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सोलह कलाएं , यानी पूर्ण अवतार ! किन्तु कृष्ण के अवतार में , कृष्ण ने स्वयं को न तो भगवान माना बल्कि उन्होंने अपनी समस्त कलाओं में अपने को मनुष्य ही बताया । उनकी कथाओं में कतिपय पलों के अलावा उन्होंने हमेशा मनुष्योचित ही व्यवहार किया , उनका जीवन व् कार्यसमय बहुत लंबा है, जन्म से लेकर प्रस्थान तक उन्होंने सदा ही संघर्ष किया है पर इस पूरे प्रकरण में उन्होंने इस गाथा को हँसते गाते ही जिया है । उनका जन्म ही बहुत रहस्य्मयी है , कारावास में एक अजीब सी अधीरता एवं भय के बीच वह अवतार लेते हैं तथा उसी समय से वे अपनी लीला प्रारम्भ कर देते हैं, पहरेदारों का गहन निद्रा में चले जाना , भादों की विकराल बारिश में , उफनाई यमुना को डलिया में बैठ कर पार करते समय यमुना द्वारा उनके चरण पखारते हुए उन्हें सहज मार्ग देना , गोकुल पहुंच कर कंस के अत्याचारों से वीरता से निपटना , पूतना आदि राक्षसों का वध, कालिया व् इंद्र का मान मर्दन कर वे अपनी उपस्थिति का आभास देते हैं । यमुना के गहरे पानी में कंदुक लाने के बहाने पैठ , गोवर्धन पर्वत को अपनी तर्जनी पर उठा कर वह सभी तथा खासकर कंस को अपने बल का परिचय कराते हैं । गोकुल में ग्वालों के गोवंश के उत्पादों को मथुरा के लोग उपभोग कर बलशाली हो रहे थे इनको वहां न भेजा जाय , इस के लिए वे दही माखन चुराते थे यानी इन्हें खाने लायक नहीं छोड़ते थे, जो दही माखन उनकी नजर बचा कर गोपियाँ ले जाती थीं , उनकी मटकियों को वह पत्थत मार कर तोड़ देते थे , इस प्रकार कंस को नाना प्रकार से प्रताड़ित कर अंत में गोकुल छोड़कर वे मथुरा आ गए और कंस का वध कर वहां सुशासन स्थापित किया ।
कृष्ण की लीला को एक भाग में व्यक्त नहीं किया जा सकता । महाकवि सूरदास उनकी बाल लीलाओं का ही वर्णन कर पाये, यह लीला भी बहुत विषाद है । माखन चरित्र , ऊधौ माधौ एवं गोपियों का संवाद , कदम्ब वृक्ष पर बैठ कर गोपियों के वस्त्र चुराना उन्हें देह के प्रति अनाशक्ति का उपदेश देना , गोपियों के संग रास रचाते हुए भी अपने को नि :स्पृह रखना , उनके परम योगी होने के प्रमाण हैं । उनके मथुरा चले जाने के बाद जब रास बंद हो गई तो गोपियाँ उनके विरह में पागल सी हो गईं ।
" एहि मुरारे , कुञ्जविहारे प्रणत जन बंधो ,
हे माधव मधुमथन वरेण्य केशव करुणा सिन्धो ॥
रासनिकुञ्जे गुंजति नियतं , भ्रमरशतं किलकान्त ,
एहि निभृत पथ पान्थ ,
त्वामिह याचे दर्शन दानं हे मधुसूदन शांत ॥ ॥
( हे मुरारे, हे प्रनत जनों के बंधू,. हे मधुसूदन, विहार कुञ्ज में आइये, । हे अद्वैत पथ के पथिक हे करुणा मय , रास कुञ्ज में भ्रमर आपके दर्शनार्थ आकुल हैं । यहां के कदम वृक्ष, सभी पक्षी आपके बिना उदास हैं, कलरव करता हुआ यमुना जी का पानी भी आपके वियोग में शांत है । ) _
किसी शायर ने इसे यूं भी कहा है :-
"सजर (पेड़ ) उदास हैं , चिड़ियों के चहचहे गुमसुम ,
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह ,
ये आसनां भी मिला हमको जिंदगी की तरह,
किया था प्यार जिसे हमने बंदगी की तरह ॥
कृष्ण की चरित्र गाथा में राधा जी का महत्वपूर्ण योगदान है । कहते हैं की (अद्वैत दर्शन) राधा कोई नहीं थी बल्कि कृष्ण स्वयं राधा बन जाते थे । यह भी प्रचलित है की एक बार राधा जी ने कृष्ण जी से कहा कि वे उनसे विवाह क्यों नहीं करते ? तो कृष्ण ने कहा कि विवाह तो दो लोगों का होता है, तुम और मैं तो एक हैं । राधा - कृष्ण के अद्भुत प्रसंग हैं , राधा बिना कृष्ण नहीं हैं और कृष्ण बिना राधा नहीं हैं । राधा पहले हैं और कृष्ण बाद में हैं । प्रेम की परिभाषा ही राधा कृष्ण हैं , इसलिए ही तो कहा जाता है :-
" जय श्री राधा जय श्री कृष्णा, श्री राधा कृष्णाय नम: "
श्रीकृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता है वे युद्ध के विपरीत थे , वे शास्त्र की बजाय अपने हाथ में मुरली रखते थे, उनकी मुरली की तान सुनकर गायें इकट्ठा हो जाया करतीं, गोपियाँ मन्त्र मुग्ध हुई जाती, वे सबसे सखा भाव रखते, कृष्ण सुदामा प्रसंग भी दोस्ती की मिसाल है, उनके द्वारिका चले जाने बाद सुदामा की पत्नी उन्हें उलाहना देते हुए कहती हैं कि " तुम तो कहते हो कि कृष्ण तुम्हारे बाल सखा हैं और त्रिलोकी हैं क्या वे हमारा दरिद्र दूर नहीं कर सकते ? आप द्वारिका जाइए और उनसे मिलकर हमारी दरिद्रता दूर कराइये । बहुत उलाहने के
" हे कृष्ण ! हे माधव ! हे सखेति ! उन्होंने अपने बाल सखा का हाल चाल पूछ और सुदामा के बयान पर सुदामा के गले लग कर खूब रोये और उन्हें अनन्य धन धान्य देकर सकुशल विदा किया ।
यादव श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने मथुरा प्रवास के दौरान यह महसूस कर लिया कि उनके वंशजों के लिए मथुरा नगरी पर्याप्त नहीं होगी, वे कुछ नया चाहते थे , इसलिए उन्होंने, मथुरा से बहुत दूर द्वारिका नगरी बसाई , और बहुत काल तक अपने भाई बलराम के साथ वहां सुघड़ता के साथ राज्य किया ।
उस काल में समस्त आर्यावर्त में कई राज्य थे , उनमें कई प्रतापी राजा विद्यमान थे, वे अपने तपबल एवं सामर्थ से कई दिव्यास्त्र प्राप्त कर चुके थे जिनका प्रयोग वे आपस के युद्ध में कर सकते थे , जिससे समस्त मानव जाति का विनाश हो सकता था , इस विनाश को रोकने एवं इन शस्त्रों के समूल नाश के लिए भी कृष्णावतार हुआ था । महाभारत के रचियता ने बहुत ही वृहद ग्रन्थ की रचना की है , इसमें असंख्य पात्र हैं, अनेकों उपकथाए हैं । मूलत: महाभारत का युद्ध इन पराक्रमी राजाओं एवं उनके शस्त्रों के उद्गम वापसी का था । इसके लिए देवताओं की उपस्थति आवश्यक थी , इसलिए कथा को विस्तार देते हुए कथाकार ने नियोग से संतानोत्पत्ति कहते हुए समाप्त हो रही कथा को आगे प्रवाह दिया इसी क्रम में कुंती के गर्भ से मन्त्र प्रसादों की उत्पत्ति हुई जो पाण्डुपुत्र कहलाये । चूँकि ये मन्त्र प्रसाद देवताओं के थे इसलिए इनके संसर्ग में कोई सामान्य स्त्री नहीं रह सकती थी , इसलिए ध्रुपद के आह्वाहन पर देवताओं ने याग्यसेनी उन्हें प्रदान की जो अग्नि से उत्पन्न हुई , जो कालान्तर में इसी के कारण पांच पांडवों को व्याही गई , जिसे पतिव्रता नारियों की श्रेणी में सती का दर्जा दिया गया । महाभारत की कथा , श्रीकृष्ण के अद्वितीय प्रबंधन एवं शिक्षा की अमरगाथा है जिसमें उनके द्वारा अर्जुन को कौरव और पांडवों की युद्धरत सेनाओं के मध्य दिया गया महान उपदेश है , जिसे सम्पूर्णता से समझ पाना सामान्य मानव के वश में नहीं है , इसे एक बार पढने के बाद एक भाव बनाता है तो दूसरी बार पढने पर दूसरा ही भाव दिखता है । अपने सामने खड़े अपने प्रपितामह, गुरु, मामा एवं आबय कृत सम्बन्धियों को देख जब अर्जुन यह कहकर अपना गांडीव रख देता है :-
" कथन भीष्म महान संख्ये द्रोणं च मधुसूदन
इषुभी प्रति योश्यामि पूजार्थ अरिसूदन ,
गुरुन हत्वा हि महानुभावन,
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्महीप लोके,
हत्वार्थ कॉमन गुरूननिहैव,
भुंजीय भोगान रुधिर : प्रदिग्धान "
तब कृष्ण उन्हें समझाते हैं कि ये सब प्राणिमात्र हैं और मेरे और तुम्हारे ही तरह इनके भीतर भी आत्मा का निवास है जो अजर है अमर है और जब यह मर ही नहीं सकती तो इनके शरीर को समाप्त कर देने में शोक कैसा ?
" नैनन छिन्दन्ति शस्त्राणी , नैनम दहति पावका :,
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारता :
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोपराणी ,
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यान्य संयाति नवानि देही ,
य एन्न वेति हन्तारं न च ऍन मजमव्ययम्,
कथं सि पुरुष पार्थ: कं घातियति हान्तिकम् ।
उक्त प्रकार से समझाने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन को यहां तक कह देते हैं कि :-
" हतो वा प्राप्यसि स्वर्गे, जित्वा वा भोगक्षसे महीम " ( इसे जेहादियों को यूं समझाया जाता है की यदि जेहाद में मारे गए तो तुम शहीद कहलाओगे और खुदा तुम्हें करवट - करवट जन्नत बख्सेगा, जीत जाने पर तो तुम ऐशो आराम की जिंदगी जियोगे )
यानी उनका उद्देश्य अर्जुन को कौरव सेना के संहार के लिए उकसाना है , साम दाम दंड भेद , सभी का प्रयोग श्री कृष्ण ने इस महायुद्ध में किया और अति प्रतापी तथा दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित पर अधर्मी राजाओं का नाश करने हेतु उन्होंने कोई भी प्रयास नहीं छोड़ा , जो पराक्रमी पुरुष पांडवों द्वारा पराजित किये जाने संभव नहीं थे उन्हें छल कर , पांडवों द्वारा मार गिराया गया , भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था तथा वे अपराजित योद्धः थे इसलिए उनके सामने शिखंडी को लाकर उन्हें नि :शस्त्र किया, गुरु द्रोण को उनके पुत्र अश्वश्थामा के मारे जाने का झूठा समाचार देकर नि :शस्त्र कर मार देना , अजेय योद्धा कर्ण को ऐसे स्थान पर लेजाकर उसके रथ को कीच में फंसा कर उसे रथ के पहिये को निकालने के उपक्रम में नि:शस्त्र होने पर मार देना , उनके रण कौशल के प्रबंधन का अद्वितीय प्रमाण है ।
राम और कृष्ण के अवतारों में एक महीन अंतर यह भी है कि जहां राम अपने रण कौशल का परिचय सेना का नेतृत्व करते हुए देते हैं और भील बानरों को इकठ्ठा कर रावण जैसे बलशाली राक्षस एवं उसके अतिबलशाली वंश का समूल नाश करते हैं , वहीं कृष्ण रण में उपस्थित रहते हुए भी रण नहीं करते और पीछे से अपना प्रबंधन दिखाते हैं , जहाँ राम अतुल्नीय दिव्यास्त्रों का उपयोग कर रावण वध करते हैं वहीं कृष्ण दिव्यास्त्रों के प्रयोग को सदा ही रोकते हैं , महाभारत युद्ध में केवल एकबार ब्रह्मास्त्र का प्रयोग हुआ है जब अश्वश्थामा ने खिसिया कर पांडवों का वंश नाश करने के उद्देश्य से उत्तरा के गर्भ पर प्रहार किया , उसे भी कृष्ण ने बचा लिया और अश्वश्थामा को आजीवन कुष्ठ रोगी रह कर मृत्यु के लिए तरसने का श्राप दिया । श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को युद्ध से पूर्व ही चेता दिया था कि इस महायुद्ध में उसके पांच पतियों के अलावा उसके समस्त वीर पुत्र मार दिए जायेंगे , चूँकि मन्त्र प्रसादों को अपने गंतव्य जाना ही है पर उनके पुत्र तो सदा ही अविजित रहेंगे और भविष्य में वे भी अत्याचारी हो सकते हैं इसलिए उनका पृथ्वी पर रहना अनावश्यक है ।
किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि :-
तुझे ( हे कृष्ण ) समझने के लिए एक लम्हा ही काफी है ! ,
पर उस लम्हे को पाने के लिए एक जिंदगी भी नाकाफी है !!
Clearly Shri Krishna of Mahabharat and Mathura are two distinctly different persons.Shri Krishna of Mahabharat is a political person.
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