Sunday, 14 September 2014

हिन्दी दिवस


 


आज १४' सितम्बर है जिसे देशभर में हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है  कितनी विडम्बना है कि इस आयोजन को पूर्णत: सरकाारी  आयोजन बना दिया गया है, स्थति इतनी हास्यास्पद  है कि इस आयोजन को सरकारी स्कूलों एवं सरकारी कार्यालयों तक ही सीमित कर दिया गया है, "हिन्दी  हमारी राष्ट्रभाषा है" यह नितान्त  सरकारी उद्गोष है  । आजकल की पीढी को हिन्दी के उद्गम एवं विकास के बारे में शायद ही जानकारी हो  ।  विगत शताब्दी तक हिन्दी का अधिक प्रचलन नहीं था । समाज में उर्दू ही लोकप्रिय थी , आजादी के पूर्व अन्यान्य शासकों द्वारा अपने राज्य में उर्दू  को ही मान्यता दी गई थी , कतिपय राज्यों में वहां की स्थानीय  भाषा का उपयोग होता था ,देवनागरी यद्यपि स्क्रिप्ट तो थी पर इसका उपयोग खडी बोली में नहीं लिया जाता था ! भक्ति काल में भी रचनाकारों ने स्थानीय भाषाओं का ही सहारा लिया, जैसे तुलसी ने अवधी, सूरदास ने ब्रजभाषा का उपयोग किया, हमारा धार्मिक साहित्य भी देवनागरी लिपि में संस्कृत में लिखा गया , हिंदी बहुत काम लिखी व् बोली जाती थी । 


बाबू देवकी नंदन खत्री वास्तव में हिन्दी के प्रचार के जनक माने जा सकते हैं । उनके उपन्यास " चन्द्रकान्ता संतति " इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे पढने के लिए जनमानस ने हिन्दी, बोलना व् लिखना प्रारम्भ किया । आज जब  जेक़े रोलिंस की पुस्तक "हैरी पॉटर" सारी दुनिया में इतनी प्रसिद्धि पा गई है , उसका कारण है कि यह रहस्य और रोमांच से पाठकों को बांधे रखती है । खत्री जी के काल में इतने छापेखाने नहीं थे, सीमित मात्रा में ही प्रतियां छप पाती थीं । उपन्यास में रहस्य्मयी किरदार व् अय्यारी (जासूसी) , चुनार के किले के रहस्य्लोक और खूबसूरती से गढ़े  गए डायलॉग, व् राजकुमार / राजकुमारी  कहानी का वर्णन बहुत ही उत्सुकता भरा था , इसलिए हिन्दी में उपलब्ध इस कालजयी कृति ने लोगों को इसका दीवाना  बना दिया और इसे पढने के लिए हिन्दी सीखना शुरू किया ।  देश में आज़ादी का बिगुल बज चुका था उस समय के रचनाकारों ने उर्दू के साथ साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखी जिससे साधारण जनमानस में हिन्दी अति लोकप्रिय हुई । मुंशी प्रेमचन्द्र का रचना संसार अधिकतर ग्रामीण परिवेश से या निर्धन समाज से  जुड़ा था , तनिक उर्दू मिश्रित उनकी हिन्दी ने पाठकों  को अपना मुरीद बना दिया , उनकी रचनाएँ इतना समय बीत जाने के बाद  आज भी प्रासंगिक हैं । आज़ादी की लालिमा वाले काल खण्ड में कई रचनाकाारों ने हिन्दी साहित्य को भाषा की जटिलता में बाँध दिया ,जयशंकर प्रसाद "बीती  विभावरी जागो री, अम्बर पब्घाट में डुबो रही ताराघट  ऊषा नागरी" लिख रहे थे, वहीं प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत जी " बुलबुलों का व्याकुल संसार, बबनाए बिथुरा  देती अज्ञात" जैसा मौन निमंत्रण दे रहे थे, महादेवी वर्मा और निराला भी अपनी रचनाओं से साहित्य साधना कर रहे थे जिससे हिन्दी जनमानस में फैल  रही थी । देश आज़ाद हुआ , तबके रणनीति कारों ने हिन्दी को  बहुत विरोध के बावजूद  राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया , पर वे इसका उचित उपयोग न कर सके । सरकारों ने अपनी हठधर्मिता के कारण इसे ग्राह्य नहीं बनने दिया , इसका दुर्भाग्य था कि सरकारें जो भी सम्प्रेषित करना चाहती थीं उसका ड्राफ्ट पहले अंग्रेजी में बनाया जाता फिर उसका शब्दत : हिन्दी में अनुवाद किया जाता था जिससे उस ड्राफ्ट की मूल भावना कभी भी सम्प्रेषित नहीं हो पायी , । आज भी राजभाषा इतनी क्लिष्ट है कि इसे सामान्य जन समझ नहीं पाते । राजभाषा हेतु ऊंचे स्तर  पर निर्णय लेने वाले अधिकांश अधिकारी तथाकथित अभिजात्य वर्ग से होते हैं जो हिन्दी को निम्न स्तर  का समझते हैं , इसलिए सरकारी विज्ञापनों, सूचनाओं अथवा गज़टों  में आवश्यक रूप से वर्णित होता है कि " किसी भी विवाद में इस लेख का अंग्रेजी प्रारूप  ही मान्य होगा " । ऐसी दशा में यसह लगता है कि हिन्दी को जबरन गले में ठूसा जा रहा है  । जिस देश की राजभाषा ही सामान्य जन  में  ग्राह्य न हो वह देश क्या विकास करेगा  ? चीन, जापान, अमेरिका , जर्मनी, या फ्रांस जैसे देश इसलिए भी शक्तिशाली हैं कि उनकी राष्टभाषा उनकी अपनी लिपि में है और वे उपनिवेषी  अंग्रेजी के गुलाम नहीं हैं । 

आज जब हमारा स्कूल जाने  वाला बच्चा  अपनी तोतली बोली में ;"twinkle twinkle little star, / Baba black sheep have you any wool "इत्यादि सुनाता है तो हम कितने गदगद हो जाते हैं , महिलाएं तो मेहमानों के सामने बच्चे को जबरन इन्हें सुनाने को कहती हैं जिससे  मेहमानों पर अपने अभिजात्य होने का प्रमाण दे सकें । बच्चे को बड़ा होते होते दो तरह का माहौल मिलता है ,  स्कूल में तो अंग्रेजीि में पढता लिखता है और घर पर अपने स्वजनों से हिन्दी में ही बोलता है , जिससे उसकी  किसी भी भाषा में  पकड़ नहीं रहती , वह हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही न सही बोल पाता है और न लिख पाता है , आज के बच्चों से हिन्दी की गिनती अथवा वर्णमाला पूछ लीजिये वे कतराने लगेंगे , यह दशा है हमारी राष्ट्र भाषा की जिसे हमारे नौनिहाल ही नहीं जानते । हिन्दी में हमारा विपुल साहित्य है, जहां अच्छी कहानियां, निबंध, वैज्ञानिक कहानियां उपलब्ध हैं, जिसे आजकल के बच्चे उतना मान नहीं देते , पर अगर किसी ने हैरी पॉटर नहीं पढ़ा है तो वह गंवार माना जायेगा । मुझे अत्यंत आश्चर्य होता है जब बॉलीवुड के हिन्दी गाने सारे संसार में लोगों की जुबान पर आसानी से चढ़ जाते हैं, लोग इन्हें गुनगुनाते हैं, फिर भी हमारे देश के कतिपय दक्षिणी प्रदेशों में लोग बूझकर हिन्दी न जानने का ढोंग करते हैं, जबकि वे भी भारतवर्ष में हैं पर वे इस देश की राष्ट्र भाषा  को नहीं अपनाते । यद्यपि कहा जाता है कि संगीत की कोई भाषा नहीं होती, पिछले दिनों "कोलावरी डी  " कितना पॉपुलर हुआ था , पर इसका मतलब जानने के लिए लोगों में उत्सुकता बनी हुई थी , ऐसा हिंदी गानों के लिए दक्षिणी प्रांतों में क्यों नहीं होता ? वे जानबूझकर भी अनजान क्यों बने रहते हैं ? 

हिन्दी को मात्र राष्ट्रभाषा कह देने से और आज के दिन इसका दिवस मना लेने भर से इसका उद्धार नहीं होने वाला, हमें यह देखना होगा कि यह किस तरह से भारतीयों के लिए सहज और बातचीत वाली भाषा बन सके और हम इसे बोलने और लिखने में गर्व कर सकें, जैसा कि चीन, जापान और जर्मनी में होता है , यह तभी संभव है जब सरकारें उस तथाकथित आभिजात्य वर्ग से छुट्टी पाये, और वर्तमान की राष्ट्रभााषा को और सरल और समझने लायक बनाया जाए । क्लिष्ट हिन्दी और अंग्रेजी  के लिए अनेक क्षेत्र हैं जहां इसके कद्र्दान अपनी विधा दिखा सकते हैं ।  इसलिए मित्रों ! मेरा तो यही मानना है कि बहित हुआ अब हिन्दी को वास्तविक हिन्दी मनाया जाए, इसे अंग्रेजी के अभिजात्यपन से बाहर निकाला जाय, इसका आदर किया जाय, इसे लिखने और बोलने में गर्व महसूस किया जाय , यही इस दिवस की सफलता होगी, "जय हिन्दी, जय भारत " 


No comments:

Post a Comment