Thursday, 3 October 2013

सांझ



ऊंचे पर्वतों से फिसलती,

सांप सी लहराती पगडंडियों पर बलखाती,
चिनारों के पेड़ों को सहलाती,
छत की मुंडेरों  से आँगन में कूदती,
मन के गवाक्षों पर उतर आती  है सांझ  |


यहाँ भी जिन्दगी जीती है 

बनैली दोपहर की तरह ,
छाँह पर छाँह का केंचुल फैंकती हुई 
ऊंचे  चीड के पेड़ों से  धीरे धीरे  
सुई की तरह  चुभता गिरता पिरूल ,
बूढे होते ठीठो  का चिटकना ,
गदराये  स्यूतों को खाने की आस,
नीचे बहती गाड का सुसाट,
यहाँ कोई  किसी की जोहता है बाट,
उसके मन में भी  घिर आती है सांझ   । 

ऊमस  भरी ढलती  दोपहर  में ,
नम चट्टानों  पर निगुडों  का बीनना ,
दूर से आती गोंतुली की आवाज़ ,
सहसा उसे टोक देती हिलास ,
काफल के पेड पर निडर  चढ़ जाना ,
चखकर बीनना  इक  इक दाना ,
मखमली  घास  पर  दूर तक छितरे ,
पीले हिसालू बीन कर खाना ,
बांज के पेड़ों की गहन छाँव को चिढाती  ,
सरसराती उतरती जाती है सांझ   । 

तिरछी छतों के बीच दूलों से,
रह रह कर उठता जाता है धुवां,
छ्यूल की जलती रांख  पकडे हुए,
सरपट गोठ को जाती है  माँ ,
नन्हां सा बछडा रंभा रहा है,
भूख से छटपटा  रहा है,
पर माँ ,उसकी माँ को तो दुह ले ,

कसिणी  में दूध भरता जा रहा है ,
सुबह मुंह अँधेरे वो उठी  थी,
तब भी ये गाय उसने ही दुही थी,
फिर मज्याले में जतारे को चलाया,
पीस कर अनाज, वो नौले को चली थी । 


अँधेरे गधेरों में सरपट वो चलती,

लरजते कदमों से गगरी छलकती,
कुछ भीगी भीगी कुछ सूखी सूखी,
इत्ते से पानी से वो सजती संवरती,
कुछ सीली लकड़ियों को उठाती,
बडे प्राणपन से वो चूल्हा जलाती,
बटुली को सीधे चूल्हे पर चढाकर ,
बारी बारी से वो सबको उठाती ,
बड़ों को चाय छोटों को कलेवा,
न जाने कब से करती वो सेवा ,
सबको खिलाकर तब खुद वो खाती,
भद्याली  में जबरन वो  डाडू  हिलाती  । 


मवेशियों को गोठ से बाहर निकालती  जाती ,

सबके दौण में कुछ न कुछ डालती  जाती  ,
माँस की दाल में कसी ककड़ियों के छल्ले , 
समेट कर छत पर  वो बड़ियाँ सजाती ,
गुनगुनी धुप में छत के लगती वो चक्कर,
कोमल बड़ियों को सुखाती उलट पुलट कर ,
डाले में रखती जाती सांझ होने से पहले,
नीचे उतार लाती ओस पडने से पहले ,
जब कभी घर में ये बड़ियाँ वो  बनाती,
इसमें उसके हाथों की खुसुबू समाती,
संसार में इतना स्वाद कहीं नहीं है,
जिस भोजन में माँ  की ममता भरी है । 


भीमकाय  दुर्गम  पहाड़ी  श्रंखला  सी,

उतनी दुरूह होती है पहाड़ी जिंदगी,
ऊंचे नीचे डाण्ड्यू सा अनगढ़  जीवन ,
कल कल बहता साफ़ झरनों  सा ये मन,
सोंधी कडक  वो मडुवे की  रोटी,
उस पर खूब सारी  नौणी  लपेटी ,
मूली व् भांग के नमक की टौपिंग ,
लबालब भरा वो गिलास छाँ  का,
न टिकता  पेप्सी पिज़्ज़ा बर्गर कहीं का ,
रस - भात, डुबुका, चैंस  और चुणकाणि,
इन सबके स्वाद को तरसते हैं प्राणी ,
कहीं भी मिल जाए ये सौगात पहाड़ी,
इन्हें न खाए न पहचाने वो अनाडी  । 









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