल की बीडी भी शायद इसी वक्त का इन्तजार कर रही होती थी, वह तपाक से उठा, मेरा लांच बॉक्स और अपना झोला लेकर वह बाहर धर आया, तब तक मैंने टेबल पर नए सिरे से देखा कि आज का कोई काम तो नहीं छूट गया है , संतुष्ट होने पर में बाहर आया और नौमीलाल ने डाकखाने का शटर गिरा दिया , तभी नीचे की सड़क पर कोलाहल हुआ, नौमीलाल उधर भागा , मुझे वितृष्णा होने लगी, लो ये अब और टाइम खोटी करेगा, अभी घर पहुँचने में मुझे दो घंटे लगेंगे
तभी नौमी लाल एक आदमी को लेकर हांफता हुआ आया और बोला " अरे सर ! नीचे एक एक्सीिडेंट हो गया है, ज़रा अस्पताल को फोन कर देते, अभी उसकी साँसे चल रही हैं , " और झट से उसने शटर उठा दिया
धीमे कदमों से मैं अंदर घुसा और नौमि लाल से घायल की उम्र वगैरह पूछी , और उस कसबे के एकलौते अस्पताल को फोन मिलाया /
" हेलो ! सिविल अस्पताल ? " मैंने पूछा ,
" जी हाँ ! कौन बोल रहे हैं ? उधर से आवाज़ आई
" देखिये में चुंगी चौक से बोल रहा हूँ, यहां एक तीस बतीस साल के अादमी का एक्सीडेंट हो गया है, अभी वो जीवित है , कृपया एम्बुलेंस भिजवा दें , शायद उसके प्राण बच जाएँ " कातर स्वर में मैं बोला
" अभी में इंतजाम किये दे रहा हूँ , तब तक आप पुलिस को भी फोन कर दीजिये, ये मेडिको लीगल केस है " आवाज़ आई
" जी ठीक है , ज़रा जल्दी करियेगा , "मैं बोला
" आपने अपना क्या नाम बताया ?" उधर से पूछा गया
मैंने फोन रख दिया , सोचा कौन पुलिस के लफड़े में पड़े. दसियों सवाल ; पूछेंगे और गवाही पर न जाने कितनी बार बुलाएं, घायल का काम तो हो गया
मैंने नौमीलाल से शटर गिराने को कहा और , अच्छी तरह से तस्दीक कर कि ऑफिस बंद हो गया, नौमीलाल को उसकी चाभी पकड़ाते हुए सुबह समय से आने की हिदायत देकर में पगडंडी से नीचे सड़क के किनारे खडी अपनी बाइक की और चल पड़ा , पीछे थोड़ी दूर पर ही लोगों का मज़मा लगा हुआ था , मैं घायल को देखने के लोभ को दबाते हुए , मोटर साइकिल स्टार्ट कर पहाड़ी ढलान पर उतर गया
मेरे मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे कि मैंने जो किया , क्या सही किया ?, मुझे थोड़ी देर एम्बुलेंस के लिए इंतज़ार करना चाहिए था , आखिर में उस जगह का सबसे पढ़ा लिखा और मान्य व्यक्ति था, ये मेरी जिम्मेदारी बनती थी -----फिर दूसरा ख्याल आता कि सबसे जरूरी काम अस्पताल फोन कर एम्बुलेंस बुलाने का में कर चूका था , बाक़ी काम तो उस छोटी सी बाजार के वे दुकानदार भी कर ही लेंगे, उन्होंने ज्यादा करना ही क्या था ? घायल को उठाकर एम्बुलेंस में रखने में अस्पताल वालों की सहायता ही तो करनी थी, " हुंह " होगा मुझे क्या , मैंने सारे विचारों को सर झटक कर निकाल दिया
करीब छह सात किलोमीटर चलने के बाद मुझे सिगरेट की तलाब लगी , मोटर साइकिल किनारे खडी कर एक सिगरेट सुलगाई, जोर का एक काश खींचते हुए तसल्ली से चारों तरफ देखा, हवा कुछ नम हो चली थी, मैंने आसमान की तरफ देखा तो एक बूंद मेरे नाक पर गिरी, "शायद पानी बरसने वाला है" यह सोचकर सिगरेट जल्दी खत्म करने लगा, तभी मैंने सामने की पहाड़ी की तरफ देखा तो काले बादल घनघोर पानी बरसा रहे थे, मैं हड़बड़ा गया , ये बादल इसी तरफ आ रहे थे, लगता था कि अगले बीस पच्चीस मिनटों में आ ही जायेंगे । अब आगे जाना बेकार था, इस बारिश में डेढ़ घंटे बाइक चलाकर भीगते हुए जाना, और इस ठण्ड में , मुझे कतई ठीक नहीं लगा,
तभी मेरे दिल ने जैसे मुझे आवाज़ दी कि लौटकर अपने आफिस की शरण लेना ही सही होगा, मैंने बाइक घुमाई और ऊपर की तरफ चल पड़ा, पर मेरा अनुमान गलत निकला, बारिश मेरी सोच से बहुत पाहले ही आ गई, तेज हवा के झोंके के साथ पानी की ठंडी बौछार ने मुझे पहली ही बार में भिगो दिया ,मैंने बाइक की रफ़्तार कम की की और तूफ़ान की इज्जत करते हुए धीरे धीरे मुंशी चौक पहुंचा , चौक पर सन्नाटा पसरा हुआ था, बारिश की वज़ह से सभी दुकानदार दुकानें बंद कर अपने अपने घर को चले गए थे, चाय की दुकानों की भट्टियों से हल्का हल्का धुंवा उठ रहा था, उसके चारों और आवारा कुत्ते बैठे हुए ठण्ड बिता रहे थे , वहीं अपनी मोटर साइकिल खडी कर , मैं सोचने लगा कि अब ऊपर दफ्तर तक कैसे जाउं ? करीब घंटा भर पानी रुकने का इंतज़ार कर ,मैं पगडंडी से ऊपर अपने दफ्तर को चल पड़ा , मैंने अपनी चाभी से शटर खोला और भीतर गया, बिजली शायद चली गई थी , हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था, किसी तरह अनुमान से मैं अपनी मेज़ तक पहुंचा आर दराज खोल कर मोमबत्ती निकालकर जला ली , किन्तु तेज हवावों के कारण इसका टिकना मुश्किल लग रहा था , मैंने भीतर से शटर गिरा दिया और वापस मेज पर आ गया , कपडे भीगे हुए थे, ठण्ड बद रही थी , मैंने बड़ी आशा से आफिस के आतिश दान की तरफ देखा, वहां कुछ अधजली और बुझी लकड़ियाँ पडी हुई थीं, नजदीक जाने पर देखा तो आतिशदांन के दाईं तरफ एक गठ्ठर सूखी लकड़ियों का भी था, इसे जलाने और बुझाने का काम नौमी लाल का था, मैंने कभी इस और ध्यान ही नहीं दिया था , खैर कुछ रद्दी कागज़ के सहारे सूखी लकड़ियों से आतिशदांन जला दिया, इससे कमरे में गरमी आ गई, गीले कपडे उतार कर आतिशदांन के किनारे सूखने के लिए रख दिए और अपने बैग में रखे इकलौते तौलिये से बदन पोछ कर उसी को लपेट कर आतिशदांन के सामने टांग फैलाकर बैठ गया अपनी आफिस की कुछ पुरानी फ़ाइल आतिष दान के पास बिछा ली ये सोचकर कि सुबह उठाकर रख दुूँगा , कुछ घंटों के लिए ये फ़ाइल खराब नहीं होंगी " , और आफिस में एकमात्र परदे को उतार कर और झाड़ कर ओढ़ लिया । एक मुसीबत दूर होने पर दूसरी सामने आ गई, अब तक मुझे प्रचंड भूख लग आयी थी, बैग मेंभी कुछ न था , थोड़ी देर में नींद ने भूख को हरा दिया और मैं सो गया ।
तभी जोर की आवाज़ से मेरी नींद खुल गई , भड़-भड़-भड़ , कर कोई शटर को पीट रहा था , वो क्या कह रहा था मेरी समझ में नहीं आया, आतिशदान की आग से सारा कमरा उजाले से भरा हुआ था , "कौन है?" मैं जोर से चिल्लाया पर केवल भड़भड़भङाने की ही आवाज़ सुनाई दी , अचानक मेरे दिमाग में ख्याल आया कि इस निर्जन जगह पर कोई नहीं रहता, आफिस के पीछे जंगल है, नीचे बाज़ार है वहां भी इस समय कुत्तों के अलावा कोई नहीं होगा, तो यह कोन है ? सोचकर मैं सिहर गया, डर की एक ठंडी लहर मेरी पीठ में दौड़ गयी
तभी आवाज और तेज हो गई और किसी के चीखने की आवाज़ आई , अब शटर पर भड़भड़ाहट तेज हो गई , हिम्मत कर मैं उठा और किसी तरह शटर आधा खोला , तेज हवा और बारिश के झौंके के साथ एक आकृति जल्दी से भीतर आयी और शटर के किनारे खडी हो गई, मैं शटर बंद करने मशगूल था, शटर बंद करने के बाद मैंने देखा कि एक खूबसूरत लड़की एक बैग लिए ठण्ड से थरथरा रही है , वह आधी भीगी हुई थी और कातर दृष्टी से मेरी और देख रही थी ,फिर अचानक ही वह आतिशदांन की और बढी और धम्म से नीचे बैठ गई, आग की तपिश से उसे कुछ आराम मिला , मैं भी आतिषदाेंन की और आया, नजदीक आने पर मैंने देखा वह बला की खूब सूरत थी, और बिलख बिलख कर रो रही थी , जब मैंने उसके कपड़ों पर गौर किया तो मैं अंदर तक काँप गया , वो एक लबादे जैसी र्शर्ट और वैसी ही झोलंझोल पेंट पहने हुए थी, कपडे जगह जगह से फटे हुए थे और उन पर खून के दाग थे , इतने ही समय मैं सोचने लगा शायद नौमीलाल की भूतकथाओं की तरह यह भी कोई भूतनी होगी , जो जंगल से निकल कर किसी का खून पीकर यहां आ गई है
डर के मारे मेरी आवाज़ ही नहीं निकल पा रही थी पर किसी तरह हिम्मत कर मैंने उससे पूछा
" क - क - क कौन हो तुम ? "
अपनी बड़ी - बड़ी आँखें गोल-गोल घुमाती हुई वह बोली " लड़की हुूँ दिख नहीं रहा ?'
जरूर यह किसी का खूनकर के आयी है. मैंने फिर पूछा " कहाँ से आई हो ?"
सरसराती हुई आवाज़ में वह बोली कहीं से नहीं, और ज्यादा सवाल मत पूछो, अभी मुझे बदन सेंकने दो, ठण्ड से मारी जा रही हू अॉधे घंटे से शटर पीट रही थी, तुम तो शायद घोड़े बेच कर सोये हुए थे
घबराते हुए मैंने फिर पूछ " पर तुम हो कौन ? और मेरे आफिस में क्या करने आई हो ?"
भीगी हुई हूँ, ठण्ड से काँप रही हूँ, थोड़ा ये किटकिटाते हुए दाँतों को शांत होने दो , यहां नज़दीक आ जाओ, आतिशदांन के पास, एक तौलिये में हो ठंड लग जाएगी, बारिश रुकते ही चली जाउंगी
मैं उसके सामने बैठ तो गया, पर डर के मारे मेरा बुरा हाल था, नौमीलाल की वो भूतात्माएं सुन्दर लड़की का रूप धर लेती हैं और अपनी आँखों से वशीकरण कर आदमी को अपने वश में कर लेती हैं
मैं चुप हो गया, मैंने देखा वो अपने पैर के अंगूठे से आतिशदान से बाहर निकली राख पर कुरेद रही थी, सम्मोहित सा मैं उसे अपलक निहार रहा था, वो घुटनों में सर झुकाये यूं ही राख कुरेदती रही, तबी लकड़ी चटकने की आवाज़ आई,, घबरा कर उसने मुझे दुखा, और मुझे देख कर मुस्कुराई , फिर बोली। " शायद दो बज़ रहे होंगे , तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें सो जाना चाहिए " ? ,
और तुम " ? मैंने पूछ
मैं ठीक हूँ यूं ही सो जाउंगी , अब देर न करो और सो जाओ
यंत्रवत् मैं उठा और लेट गया , पर ऐसे में नींद कहाँ आने वाली थी, बार बार उसके खूनालूदा कपड़ों पर नज़र पड़ती, और मैं सिहर जाता , कभी विचार आता कि यह भूतनी तो नहीं हो सकती, फिर ख्याल आता कि शायद यह किसी का मर्डर कर भागी है, या कहीं कोई डाका पड़ा है और यह अपने साथियों से छूट गई है , उसकी तरफ देखने की मेरी हिम्मत न होती थी , पर पता नहीं ये उसका वशीकरण था या शरीर थक गया था और गरमी से मुझे नींद आ गई
अचानक मेरी नींद खुल गई, आतिशदांन बुझ चुका था, अँधेरे में कुछ सूझ भी नहीं रहा था, कुछ पल में यूं ही पड़ा रहा शायद बारिश रुक चुकी थी और तूफान थम चुका था , जैसे ही मैं उठने को हुआ मुझे लगा कि मैं किसी की बाँहों में हूँ , किसी तरह माचिस जला कर देखा तो वह मुझे अपनी बाहों में जकड़ी हुई थी, उसके चहरे पर गज़ब की मासूमियत थी, जैसे एक छोटे से बच्चे के मुंह पर होती है , मेरा डर कॅाफ़ूर हो चुका था , किसी तरह बिना उसको जगाये, मैंने आतिशदान फिर सुलगाया, फिर इसकी लाल रोशनी में उसका चेहरा और खिल गया, मैंने धीरे शटर उठाया, बाहर देखा पौ फटने वाली थी, शटर नीचे गिरा कर मैंने अब तक सूख गए कपडे जैसे तैसे पहने , और उसे उठाने लगा ,
अंगड़ाई लेकर वह जागी और मुझे अपने सामने पाकर हड़बड़ाई,फिर उसने उस फाइलों के बिस्तर को देखा, उसके चहरे पर एक लालिमा दौड़ गई पर दूसरे ही पल वह मुस्कुरा कर बोली " तुम्हारा अहसान रहेगा मुझपर "
और अपना बैग उठाकर तीर की तरह शटर उठाकर बाहर निकल गई , मैं संज्ञाशून्य होकर आतिश दान के पास खड़ा रह गया , , काफी देर बाद जब मैं संभला तो शटर के बाहर निकला , चारों और देखा तो दूर दूर तक वह नज़र नहीं आई , पौ फट चुकी थी , पक्षी अपनी नीड़ों से निकलने लगे थे , मैं अब बहुत डर गया था , जरूर वह जंगलों से आयी कोई प्रेतात्मा थी ,जो फिर से जंगल में चली गई थी
सिहर कर मैं भीतर आ गया और , जल्दी से शटर गिरा कर आतिश दान के पास आ गया , सारी फाइलें उठाकर करीने से रखीं और कुर्सी पर धम्म से बैठ गया , अब मेरी सोचों को पंख लग गए , उसके बारे में सोचते-सोचते मुझे फिर नींद आ गई
इस बार फिर मेरी नींद शटर के भड़भड़ाने की आवाज़ से टूटी , बाहर से आवाज़ आ रही थी "अरे साहब शटर खोलिए "
हड़बड़ा कर मैंने पूछ। " कौन "/फिर उठकर शटर खोल दिया , सामने झबरू चाय वाले का नौकर चाय का झींगा ले कर खड़ा था, बाहर चटक धूप फैली थी, शायद मैं काफी देर सो गया था , लडके को भीतर आने का इशारा कर , मैं भीतर आ गया , लडके ने चाय टेबल पर रही और मुझसे बोला " बाबूजी ने कहा है, एक घंटे बाद दुकान पर खाना खाने आ जाइयेगा , " और वह चला गया
रात से भूखा था , इसलिए चाय बहुत अच्छी लग रही थी , पर चाय से भूख नहीं मिटने वाली थी , मन में सोचा कि चलो नीचे दुकानों में कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा , यह सोचकर शटर गिरा कर में नीचे जाती पगडण्डी पर चल पड़ा
चाय वाले की दूकान पहुंचा तो वह बोला , " राम राम साहेब ! चाय पी ली ? आपकी बाइक देख कर मैं समझ गया था कि बारिश तेज होने के कारण आप आफिस में रुक गए होंगे " बैठिये , बैठिये
मैं अभी भी सस्पेंस से भरा था कि उस एक्सीडेंट का क्या हुआ ? ये बात मैंने चाय वाले से पूछी
वो बोला , अरे साहब सभी आपकी तरह थोड़े न होते हैं , अपने तो हस्पताल फोन कर दिया था, एम्बुलेंस भी वक्त पर आ गई थी, पर यहाँ के लोग इतने निर्दयी हैं किसी ने घायल को छू भर नहीं दिया
"तो ?" अधीरता से मैंने पूछा
वह बोला : न जाने कहाँ से देवी की तरह एक लड़की आई, उसने पहले तो तमाशा देखने वालों को फटकारा और कहा कि घायल को एम्बुलेंस में रखो, पर कोई आगे नहीं आया
मेरा कंठ सूख रहा था , फंसी आवाज़ में मैंने पूछा , " फिर ?"
" फिर क्या था सर ! उसने अपना दुपट्टा कमर में खोंसा और धड़ल्ले से घायल को उठाने लगी , उसे देखकर कुछ लडके भी आगे बढे और सभी ने मिल कर घायल को एम्बुलेंस में चढ़ा दिया, उन सभी को लेकर एम्बुलेंस अस्पताल की और दौड़ पडी "
मैंने पूछा " फिर ?"
वो बोला, " थोड़ी देर तक तो हम सभी बात करते रहे कि देखो कितनी हिम्मती लड़की है, किसी ने उसका बैग उठाकर मेरे दूकान की इस नेञ्च पर रख दिया , तभी जोर की हवाएँ चलने लगीं , कोई चिल्लाय " भागो " पानी आ रहा है, सबने अपनी अपनी दुकानें बंद करीं और लगभग दौड़ते हुए अपने अपने घर को भाग गए
" वो लड़की और उसका बैग " ? उतावलेपन से मैंने पूछा
झबरू : पता नहीं साहेब हम लोग तो भाग ही गये थे ,
कुछ आशंका से मैंने पूछ ; " वो क्या पहिने थी "
झबरो : बताया तो आपको वो कुरता पायजामा और दुपट्टा पहिने हुए थी
अब मेरे मन की शंका और बलवती हो गई कि ये लड़की वो रात वाली तो कतई नहीं हो सकती, भले ही झोला उसके पास था पर कपडे उसके खून से सने हुए थे और वह लबादे सी कोई पोशाक पहिने हुए थी
तब तक खाना लग गया था , खाते हुए मैंने सोचा कि क्या नौमि लाल की बातें सच हो सकती हैं कि पीछे जंगलों में चुड़ैलें रहती हैं जो खून पीती हैं?
फिर सहसा मैंने अपने मन से विचारों को झटक दिया और सोचा कि इस तरह की बातें कह कर लोग मेरी बात को प्रमाण मान लेंगे और नौमी लाल को तो दिनभर गप्पें लड़ाने के लिए मौक़ा मिल जायेगा
तब तक नौमीलाल भी आ गया, उसने आफिस खोल दिया, पहले तो मुझे देख कर उसे अचम्भा हुआ, फिर शायद वो मेरी कल की हिदायत को ध्यान में रख कर बोला, " देखिये साहब में समय से पहले आ गया हूँ "
ठीक है कह कर मैं भी अपनी सीट पर बैठ गया
शायद आज काम ज्यादा था, सामान्य काम के अलावा टेलीग्राम व् मनीआर्डर बहुत आ रहे थे , शायद कल के तूफ़ान के बाद सब अपनी कुशल अपनों को देना चाह रहे थे , तीन बजे तक काम बहुत हो गया, मेरा सहायक भी कुनमुनाने लगा, वो रोज पांच बजे से पहले आफिस छोड़ने का आदी था
तभी एक तीखी खुसबू का झौंका आफिस के भीतर आया , अनमने भाव से मैंने सर उठकर देखा तो जींस , शर्ट पहने और आाँखों में गागल लगाये एक लड़की नमूदार हुई , ऐसी लड़कियों को देखकर मैं घबड़ा जात्ता था क्योंकि वे फर्राटे से अंग्रेजी बोलतीं, और मेरा अंग्रेजी में हाथ थोड़ा तंग था , किसी बात क उत्तर देने से पहले मुझे मन में उत्तर का अंग्रजी में तर्जुमा करना पडता और किर टेन्स व् ग्रामर भी देखकर बोलना पढता था , इसलिए में अटक अटक कर बोलता ।
नजदीक आकर वह बोली : एक्सक्यूज मी ! कैन यू स्पेयर सम टाइम
मुझे अब घबड़ाहट होने लगी, अपनी स्थति को देखे बिना में बोला : ओह ! व्हाई नाट
वो बोली : लेट हैव अ कप ऑफ़ टी सम व्हेयर
( उसको जवाब न दे मैंने अपने सहायक को कहा कि अधिकतर काम पूुरा हो चुका है, वह तिजोरी में कैश मिला कर रख दे और घर चला जाए, और सुबह जल्दी आ जाए, , मेरी बात सुनकर वह अचम्भे से मुझे देखने लगा , क्योंकी इस तरह से मैं आफिस नहीं छोड़ता था, पर उसने सोचा कि ये लड़की शायद मेरे पहचान की है और वो जो कुछ भी कह रही थी उसका मतलब न वो जानता था न नौमी लाल )
बाहर निकल कर वह बोली : मुझे मालूम है तुम बाइक से आते हो चलो तुम्हारी बाइक से ही होटल की और चलते हैं
मैंने बाइक स्टार्ट ही की थी कि वह बाह मेरा कंधा पकड़ कर उचक कर बाइक पर बैठ गई, अपने होटल तक पहुँचने तक वह कुछ नहीं बोली , फिर होटल पहुँच कर डाइनिंग स्पेस की तरफ एक मेज के पास पहुँच कर बोली : बैठो
मैं यंत्रवत बैठ गया ,
उसने वेटर को आवाज़ दे कर कुछ खाने के लिए और चाय लाने के लिए कहा
फिर मेरी तरफ देख कर मुस्कुराती हुयी बोली। : हाँ तो जनाब मुझे पहचाना ?
मैं सन्नाटे भरी आवाज़ में बोला : नहीं
वो मुस्कुराती हुई बोली : मैं मुंबई से करीब हर साल यहाँ आती हूँ इस मौसम में, मेरा फृुुट्स का बिजनेस है वहां, में फ्रूट्स एक्सपोर्ट भी करती हूँ, यहां के कई बागान जैसे से सेब नासपाती वगैरह की फसल पहले ही खरीद लेती हूँ और मौसम आने पर इनकी पैकिंग यहां से अपने सामने कराती हूँ इसमें कररीब पंद्रह दिन लग जायते हैं, ये मेरा हिल टूर भी हो जात्ता है और बिजनेस अलग
तभी चाय आ गई, और कुछ कटलेट भी, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मुझे आफिस से उठाकर अपने बिजनेस के बारे में बताने लाई है, ये भी जेहन में आता कि शायद अपने बिजनेस के सिलसिले में पोस्ट आफिस से कोई काम हो, जो बिजनेस ये बता रही है, वह लाखों में तो होगा, हो सकता है कि अपने पैसे मुंबई ट्रांसफर कराने के लिए पोस्ट आफिस की सहायता लेना चाहती हो , इन अमीरों के कई चोंचले होते हैं क्या पता किसी बात पर पोस्ट आफिस से नाराज ही न हो गई हो !
चाय की चुस्की लेकर वह बोली : मैं कान्वेंट एजुकेटेड हूँ , एम बी ए हूँ अपना बिजनेस खुद संभालती हूँ, हांलाकि मेरे पापा का अपना बिजनेस है पर वे हमेशा हम लोगों को अपने पैर पर खड़े होने की सलाह देते हैं , इधर मेरा काम काफी निपट गया है , केवल कुछ पेटियां सेव की ट्रांसपोर्ट से भिजवानी थीं कल उन्हें भी निपट दिया , और कल मैं यहाँ से मुम्बई के लिए निकल जाउंगी "
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह अपने बिजनेस के बारे में मुझे क्यों बतला रही है /, ये क्या चाहती है ? मेरा दिमाग भन्ना रहा था , मेरी मन: स्थति समझ कर वह बोली, " शायद तुम्हें मेरी बातें अजीब लग रही होंगी , पर ये बात में तुम्हें सुनना चाहती हूँ "
मैं : क्या पोस्ट आफिस से आपके बिजनेस में कोई गलती तो नहीं हुई ?
( क्योंकि इस तरह की अमीर लड़कियां अपनी बात को बहुत घुमा फ़िर कर कहती हैं , और बाद में माफ़ी मांगने या फिर डेमरेज देने के लिए मजबूर कर देती है, , ये तो चाय पिलाकर ही शायद अपना ऊल्लु सीधा करे )
वो मुस्कुराती हुई बोली : " अरे नही ! मेरा पोस्ट आफिस से कोई काम नहीं पढ़ता, मैं तो यहाँ ट्रांसपोर्ट आॅफ़िस तक आती जाती हूँ
मई : तो फिर ?
वह : देखो गौर से सुनो , कल मैं पेटियों की जी आर बनवा कर मुंशी चौक पहुंची थी कि देखा एक एम्बुलैंस खडी है, और एक तीस-एक वर्ष का आदमी सड़क पर पड़ा हुआ है, एम्बुलैंस के साथ ड्राइवर के अलावा केवल एक हेल्पर था, जो लोगों से गुजारिश कर रहा था कि इसे स्ट्रेचर में लादने में कोई उसकी मदद करे, पर सभी लोग संज्ञा हींन खड़े थे, मुझे बड़ा अटपटा लगा , मैंने लोगों से कहा कि" भाई ! कुछ लोग इनकी मदद क्यों नही करते, पर मेरी बात का भी कोई असर नहीं हुआ, तब मैंने अपना बैग किनारे रख खर दुपट्टे का फेंटा बांधा और घायल की तरफ लपकी, तभी कुछ और लोग मेरी देखा देखी उधर आये और बड़ी सहजता से घायल को एम्बुलेंस में रख दिया , अब एम्बुलैंस में अस्पत्ताल तक जाने को कोई तैयार नहीं हुआ , मैं लपक कर एम्बुलेंस में बैठ गई और ड्राइवर से कहा चलो भाई देर न करो, तभी एक दो लोग और चढ़ गए, फिर सायरन बजाती एम्बुलैंस अस्पताल पर ही रुकी, , हेल्पर ने हम लोगों से कहा कि इसका स्ट्रेचर नीचे उतारें तब तक मैं अंदर खबर कर के आता हूँ , थोड़ी एर में घायल को इमरजेंसी में दाखिल कर दिया गया, मैंने तसल्ली की सांस ली
( कौतूहल से मेरा सर चकरा रहा था , पर वह अपनी बात कहती रही )
तभी एक डाक्टर भीतर से आया और बोला घायल को यहाँ कौन लाया ? मैंने अपने पीछे देखा जो मेरे साथ आये थे वो निकल लिए थे , वार्ड बॉय बोला." सर ! ये मैडम लायी हैं
डाक्टर ने मेरी तरफ देखा और बोला," जाईयेगा नहीं , अभी पुलिस आ रही है, घायल के बारे में पूछ ताछ होगी , मैंने हड़बड़ाकर कहा पर मैं तो इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती , " डाक्टर बोला, " इससे उसे कोई मतलब नहीं है, मेडिकाओ-लीगल केस है, हमने प्रिमरी इलाज कर दिया है , बाक़ी पुलिस की परमिशन के बाद करेंगे
थूक निगल कर मैंने पूछ ," फिर "
वो बोली , "फिर क्या , करीब आधा घंटे बाद पुलिस आई, वहीँ बेच पर बैठे वे मुझसे सवालात करने लगे
मैं : "जैसे ?
वो : जैसे मेरा नाम,काम, मैं घायल को कब से जानती हूँ, एक्सीडेंट कब हुआ, मेरी जानकारी में कब आया, मेरा घायल से क्या रिस्ता है , वगैरह, वगैरह
मैं : फिर ?
लड़की : जब मैंने अपना नाम बताया और अपनी वल्दियत बतलाई तो वे नरम पैड गए, दरोगा ने डाक्टर से जल्दी इलाज शुरू करने को कहा, और मुझे देख कर बोला " थैंक्यू मैडम ! आप जैसे शहरियों के कारण पुलिस को तफ्शीश जल्द करने में आसानी होती है, हो सकता है कि आपका बयान कलमबंद करने के लिए आपको थाने आना पड़े घबड़ाइयेगा नहीं, " और वे लाव लश्कर सहित चल दिए
थोड़ी देर में एक कम्पाउण्डर बाहर निकला, एक कागज़ में कुछ लिपटा हुआ मेरे सामने रख कर बोला," ये घायल के कपडे हैं , उसे अस्पताल के कपडे पहना दिए गए हैं, आप तीन हज़ार रुपये जमा कर दीजिये फिलहाल सुबह तक चल जाएंगे
मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था, मशीन की तरह मैंने अपने पर्स से तीन हज़ार निकाल कर उसे दे दिए, वो एक रसीद मेरे हाथ में थमा कर बोला, " अब आप जाइये , आपके मरीज का इलाज शुरू हो चुका है , सुबह दस बजे से पहले उससे मिल नहीं सकती , उसने मुझे अस्पताल से बाहर कर गेट बंद कर डिया , मैं बड़ी असमंजस में थी कि कहां जाऊँ ? तभी मुझे ख़याल आया कि मेरा बैग तो मुंशी चौराहे पर पड़ा है
तेज कदमों से में नीचे उतरने लगी, तभी ठंडी हवा का एक झौंका मेरे चहरे को छू गया , लगा कि शायद पानी बरसेगा, लगभग दौड़ती हुई मै चौक तक पहुंची तो वहाँ सन्नटा था, सांय- सांय कर हवा चल रही थी, एक चाय की दुकान की बेंच पर मेरा बैग पड़ा हुआ था , मैंने उसे झट से उथया, तभी पानी की एक मोटी बून्द मेरे हाथ पर पड़ी , मैं पगडण्डी चढ़ चुकी थी और मुझे मालूम था कि पोस्ट आफिस के अहाते में शेल्टर है , वहीं बारिश रुकने का इन्तजार करती हूँ , जल्दी जल्दी कदम बढ़ाने बावजूद में शेल्टर पहुँचते पहुँचते थोड़ा बहुत भीग गयी
मैं : फिर ?
लड़की : फिर जैसा मैं सोच रही थी वैसा न हुआ, उस शेल्टर पर पानी की बौछार तिरछी आ रही थी , और सहसा मैं पूरी भीग गयी , सिकुड़ते-सिकुड़ते में पोस्ट ऑफिस की दीवार से चिपक सी गई , अब मेरा धीरज जवाब दे रहा था , ठंड के मारे में कांप रही थी , चारों और सांय-सांय कर चलती हवा और मुुुसलधार पानी , न जाने कब तक यह पानी बरसेगा , रुक भी गया तो आधी रात को पांच किलोमीटर होटल तो अकेली न जा पाउंगी ,अचानक मेरी रुलाई फूट पडी, उस समय मुझे अपने पापा बहुत याद आये , उनके द्वारा सिखाये बचन मुझे याद आ रहे थे कि किसी भी मुसीबत में घबड़ाना नहीं उससे निकलने की सोचना
सन्न पड़ा मैं बोला , फिर ?
वो : बहुत देर तक में यूं ही असमंजस में खडी रही कि यहां इस तरह रुकना खतरनाक है, पानी रुकने के बाद जंगल से जानवर भी शिकार पर निकलेंगे , आगे की सोच ही रही थी कि मुझे किसी गाड़ी की गड़गड़ाहट सुनाई दी , नीचे से शायद कोई गाड़ी आ रही थी। मैंने सोचा कि इसके चौक पहुँचने से पहले में वहां पहुँच जाऊं और उनसे लिफ्ट ले कर होटल चली जाऊं , पर जैसे ही मैंने शेल्टर से बाहर कदम रखा तो मैं फिर बुरी तरह भीग गयी , तभी गाड़ी की आवाज़ भी बंद हो गई , मैं फिर दीवार से चिपक गई
मैं : फिर क्या हुआ ?
वो : बड़ी देर तक यूं ही खडी रही, तब मुझे किसी की पदचाप सुनाई पड़ी , मैं और सिहर गई न जाने किसी ने मुझे देख लिया था
मैं सस्पेंस में मरा जा रहा था
फिर उतावले स्वर में बोला : फिर ?
वो : मैंने देखा एक आदमी पोस्ट आफिस का शटर खोल रहा था, वह बुरी तरह भीगा हुआ था ,ठण्ड के मारे वह काँप रहा था और बड़ी मुश्किल से वह शटर खोल पाया और भीतर घुसते ही उसने शटर बंद कर लिया ,चाहे जैसे भी हो अब मेरी घबड़ाहट कम हुई , शायद यह यहाँ का कोई कर्मचारी होगा और बारिश की बजह से यहां शरण लेने आया होगा
वो आगे बोली : करीब एक घंटे तक में इसी उलझन में रही कि मैं भी शटर को भडभडाउँ , और भीतर जा कर कम से कम और भीगने से बच जाउंगी , पर मुझे अपने शरीर से चिपके कपड़ों का ख़याल अाया , अब भीतर गया बदा न जाने कैसा हो कम से कम इन गीले कपड़ों में भीतर जाना उचित नहीं समझा । तभी मुझे ख्याल आया कि मेरे पास उस घायल के कपड़े तो हैं उसे ही पहलेती हूँ , सुबह होटल जा के बदल लूँगी , उस नीम अंधेरे में मैंने अपने गीले कपडे उतार कर उस घायल के कपडे पहन लिए , कुछ ढीले थे पर शरीर टिक गए थे
फिर उसने मेरी तरफ देखा और मुस्कराती हुई बोली : फिर मैंने बड़ी हिम्मत कर शटर खडखडाया , पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई , अचानक जोर की बिजली कड़की और जंगल में तेजी से एक पेड़ की तरफ लपकी और धड़ाम की आवाज हुई, डर के मारे मेरा हलक सूख गया , फिर मैं जोर से चिल्लाई और जोर से रोने भी लगी , और अपने हाथों से शटर को पीटने लगी
थोड़ी देर बाद शटर आधा खुला मैं झुक कर भीतर लपकी और कंपकपाती किनारे खडी हो गई , तभी शटर बंद हो गया , और तुम मेरी तरड़ देखने लगे तुम तौलिया लपेटे हुए थे , शर्म से मैं दौड़ कर जलते हुए आतिश दान के पास पहुँच गई, उसकी लौ से मुझे राहत मिली , न जाने तुम कितनी देर खड़े और कहीं दूर से तुम्हारी आवाज आती लगी , " कौन हो " ?
मैं कुछ भी बोलने की स्थति में नहीं थी , पर न जाने कैसे मैंने तुमसे बात की , मेरी घबड़ाहट खत्म हो रही थी गरमी के कारण अब नींद आ रही थी, पर तुम्हारे सामने सोने में मुझे संकोच हो रहा था , किसी तरह से तुम्हें समझा कर सोने को कहा , शायद तुम भी बहुत थक गए थे , और ठण्ड के मारे काँप भी रहे थे , फाइलों के ऊपर उस पुराने परदे को ओढ़ कर तुम सो गए , मैं भी घुटने में सर रख कर सोने की कोशिश करने लगी, पर शायद आतिश दान में लकड़ियाँ खत्म हो गई थीं और कमरे में अधेरा भी कम हो गया था, मेरी लकड़ी ढूढने की हिमत न हुई, जहां में बैठी थी वहां की फर्श भी ठंडी हो चुकी थी,
तब अपने जीवन को बचाने के लिए मैंने जिंदगी का बहुत बड़ा फैसला लिया और तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर सो गई , मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे कि अगर तुम जाग गए तो स्थति क्या बनेगी , पर ठण्ड कुछ सोचने ही नहीं देती थी,मुझे नींद आ गयी , सुबह देखा तो तुम अपने कपडे पहन चूके था और मुझे जगा रहे थे , हड़बड़ा कर मैं उठी और अपनी स्थति पर विचार किया , तभी मैंने अपने कपड़ों की और देखा, पहली बार मैंने देखा कि ये जगह-जगह फटे हुए थे और ये खून से भी सने हुए थे , मैं डर रही थी तुम न जाने क्या सोच रहे होगे , कि मं कहाँ से आ रही हूँ ? मेरे कपडे खून से क्यों सने हैं ? पर मैंने तुमको ज्यादा सोचने का मौक़ा नहीं दिया, उजाला हो रहा था, हमें इस जगह इस स्थित में देख कर लोग न जाने क्या सोचेंगे , इसलिए तुमको भी कुछ सोचने मौक़ा न देकर में जल्दी से बाहर निकल कर अपने होटल की और दौड़ पड़ी
वो मुझसे बोली , एक बात समझ में नहीं आई कि जिसने भी अस्पताल को फ़ोन किया। वो वहां क्यों नहीं था और उसी समय किसी ने पुलिस को फोन क्यों नहीं किया , अगर समय से कर दिया होता तो इतनी मुसीबत से में बच जाती, न पुलस के लिए रुकना पडता, न येर सब होता
न जाने क्यों मैं लज्जा से जमीन में गढ़ा जा रहा था
वो बोली : अच्छा तुम क्या करते हो ?
मैं : मैं उस पोस्ट आफिस का पोस्ट मास्टर हूँ
चाय वगैरह के बाद वह बोली : ,मेरी कहानी तो पूरी सुन ली, पर अपनी नहीं बताओगे, कि आफिस बंद होने के बाद भी तुम फिर वापस क्यों अाये ? ,मैं ये तो समझ गई थी कि तुम पोस्ट आफिस में काम करते हो , पर पोस्ट मास्टर होगे इसका अंदाजा न था, मैं तो किसी बूढ़े, और खूसट आदमी को पोस्ट मास्टर समझ रही थी
( मैं मन्त्र मुग्ध सा उसकी बातें सुन रहा था , कल शाम से अब तक मेरी जिंदगी कितने हिचकोले खा चुकी थी, अब आगे न जाने क्या होना है, )
जैसे किसी तरंग से वह मेरे मन की बात समझ गई थी , फिर उसने कहा : तुम सोच रहे होगे कि ये सब मैं तुम्हें क्यों बता रही हूँ , दरअसल कल रात के वाक्यात से मैंने ये जाना कि मर्द और औरत का जो रिस्ता दुनिया समझ लेती है , उसके इतर भी कोई रिस्ता हो सकता है, हर रिश्ते की बुनियाद या मुकाम वह नहीं होता जो इंसान समझता है , इंद्र धनुष में सात रंग होते हैं शायद यह आठवां रंग है
अब पहली बार मैं बोला : कल से अब तक तुम्हीं बोलती जा रही हो , सारी रात तो मुझे डरा कर रखा और सुबह से लेकर अजीब सस्पेंस में डाले हुई हो , तुम मेरा नाम तक नहीं जानती हो ,
वो बोली : न तुम मेरा नाम जानो, और न मैं तुम्हारा , हम एक दूूसरे को जेहनी और जिस्मानी तौर पर जान चके हैं इस रिश्ते को यही नाम देते हैं
और वो दौड़कर भीतर भाग गई, मुझे काटो तो खून नहीं , बोझिल कदमों से मैं अपनी मोटर साइकिल तक आया, थोड़ी देर यूं ही खड़ा रहा फिर ,पाने आफिस की और चल दिया
क्या इस कहानी को कोई और नाम दिया जा सकता था ?
:
तभी नौमी लाल एक आदमी को लेकर हांफता हुआ आया और बोला " अरे सर ! नीचे एक एक्सीिडेंट हो गया है, ज़रा अस्पताल को फोन कर देते, अभी उसकी साँसे चल रही हैं , " और झट से उसने शटर उठा दिया
धीमे कदमों से मैं अंदर घुसा और नौमि लाल से घायल की उम्र वगैरह पूछी , और उस कसबे के एकलौते अस्पताल को फोन मिलाया /
" हेलो ! सिविल अस्पताल ? " मैंने पूछा ,
" जी हाँ ! कौन बोल रहे हैं ? उधर से आवाज़ आई
" देखिये में चुंगी चौक से बोल रहा हूँ, यहां एक तीस बतीस साल के अादमी का एक्सीडेंट हो गया है, अभी वो जीवित है , कृपया एम्बुलेंस भिजवा दें , शायद उसके प्राण बच जाएँ " कातर स्वर में मैं बोला
" अभी में इंतजाम किये दे रहा हूँ , तब तक आप पुलिस को भी फोन कर दीजिये, ये मेडिको लीगल केस है " आवाज़ आई
" जी ठीक है , ज़रा जल्दी करियेगा , "मैं बोला
" आपने अपना क्या नाम बताया ?" उधर से पूछा गया
मैंने फोन रख दिया , सोचा कौन पुलिस के लफड़े में पड़े. दसियों सवाल ; पूछेंगे और गवाही पर न जाने कितनी बार बुलाएं, घायल का काम तो हो गया
मैंने नौमीलाल से शटर गिराने को कहा और , अच्छी तरह से तस्दीक कर कि ऑफिस बंद हो गया, नौमीलाल को उसकी चाभी पकड़ाते हुए सुबह समय से आने की हिदायत देकर में पगडंडी से नीचे सड़क के किनारे खडी अपनी बाइक की और चल पड़ा , पीछे थोड़ी दूर पर ही लोगों का मज़मा लगा हुआ था , मैं घायल को देखने के लोभ को दबाते हुए , मोटर साइकिल स्टार्ट कर पहाड़ी ढलान पर उतर गया
मेरे मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे कि मैंने जो किया , क्या सही किया ?, मुझे थोड़ी देर एम्बुलेंस के लिए इंतज़ार करना चाहिए था , आखिर में उस जगह का सबसे पढ़ा लिखा और मान्य व्यक्ति था, ये मेरी जिम्मेदारी बनती थी -----फिर दूसरा ख्याल आता कि सबसे जरूरी काम अस्पताल फोन कर एम्बुलेंस बुलाने का में कर चूका था , बाक़ी काम तो उस छोटी सी बाजार के वे दुकानदार भी कर ही लेंगे, उन्होंने ज्यादा करना ही क्या था ? घायल को उठाकर एम्बुलेंस में रखने में अस्पताल वालों की सहायता ही तो करनी थी, " हुंह " होगा मुझे क्या , मैंने सारे विचारों को सर झटक कर निकाल दिया
करीब छह सात किलोमीटर चलने के बाद मुझे सिगरेट की तलाब लगी , मोटर साइकिल किनारे खडी कर एक सिगरेट सुलगाई, जोर का एक काश खींचते हुए तसल्ली से चारों तरफ देखा, हवा कुछ नम हो चली थी, मैंने आसमान की तरफ देखा तो एक बूंद मेरे नाक पर गिरी, "शायद पानी बरसने वाला है" यह सोचकर सिगरेट जल्दी खत्म करने लगा, तभी मैंने सामने की पहाड़ी की तरफ देखा तो काले बादल घनघोर पानी बरसा रहे थे, मैं हड़बड़ा गया , ये बादल इसी तरफ आ रहे थे, लगता था कि अगले बीस पच्चीस मिनटों में आ ही जायेंगे । अब आगे जाना बेकार था, इस बारिश में डेढ़ घंटे बाइक चलाकर भीगते हुए जाना, और इस ठण्ड में , मुझे कतई ठीक नहीं लगा,
तभी मेरे दिल ने जैसे मुझे आवाज़ दी कि लौटकर अपने आफिस की शरण लेना ही सही होगा, मैंने बाइक घुमाई और ऊपर की तरफ चल पड़ा, पर मेरा अनुमान गलत निकला, बारिश मेरी सोच से बहुत पाहले ही आ गई, तेज हवा के झोंके के साथ पानी की ठंडी बौछार ने मुझे पहली ही बार में भिगो दिया ,मैंने बाइक की रफ़्तार कम की की और तूफ़ान की इज्जत करते हुए धीरे धीरे मुंशी चौक पहुंचा , चौक पर सन्नाटा पसरा हुआ था, बारिश की वज़ह से सभी दुकानदार दुकानें बंद कर अपने अपने घर को चले गए थे, चाय की दुकानों की भट्टियों से हल्का हल्का धुंवा उठ रहा था, उसके चारों और आवारा कुत्ते बैठे हुए ठण्ड बिता रहे थे , वहीं अपनी मोटर साइकिल खडी कर , मैं सोचने लगा कि अब ऊपर दफ्तर तक कैसे जाउं ? करीब घंटा भर पानी रुकने का इंतज़ार कर ,मैं पगडंडी से ऊपर अपने दफ्तर को चल पड़ा , मैंने अपनी चाभी से शटर खोला और भीतर गया, बिजली शायद चली गई थी , हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था, किसी तरह अनुमान से मैं अपनी मेज़ तक पहुंचा आर दराज खोल कर मोमबत्ती निकालकर जला ली , किन्तु तेज हवावों के कारण इसका टिकना मुश्किल लग रहा था , मैंने भीतर से शटर गिरा दिया और वापस मेज पर आ गया , कपडे भीगे हुए थे, ठण्ड बद रही थी , मैंने बड़ी आशा से आफिस के आतिश दान की तरफ देखा, वहां कुछ अधजली और बुझी लकड़ियाँ पडी हुई थीं, नजदीक जाने पर देखा तो आतिशदांन के दाईं तरफ एक गठ्ठर सूखी लकड़ियों का भी था, इसे जलाने और बुझाने का काम नौमी लाल का था, मैंने कभी इस और ध्यान ही नहीं दिया था , खैर कुछ रद्दी कागज़ के सहारे सूखी लकड़ियों से आतिशदांन जला दिया, इससे कमरे में गरमी आ गई, गीले कपडे उतार कर आतिशदांन के किनारे सूखने के लिए रख दिए और अपने बैग में रखे इकलौते तौलिये से बदन पोछ कर उसी को लपेट कर आतिशदांन के सामने टांग फैलाकर बैठ गया अपनी आफिस की कुछ पुरानी फ़ाइल आतिष दान के पास बिछा ली ये सोचकर कि सुबह उठाकर रख दुूँगा , कुछ घंटों के लिए ये फ़ाइल खराब नहीं होंगी " , और आफिस में एकमात्र परदे को उतार कर और झाड़ कर ओढ़ लिया । एक मुसीबत दूर होने पर दूसरी सामने आ गई, अब तक मुझे प्रचंड भूख लग आयी थी, बैग मेंभी कुछ न था , थोड़ी देर में नींद ने भूख को हरा दिया और मैं सो गया ।
तभी जोर की आवाज़ से मेरी नींद खुल गई , भड़-भड़-भड़ , कर कोई शटर को पीट रहा था , वो क्या कह रहा था मेरी समझ में नहीं आया, आतिशदान की आग से सारा कमरा उजाले से भरा हुआ था , "कौन है?" मैं जोर से चिल्लाया पर केवल भड़भड़भङाने की ही आवाज़ सुनाई दी , अचानक मेरे दिमाग में ख्याल आया कि इस निर्जन जगह पर कोई नहीं रहता, आफिस के पीछे जंगल है, नीचे बाज़ार है वहां भी इस समय कुत्तों के अलावा कोई नहीं होगा, तो यह कोन है ? सोचकर मैं सिहर गया, डर की एक ठंडी लहर मेरी पीठ में दौड़ गयी
तभी आवाज और तेज हो गई और किसी के चीखने की आवाज़ आई , अब शटर पर भड़भड़ाहट तेज हो गई , हिम्मत कर मैं उठा और किसी तरह शटर आधा खोला , तेज हवा और बारिश के झौंके के साथ एक आकृति जल्दी से भीतर आयी और शटर के किनारे खडी हो गई, मैं शटर बंद करने मशगूल था, शटर बंद करने के बाद मैंने देखा कि एक खूबसूरत लड़की एक बैग लिए ठण्ड से थरथरा रही है , वह आधी भीगी हुई थी और कातर दृष्टी से मेरी और देख रही थी ,फिर अचानक ही वह आतिशदांन की और बढी और धम्म से नीचे बैठ गई, आग की तपिश से उसे कुछ आराम मिला , मैं भी आतिषदाेंन की और आया, नजदीक आने पर मैंने देखा वह बला की खूब सूरत थी, और बिलख बिलख कर रो रही थी , जब मैंने उसके कपड़ों पर गौर किया तो मैं अंदर तक काँप गया , वो एक लबादे जैसी र्शर्ट और वैसी ही झोलंझोल पेंट पहने हुए थी, कपडे जगह जगह से फटे हुए थे और उन पर खून के दाग थे , इतने ही समय मैं सोचने लगा शायद नौमीलाल की भूतकथाओं की तरह यह भी कोई भूतनी होगी , जो जंगल से निकल कर किसी का खून पीकर यहां आ गई है
डर के मारे मेरी आवाज़ ही नहीं निकल पा रही थी पर किसी तरह हिम्मत कर मैंने उससे पूछा
" क - क - क कौन हो तुम ? "
अपनी बड़ी - बड़ी आँखें गोल-गोल घुमाती हुई वह बोली " लड़की हुूँ दिख नहीं रहा ?'
जरूर यह किसी का खूनकर के आयी है. मैंने फिर पूछा " कहाँ से आई हो ?"
सरसराती हुई आवाज़ में वह बोली कहीं से नहीं, और ज्यादा सवाल मत पूछो, अभी मुझे बदन सेंकने दो, ठण्ड से मारी जा रही हू अॉधे घंटे से शटर पीट रही थी, तुम तो शायद घोड़े बेच कर सोये हुए थे
घबराते हुए मैंने फिर पूछ " पर तुम हो कौन ? और मेरे आफिस में क्या करने आई हो ?"
भीगी हुई हूँ, ठण्ड से काँप रही हूँ, थोड़ा ये किटकिटाते हुए दाँतों को शांत होने दो , यहां नज़दीक आ जाओ, आतिशदांन के पास, एक तौलिये में हो ठंड लग जाएगी, बारिश रुकते ही चली जाउंगी
मैं उसके सामने बैठ तो गया, पर डर के मारे मेरा बुरा हाल था, नौमीलाल की वो भूतात्माएं सुन्दर लड़की का रूप धर लेती हैं और अपनी आँखों से वशीकरण कर आदमी को अपने वश में कर लेती हैं
मैं चुप हो गया, मैंने देखा वो अपने पैर के अंगूठे से आतिशदान से बाहर निकली राख पर कुरेद रही थी, सम्मोहित सा मैं उसे अपलक निहार रहा था, वो घुटनों में सर झुकाये यूं ही राख कुरेदती रही, तबी लकड़ी चटकने की आवाज़ आई,, घबरा कर उसने मुझे दुखा, और मुझे देख कर मुस्कुराई , फिर बोली। " शायद दो बज़ रहे होंगे , तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें सो जाना चाहिए " ? ,
और तुम " ? मैंने पूछ
मैं ठीक हूँ यूं ही सो जाउंगी , अब देर न करो और सो जाओ
यंत्रवत् मैं उठा और लेट गया , पर ऐसे में नींद कहाँ आने वाली थी, बार बार उसके खूनालूदा कपड़ों पर नज़र पड़ती, और मैं सिहर जाता , कभी विचार आता कि यह भूतनी तो नहीं हो सकती, फिर ख्याल आता कि शायद यह किसी का मर्डर कर भागी है, या कहीं कोई डाका पड़ा है और यह अपने साथियों से छूट गई है , उसकी तरफ देखने की मेरी हिम्मत न होती थी , पर पता नहीं ये उसका वशीकरण था या शरीर थक गया था और गरमी से मुझे नींद आ गई
अचानक मेरी नींद खुल गई, आतिशदांन बुझ चुका था, अँधेरे में कुछ सूझ भी नहीं रहा था, कुछ पल में यूं ही पड़ा रहा शायद बारिश रुक चुकी थी और तूफान थम चुका था , जैसे ही मैं उठने को हुआ मुझे लगा कि मैं किसी की बाँहों में हूँ , किसी तरह माचिस जला कर देखा तो वह मुझे अपनी बाहों में जकड़ी हुई थी, उसके चहरे पर गज़ब की मासूमियत थी, जैसे एक छोटे से बच्चे के मुंह पर होती है , मेरा डर कॅाफ़ूर हो चुका था , किसी तरह बिना उसको जगाये, मैंने आतिशदान फिर सुलगाया, फिर इसकी लाल रोशनी में उसका चेहरा और खिल गया, मैंने धीरे शटर उठाया, बाहर देखा पौ फटने वाली थी, शटर नीचे गिरा कर मैंने अब तक सूख गए कपडे जैसे तैसे पहने , और उसे उठाने लगा ,
अंगड़ाई लेकर वह जागी और मुझे अपने सामने पाकर हड़बड़ाई,फिर उसने उस फाइलों के बिस्तर को देखा, उसके चहरे पर एक लालिमा दौड़ गई पर दूसरे ही पल वह मुस्कुरा कर बोली " तुम्हारा अहसान रहेगा मुझपर "
और अपना बैग उठाकर तीर की तरह शटर उठाकर बाहर निकल गई , मैं संज्ञाशून्य होकर आतिश दान के पास खड़ा रह गया , , काफी देर बाद जब मैं संभला तो शटर के बाहर निकला , चारों और देखा तो दूर दूर तक वह नज़र नहीं आई , पौ फट चुकी थी , पक्षी अपनी नीड़ों से निकलने लगे थे , मैं अब बहुत डर गया था , जरूर वह जंगलों से आयी कोई प्रेतात्मा थी ,जो फिर से जंगल में चली गई थी
सिहर कर मैं भीतर आ गया और , जल्दी से शटर गिरा कर आतिश दान के पास आ गया , सारी फाइलें उठाकर करीने से रखीं और कुर्सी पर धम्म से बैठ गया , अब मेरी सोचों को पंख लग गए , उसके बारे में सोचते-सोचते मुझे फिर नींद आ गई
इस बार फिर मेरी नींद शटर के भड़भड़ाने की आवाज़ से टूटी , बाहर से आवाज़ आ रही थी "अरे साहब शटर खोलिए "
हड़बड़ा कर मैंने पूछ। " कौन "/फिर उठकर शटर खोल दिया , सामने झबरू चाय वाले का नौकर चाय का झींगा ले कर खड़ा था, बाहर चटक धूप फैली थी, शायद मैं काफी देर सो गया था , लडके को भीतर आने का इशारा कर , मैं भीतर आ गया , लडके ने चाय टेबल पर रही और मुझसे बोला " बाबूजी ने कहा है, एक घंटे बाद दुकान पर खाना खाने आ जाइयेगा , " और वह चला गया
रात से भूखा था , इसलिए चाय बहुत अच्छी लग रही थी , पर चाय से भूख नहीं मिटने वाली थी , मन में सोचा कि चलो नीचे दुकानों में कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा , यह सोचकर शटर गिरा कर में नीचे जाती पगडण्डी पर चल पड़ा
चाय वाले की दूकान पहुंचा तो वह बोला , " राम राम साहेब ! चाय पी ली ? आपकी बाइक देख कर मैं समझ गया था कि बारिश तेज होने के कारण आप आफिस में रुक गए होंगे " बैठिये , बैठिये
मैं अभी भी सस्पेंस से भरा था कि उस एक्सीडेंट का क्या हुआ ? ये बात मैंने चाय वाले से पूछी
वो बोला , अरे साहब सभी आपकी तरह थोड़े न होते हैं , अपने तो हस्पताल फोन कर दिया था, एम्बुलेंस भी वक्त पर आ गई थी, पर यहाँ के लोग इतने निर्दयी हैं किसी ने घायल को छू भर नहीं दिया
"तो ?" अधीरता से मैंने पूछा
वह बोला : न जाने कहाँ से देवी की तरह एक लड़की आई, उसने पहले तो तमाशा देखने वालों को फटकारा और कहा कि घायल को एम्बुलेंस में रखो, पर कोई आगे नहीं आया
मेरा कंठ सूख रहा था , फंसी आवाज़ में मैंने पूछा , " फिर ?"
" फिर क्या था सर ! उसने अपना दुपट्टा कमर में खोंसा और धड़ल्ले से घायल को उठाने लगी , उसे देखकर कुछ लडके भी आगे बढे और सभी ने मिल कर घायल को एम्बुलेंस में चढ़ा दिया, उन सभी को लेकर एम्बुलेंस अस्पताल की और दौड़ पडी "
मैंने पूछा " फिर ?"
वो बोला, " थोड़ी देर तक तो हम सभी बात करते रहे कि देखो कितनी हिम्मती लड़की है, किसी ने उसका बैग उठाकर मेरे दूकान की इस नेञ्च पर रख दिया , तभी जोर की हवाएँ चलने लगीं , कोई चिल्लाय " भागो " पानी आ रहा है, सबने अपनी अपनी दुकानें बंद करीं और लगभग दौड़ते हुए अपने अपने घर को भाग गए
" वो लड़की और उसका बैग " ? उतावलेपन से मैंने पूछा
झबरू : पता नहीं साहेब हम लोग तो भाग ही गये थे ,
कुछ आशंका से मैंने पूछ ; " वो क्या पहिने थी "
झबरो : बताया तो आपको वो कुरता पायजामा और दुपट्टा पहिने हुए थी
अब मेरे मन की शंका और बलवती हो गई कि ये लड़की वो रात वाली तो कतई नहीं हो सकती, भले ही झोला उसके पास था पर कपडे उसके खून से सने हुए थे और वह लबादे सी कोई पोशाक पहिने हुए थी
तब तक खाना लग गया था , खाते हुए मैंने सोचा कि क्या नौमि लाल की बातें सच हो सकती हैं कि पीछे जंगलों में चुड़ैलें रहती हैं जो खून पीती हैं?
फिर सहसा मैंने अपने मन से विचारों को झटक दिया और सोचा कि इस तरह की बातें कह कर लोग मेरी बात को प्रमाण मान लेंगे और नौमी लाल को तो दिनभर गप्पें लड़ाने के लिए मौक़ा मिल जायेगा
तब तक नौमीलाल भी आ गया, उसने आफिस खोल दिया, पहले तो मुझे देख कर उसे अचम्भा हुआ, फिर शायद वो मेरी कल की हिदायत को ध्यान में रख कर बोला, " देखिये साहब में समय से पहले आ गया हूँ "
ठीक है कह कर मैं भी अपनी सीट पर बैठ गया
शायद आज काम ज्यादा था, सामान्य काम के अलावा टेलीग्राम व् मनीआर्डर बहुत आ रहे थे , शायद कल के तूफ़ान के बाद सब अपनी कुशल अपनों को देना चाह रहे थे , तीन बजे तक काम बहुत हो गया, मेरा सहायक भी कुनमुनाने लगा, वो रोज पांच बजे से पहले आफिस छोड़ने का आदी था
तभी एक तीखी खुसबू का झौंका आफिस के भीतर आया , अनमने भाव से मैंने सर उठकर देखा तो जींस , शर्ट पहने और आाँखों में गागल लगाये एक लड़की नमूदार हुई , ऐसी लड़कियों को देखकर मैं घबड़ा जात्ता था क्योंकि वे फर्राटे से अंग्रेजी बोलतीं, और मेरा अंग्रेजी में हाथ थोड़ा तंग था , किसी बात क उत्तर देने से पहले मुझे मन में उत्तर का अंग्रजी में तर्जुमा करना पडता और किर टेन्स व् ग्रामर भी देखकर बोलना पढता था , इसलिए में अटक अटक कर बोलता ।
नजदीक आकर वह बोली : एक्सक्यूज मी ! कैन यू स्पेयर सम टाइम
मुझे अब घबड़ाहट होने लगी, अपनी स्थति को देखे बिना में बोला : ओह ! व्हाई नाट
वो बोली : लेट हैव अ कप ऑफ़ टी सम व्हेयर
( उसको जवाब न दे मैंने अपने सहायक को कहा कि अधिकतर काम पूुरा हो चुका है, वह तिजोरी में कैश मिला कर रख दे और घर चला जाए, और सुबह जल्दी आ जाए, , मेरी बात सुनकर वह अचम्भे से मुझे देखने लगा , क्योंकी इस तरह से मैं आफिस नहीं छोड़ता था, पर उसने सोचा कि ये लड़की शायद मेरे पहचान की है और वो जो कुछ भी कह रही थी उसका मतलब न वो जानता था न नौमी लाल )
बाहर निकल कर वह बोली : मुझे मालूम है तुम बाइक से आते हो चलो तुम्हारी बाइक से ही होटल की और चलते हैं
मैंने बाइक स्टार्ट ही की थी कि वह बाह मेरा कंधा पकड़ कर उचक कर बाइक पर बैठ गई, अपने होटल तक पहुँचने तक वह कुछ नहीं बोली , फिर होटल पहुँच कर डाइनिंग स्पेस की तरफ एक मेज के पास पहुँच कर बोली : बैठो
मैं यंत्रवत बैठ गया ,
उसने वेटर को आवाज़ दे कर कुछ खाने के लिए और चाय लाने के लिए कहा
फिर मेरी तरफ देख कर मुस्कुराती हुयी बोली। : हाँ तो जनाब मुझे पहचाना ?
मैं सन्नाटे भरी आवाज़ में बोला : नहीं
वो मुस्कुराती हुई बोली : मैं मुंबई से करीब हर साल यहाँ आती हूँ इस मौसम में, मेरा फृुुट्स का बिजनेस है वहां, में फ्रूट्स एक्सपोर्ट भी करती हूँ, यहां के कई बागान जैसे से सेब नासपाती वगैरह की फसल पहले ही खरीद लेती हूँ और मौसम आने पर इनकी पैकिंग यहां से अपने सामने कराती हूँ इसमें कररीब पंद्रह दिन लग जायते हैं, ये मेरा हिल टूर भी हो जात्ता है और बिजनेस अलग
तभी चाय आ गई, और कुछ कटलेट भी, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मुझे आफिस से उठाकर अपने बिजनेस के बारे में बताने लाई है, ये भी जेहन में आता कि शायद अपने बिजनेस के सिलसिले में पोस्ट आफिस से कोई काम हो, जो बिजनेस ये बता रही है, वह लाखों में तो होगा, हो सकता है कि अपने पैसे मुंबई ट्रांसफर कराने के लिए पोस्ट आफिस की सहायता लेना चाहती हो , इन अमीरों के कई चोंचले होते हैं क्या पता किसी बात पर पोस्ट आफिस से नाराज ही न हो गई हो !
चाय की चुस्की लेकर वह बोली : मैं कान्वेंट एजुकेटेड हूँ , एम बी ए हूँ अपना बिजनेस खुद संभालती हूँ, हांलाकि मेरे पापा का अपना बिजनेस है पर वे हमेशा हम लोगों को अपने पैर पर खड़े होने की सलाह देते हैं , इधर मेरा काम काफी निपट गया है , केवल कुछ पेटियां सेव की ट्रांसपोर्ट से भिजवानी थीं कल उन्हें भी निपट दिया , और कल मैं यहाँ से मुम्बई के लिए निकल जाउंगी "
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह अपने बिजनेस के बारे में मुझे क्यों बतला रही है /, ये क्या चाहती है ? मेरा दिमाग भन्ना रहा था , मेरी मन: स्थति समझ कर वह बोली, " शायद तुम्हें मेरी बातें अजीब लग रही होंगी , पर ये बात में तुम्हें सुनना चाहती हूँ "
मैं : क्या पोस्ट आफिस से आपके बिजनेस में कोई गलती तो नहीं हुई ?
( क्योंकि इस तरह की अमीर लड़कियां अपनी बात को बहुत घुमा फ़िर कर कहती हैं , और बाद में माफ़ी मांगने या फिर डेमरेज देने के लिए मजबूर कर देती है, , ये तो चाय पिलाकर ही शायद अपना ऊल्लु सीधा करे )
वो मुस्कुराती हुई बोली : " अरे नही ! मेरा पोस्ट आफिस से कोई काम नहीं पढ़ता, मैं तो यहाँ ट्रांसपोर्ट आॅफ़िस तक आती जाती हूँ
मई : तो फिर ?
वह : देखो गौर से सुनो , कल मैं पेटियों की जी आर बनवा कर मुंशी चौक पहुंची थी कि देखा एक एम्बुलैंस खडी है, और एक तीस-एक वर्ष का आदमी सड़क पर पड़ा हुआ है, एम्बुलैंस के साथ ड्राइवर के अलावा केवल एक हेल्पर था, जो लोगों से गुजारिश कर रहा था कि इसे स्ट्रेचर में लादने में कोई उसकी मदद करे, पर सभी लोग संज्ञा हींन खड़े थे, मुझे बड़ा अटपटा लगा , मैंने लोगों से कहा कि" भाई ! कुछ लोग इनकी मदद क्यों नही करते, पर मेरी बात का भी कोई असर नहीं हुआ, तब मैंने अपना बैग किनारे रख खर दुपट्टे का फेंटा बांधा और घायल की तरफ लपकी, तभी कुछ और लोग मेरी देखा देखी उधर आये और बड़ी सहजता से घायल को एम्बुलेंस में रख दिया , अब एम्बुलैंस में अस्पत्ताल तक जाने को कोई तैयार नहीं हुआ , मैं लपक कर एम्बुलेंस में बैठ गई और ड्राइवर से कहा चलो भाई देर न करो, तभी एक दो लोग और चढ़ गए, फिर सायरन बजाती एम्बुलैंस अस्पताल पर ही रुकी, , हेल्पर ने हम लोगों से कहा कि इसका स्ट्रेचर नीचे उतारें तब तक मैं अंदर खबर कर के आता हूँ , थोड़ी एर में घायल को इमरजेंसी में दाखिल कर दिया गया, मैंने तसल्ली की सांस ली
( कौतूहल से मेरा सर चकरा रहा था , पर वह अपनी बात कहती रही )
तभी एक डाक्टर भीतर से आया और बोला घायल को यहाँ कौन लाया ? मैंने अपने पीछे देखा जो मेरे साथ आये थे वो निकल लिए थे , वार्ड बॉय बोला." सर ! ये मैडम लायी हैं
डाक्टर ने मेरी तरफ देखा और बोला," जाईयेगा नहीं , अभी पुलिस आ रही है, घायल के बारे में पूछ ताछ होगी , मैंने हड़बड़ाकर कहा पर मैं तो इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती , " डाक्टर बोला, " इससे उसे कोई मतलब नहीं है, मेडिकाओ-लीगल केस है, हमने प्रिमरी इलाज कर दिया है , बाक़ी पुलिस की परमिशन के बाद करेंगे
थूक निगल कर मैंने पूछ ," फिर "
वो बोली , "फिर क्या , करीब आधा घंटे बाद पुलिस आई, वहीँ बेच पर बैठे वे मुझसे सवालात करने लगे
मैं : "जैसे ?
वो : जैसे मेरा नाम,काम, मैं घायल को कब से जानती हूँ, एक्सीडेंट कब हुआ, मेरी जानकारी में कब आया, मेरा घायल से क्या रिस्ता है , वगैरह, वगैरह
मैं : फिर ?
लड़की : जब मैंने अपना नाम बताया और अपनी वल्दियत बतलाई तो वे नरम पैड गए, दरोगा ने डाक्टर से जल्दी इलाज शुरू करने को कहा, और मुझे देख कर बोला " थैंक्यू मैडम ! आप जैसे शहरियों के कारण पुलिस को तफ्शीश जल्द करने में आसानी होती है, हो सकता है कि आपका बयान कलमबंद करने के लिए आपको थाने आना पड़े घबड़ाइयेगा नहीं, " और वे लाव लश्कर सहित चल दिए
थोड़ी देर में एक कम्पाउण्डर बाहर निकला, एक कागज़ में कुछ लिपटा हुआ मेरे सामने रख कर बोला," ये घायल के कपडे हैं , उसे अस्पताल के कपडे पहना दिए गए हैं, आप तीन हज़ार रुपये जमा कर दीजिये फिलहाल सुबह तक चल जाएंगे
मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था, मशीन की तरह मैंने अपने पर्स से तीन हज़ार निकाल कर उसे दे दिए, वो एक रसीद मेरे हाथ में थमा कर बोला, " अब आप जाइये , आपके मरीज का इलाज शुरू हो चुका है , सुबह दस बजे से पहले उससे मिल नहीं सकती , उसने मुझे अस्पताल से बाहर कर गेट बंद कर डिया , मैं बड़ी असमंजस में थी कि कहां जाऊँ ? तभी मुझे ख़याल आया कि मेरा बैग तो मुंशी चौराहे पर पड़ा है
तेज कदमों से में नीचे उतरने लगी, तभी ठंडी हवा का एक झौंका मेरे चहरे को छू गया , लगा कि शायद पानी बरसेगा, लगभग दौड़ती हुई मै चौक तक पहुंची तो वहाँ सन्नटा था, सांय- सांय कर हवा चल रही थी, एक चाय की दुकान की बेंच पर मेरा बैग पड़ा हुआ था , मैंने उसे झट से उथया, तभी पानी की एक मोटी बून्द मेरे हाथ पर पड़ी , मैं पगडण्डी चढ़ चुकी थी और मुझे मालूम था कि पोस्ट आफिस के अहाते में शेल्टर है , वहीं बारिश रुकने का इन्तजार करती हूँ , जल्दी जल्दी कदम बढ़ाने बावजूद में शेल्टर पहुँचते पहुँचते थोड़ा बहुत भीग गयी
मैं : फिर ?
लड़की : फिर जैसा मैं सोच रही थी वैसा न हुआ, उस शेल्टर पर पानी की बौछार तिरछी आ रही थी , और सहसा मैं पूरी भीग गयी , सिकुड़ते-सिकुड़ते में पोस्ट ऑफिस की दीवार से चिपक सी गई , अब मेरा धीरज जवाब दे रहा था , ठंड के मारे में कांप रही थी , चारों और सांय-सांय कर चलती हवा और मुुुसलधार पानी , न जाने कब तक यह पानी बरसेगा , रुक भी गया तो आधी रात को पांच किलोमीटर होटल तो अकेली न जा पाउंगी ,अचानक मेरी रुलाई फूट पडी, उस समय मुझे अपने पापा बहुत याद आये , उनके द्वारा सिखाये बचन मुझे याद आ रहे थे कि किसी भी मुसीबत में घबड़ाना नहीं उससे निकलने की सोचना
सन्न पड़ा मैं बोला , फिर ?
वो : बहुत देर तक में यूं ही असमंजस में खडी रही कि यहां इस तरह रुकना खतरनाक है, पानी रुकने के बाद जंगल से जानवर भी शिकार पर निकलेंगे , आगे की सोच ही रही थी कि मुझे किसी गाड़ी की गड़गड़ाहट सुनाई दी , नीचे से शायद कोई गाड़ी आ रही थी। मैंने सोचा कि इसके चौक पहुँचने से पहले में वहां पहुँच जाऊं और उनसे लिफ्ट ले कर होटल चली जाऊं , पर जैसे ही मैंने शेल्टर से बाहर कदम रखा तो मैं फिर बुरी तरह भीग गयी , तभी गाड़ी की आवाज़ भी बंद हो गई , मैं फिर दीवार से चिपक गई
मैं : फिर क्या हुआ ?
वो : बड़ी देर तक यूं ही खडी रही, तब मुझे किसी की पदचाप सुनाई पड़ी , मैं और सिहर गई न जाने किसी ने मुझे देख लिया था
मैं सस्पेंस में मरा जा रहा था
फिर उतावले स्वर में बोला : फिर ?
वो : मैंने देखा एक आदमी पोस्ट आफिस का शटर खोल रहा था, वह बुरी तरह भीगा हुआ था ,ठण्ड के मारे वह काँप रहा था और बड़ी मुश्किल से वह शटर खोल पाया और भीतर घुसते ही उसने शटर बंद कर लिया ,चाहे जैसे भी हो अब मेरी घबड़ाहट कम हुई , शायद यह यहाँ का कोई कर्मचारी होगा और बारिश की बजह से यहां शरण लेने आया होगा
वो आगे बोली : करीब एक घंटे तक में इसी उलझन में रही कि मैं भी शटर को भडभडाउँ , और भीतर जा कर कम से कम और भीगने से बच जाउंगी , पर मुझे अपने शरीर से चिपके कपड़ों का ख़याल अाया , अब भीतर गया बदा न जाने कैसा हो कम से कम इन गीले कपड़ों में भीतर जाना उचित नहीं समझा । तभी मुझे ख्याल आया कि मेरे पास उस घायल के कपड़े तो हैं उसे ही पहलेती हूँ , सुबह होटल जा के बदल लूँगी , उस नीम अंधेरे में मैंने अपने गीले कपडे उतार कर उस घायल के कपडे पहन लिए , कुछ ढीले थे पर शरीर टिक गए थे
फिर उसने मेरी तरफ देखा और मुस्कराती हुई बोली : फिर मैंने बड़ी हिम्मत कर शटर खडखडाया , पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई , अचानक जोर की बिजली कड़की और जंगल में तेजी से एक पेड़ की तरफ लपकी और धड़ाम की आवाज हुई, डर के मारे मेरा हलक सूख गया , फिर मैं जोर से चिल्लाई और जोर से रोने भी लगी , और अपने हाथों से शटर को पीटने लगी
थोड़ी देर बाद शटर आधा खुला मैं झुक कर भीतर लपकी और कंपकपाती किनारे खडी हो गई , तभी शटर बंद हो गया , और तुम मेरी तरड़ देखने लगे तुम तौलिया लपेटे हुए थे , शर्म से मैं दौड़ कर जलते हुए आतिश दान के पास पहुँच गई, उसकी लौ से मुझे राहत मिली , न जाने तुम कितनी देर खड़े और कहीं दूर से तुम्हारी आवाज आती लगी , " कौन हो " ?
मैं कुछ भी बोलने की स्थति में नहीं थी , पर न जाने कैसे मैंने तुमसे बात की , मेरी घबड़ाहट खत्म हो रही थी गरमी के कारण अब नींद आ रही थी, पर तुम्हारे सामने सोने में मुझे संकोच हो रहा था , किसी तरह से तुम्हें समझा कर सोने को कहा , शायद तुम भी बहुत थक गए थे , और ठण्ड के मारे काँप भी रहे थे , फाइलों के ऊपर उस पुराने परदे को ओढ़ कर तुम सो गए , मैं भी घुटने में सर रख कर सोने की कोशिश करने लगी, पर शायद आतिश दान में लकड़ियाँ खत्म हो गई थीं और कमरे में अधेरा भी कम हो गया था, मेरी लकड़ी ढूढने की हिमत न हुई, जहां में बैठी थी वहां की फर्श भी ठंडी हो चुकी थी,
तब अपने जीवन को बचाने के लिए मैंने जिंदगी का बहुत बड़ा फैसला लिया और तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर सो गई , मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे कि अगर तुम जाग गए तो स्थति क्या बनेगी , पर ठण्ड कुछ सोचने ही नहीं देती थी,मुझे नींद आ गयी , सुबह देखा तो तुम अपने कपडे पहन चूके था और मुझे जगा रहे थे , हड़बड़ा कर मैं उठी और अपनी स्थति पर विचार किया , तभी मैंने अपने कपड़ों की और देखा, पहली बार मैंने देखा कि ये जगह-जगह फटे हुए थे और ये खून से भी सने हुए थे , मैं डर रही थी तुम न जाने क्या सोच रहे होगे , कि मं कहाँ से आ रही हूँ ? मेरे कपडे खून से क्यों सने हैं ? पर मैंने तुमको ज्यादा सोचने का मौक़ा नहीं दिया, उजाला हो रहा था, हमें इस जगह इस स्थित में देख कर लोग न जाने क्या सोचेंगे , इसलिए तुमको भी कुछ सोचने मौक़ा न देकर में जल्दी से बाहर निकल कर अपने होटल की और दौड़ पड़ी
वो मुझसे बोली , एक बात समझ में नहीं आई कि जिसने भी अस्पताल को फ़ोन किया। वो वहां क्यों नहीं था और उसी समय किसी ने पुलिस को फोन क्यों नहीं किया , अगर समय से कर दिया होता तो इतनी मुसीबत से में बच जाती, न पुलस के लिए रुकना पडता, न येर सब होता
न जाने क्यों मैं लज्जा से जमीन में गढ़ा जा रहा था
वो बोली : अच्छा तुम क्या करते हो ?
मैं : मैं उस पोस्ट आफिस का पोस्ट मास्टर हूँ
चाय वगैरह के बाद वह बोली : ,मेरी कहानी तो पूरी सुन ली, पर अपनी नहीं बताओगे, कि आफिस बंद होने के बाद भी तुम फिर वापस क्यों अाये ? ,मैं ये तो समझ गई थी कि तुम पोस्ट आफिस में काम करते हो , पर पोस्ट मास्टर होगे इसका अंदाजा न था, मैं तो किसी बूढ़े, और खूसट आदमी को पोस्ट मास्टर समझ रही थी
( मैं मन्त्र मुग्ध सा उसकी बातें सुन रहा था , कल शाम से अब तक मेरी जिंदगी कितने हिचकोले खा चुकी थी, अब आगे न जाने क्या होना है, )
जैसे किसी तरंग से वह मेरे मन की बात समझ गई थी , फिर उसने कहा : तुम सोच रहे होगे कि ये सब मैं तुम्हें क्यों बता रही हूँ , दरअसल कल रात के वाक्यात से मैंने ये जाना कि मर्द और औरत का जो रिस्ता दुनिया समझ लेती है , उसके इतर भी कोई रिस्ता हो सकता है, हर रिश्ते की बुनियाद या मुकाम वह नहीं होता जो इंसान समझता है , इंद्र धनुष में सात रंग होते हैं शायद यह आठवां रंग है
अब पहली बार मैं बोला : कल से अब तक तुम्हीं बोलती जा रही हो , सारी रात तो मुझे डरा कर रखा और सुबह से लेकर अजीब सस्पेंस में डाले हुई हो , तुम मेरा नाम तक नहीं जानती हो ,
वो बोली : न तुम मेरा नाम जानो, और न मैं तुम्हारा , हम एक दूूसरे को जेहनी और जिस्मानी तौर पर जान चके हैं इस रिश्ते को यही नाम देते हैं
और वो दौड़कर भीतर भाग गई, मुझे काटो तो खून नहीं , बोझिल कदमों से मैं अपनी मोटर साइकिल तक आया, थोड़ी देर यूं ही खड़ा रहा फिर ,पाने आफिस की और चल दिया
क्या इस कहानी को कोई और नाम दिया जा सकता था ?
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