घंटी की आवाज सुनते ही लालू ने खिड़की से नीचे झांका , और मुझे नींद से जगाते हुए बोला ," वो लीला भाई साहब आये हुए हैं आप से कुछ बात करना चाहते हैं …. "
"लीला भाई साहब ? वो भी इस समय और मेरे से बात करना चाहते हैं ? "कई प्रश्न मन में उमड गए , खैर मुंह धो कर मैं नीचे आया तो देखा लीला भाई साहब अपने दोनों हाथ पीठ पर बांधे हुए ( जैसा कि उनका स्टाइल था ) खडे हुए थे । मुझे देखते ही वो बोले, " तुम्हें पता है ? कल की रामलीला में रमेश ने फिल्म्स डिविजन वालों को बुलाया है , वो पहले ही सीन को पूरा शूट करेंगे , रमेश ने सचिवालय से ये जुगाड लगाया है, यार एक काम करना राक्षस की एक ड्रेस मेरे लिए रख देना, अशोक वाटिका में किनारे मैं भी खडा हो जाऊँगा , यार मेरी बड़ी तमन्ना है कि कभी मेरी भी फोटो आये"
मैंने आश्चर्य से कहा , " पर लिल्दा , मुझे तो जोशी जी (रमेश जोशी जी) ने इस बारे में कुछ भी नहीं बताया है" वे बोले, "अरे यार आज ही तो बात हुई है, आज की रामलीला में तो वे आ नहीं पायेंगे इसलिए कल वो पक्का आयेंगे, कल की रामलीला की शुरुवात अशोक वाटिका से है , इस लिए अभी से तैयारी चल रही है "
मैं बोला," पर लिल्दा आपके लिए राक्षस की कोई पोशाक कैसे मिलेगी, हमारे पास तो सभी पोशाकें बच्चों के लिए ही हैं, चाहे वो बंदरों की हों या राक्षसों की " वे बोले," मेरे पास एक काली पेंट है उसके ऊपर में कोई बड़ी कमीज डाल लूंगा , काम चल जाएगा । उनकी अधीरता को समझते हुए मैंने कहा ,"ठीक है , देखेंगे "
डालीगंज में पर्वतीय बंधू परिषद् की रामलीला हुआ करती थी , जिसमें निर्देशन देने का काम मुझे सौंपा जाता था , किसी भी सीन के लिए सेट कैसे सजेगा , उस पर क्या क्या अतिरिक्त संभावित चीजें जुड सकती थीं , यह सब मेरी कल्पनाशक्ति की उपज हुआ करती थी , पात्र को कहाँ पर क्या बोलना है, कितना बोलना है , परदे के पीछे से प्रोम्पटिंग कौन करेगा यह सब मेरे द्वारा निर्धारित होता । रमेश जोशी जी और जगदीश तिवारी जी संगीत पक्ष देखते , वे पात्रों को पितृ पक्ष से ही रिहर्सल करा देते और इतना मांझ देते कि पात्र अपने सभी गाने सुर के साथ कंठस्थ कर लेता । रामलीला के दौरान पोशाक के रखरखाव का जिम्मा डिमरी जी के पास होता , जो पूरी तन्मयता और श्रद्धा से अपने काम को अंजाम देते । पात्रों को समय पर दूध, मक्खन, बडे पात्रों को समय समय पर चाय देने का काम बसंत बल्लभ जोशी जी का हुआ करता था , वे बड़े हिसाब से सभी को उसका हिस्सा देते , यदि किसी पात्र ने दुबारा दूध माँगा , या एक बंद मक्खन से ज्यादा खाया तो उसे डपट देते , उनको याद रहता कि किसी दिन विशेष को किसका पाठ है, उसी को यह सब दिया जाता , पर बच्चे तो शरारती होते हैं वे उनकी आँख बचाकर एक से अधिक बार खा लेते या पाठ न होते हुए भी धुप्पल में खा जाते , उनके बैग में पान बीडी और सिग्रेट भी हुआ करती थी, ख्यालीराम जोशी जी के जिम्मे बाहर स्टाल पर श्रधालुओं द्वारा पात्रों या कमिटी को दिए जाने वाले पुरस्कार या चंदे को एकत्र करना था । इस प्रकार सभी पर्वतीय बंधू मिलजुल कर रामलीला किया करते थे ।
लीला भाई साहब की बात सुनकर में कमेंटी के कमरे में गया तो देखा वहां मजमा लगा हुआ है , रमेश जोशी जी , जो रावण का अभिनय भी करते थे , सब को बता रहे थे कि कल समय से फिल्म डिविजन वाले आ जायेंगे , वो अपने साथ कैमरे, रिफ्लेक्टर , अन्य साजोसामान लायेंगे, उनको समय से चाय, बिस्कुट देना होगा, तकरीबन आधे घंटे की शूटिंग होगी उसमें जो भी मंच पर अभिनय हो रहा होगा उसे शूट किया जायेगा, इसलिए सभी कुछ अच्छा होना चाहिए , जिससे फिल्म में सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे, बाद में यह फिल्म स्थानीय पिक्चर हालों में मेन पिक्चर शुरू होने से पहले दिखाई जायेगी । फिल्म डिविजन वाले बता रहे थे कि लखनऊ शहर में होने वाली रामलीलाओं की एक डाक्यूमेंट्री बनाई जा रही है,। (उन दिनों लखनऊ शहर में टेलिविज़न प्रसारण शुरू नहीं हुआ था ) फिर जोशी जी मुझसे बोले ," मंच सज्जा का काम तुम्हारा है , ये ख्याल रखना कि मंच पर दूर से ही चीजें स्पष्ट दिखाई दें, जिससे वे कैमरे में पूरी आ जाएँ । हनुमान का पात्र मेरी और देखकर बोला," हाँ ठीक कह रहे हैं रमेश दा ! , तुम मंच पर छोटे छोटे फल लगाते हो, सेब, केला कभी संतरा , ये सब दूर से नहीं दिखेंगे , इसलिए बडे फल लगाना, मुझे भी पब्लिक में उछाल कर फलों को फेंकने में मजा आयेगा, बडे फल कैमरे में भी आ पायेंगे । तभी किसी ने सुझाव दिया कि आजकल तो खीरा, पपीता भी बहुतायत में आ गया है, क्यों न इन्हीं को लगा दिया जाय ।
मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आया , में सोचने लगा कि एक तो हम लोग किसी तरह अशोक वाटिका बनाते हैं और अशोक के पेड की डालियों से मंच पर एक वाटिका होने का अहसास पैदा करते हैं। उस पर इन डालियों पर ही सेब, केला, संतरा लटका देते हैं, चाहे सांइस इसकी इजाजत न देता हो कि अशोक के पेड पर इतने प्रकार के फल क्या लग सकते हैं ? उस पर पहाड़ी खीरा, पपीता, लट्काना क्या किसी के गले उतरेगा ? तब शायद किसी को यह नहीं मालूम था कि कैमरे में जूम लेंस भी होता है ।
शाम होते होते उस दिन की रामलीला की तैय्यारियाँ होने लगीं, उस दिन दशरथ मरण से लेकर सुग्रीव मैत्री तक की राम लीला मंचित की गई, सारी रात दूसरे दिन की रामलीला की ही बात होती रही, डिमरी जी ने उस दिन की रामलीला की समाप्ति पर राक्षसों की सारी ड्रेस बक्से में छुपा कर रख दी और बक्से में ताला लगा दिया । रामलीला के बाद हम लोग मंच पर पहरेदारी किया करते , जिसके लिए कमेटी से हमें पांच रूपये प्रतिदिन मिला करते , लछमन अपना होटल बंद कर रात में हम लोगों के पास मंच पर आ जाते और हम लोगों को जुआ खेलने के लिए प्रोत्साहित करते, और आराम करने की जगह हम जुआ खेलते और सारे रूपये हार जाते, लछ्दा भोर में हम सभी को हरा कर चल देता, सुबह छह बजे दूसरी पार्टी आती और हमें रिलीव करती और हम लोग घर जा कर लम्बी तान कर सो जाते ।
दूसरे दिन इतवार था , आफिसों में छुट्टी थी इसलिए सभी लोग छोटे छोटे गुटों में उस दिन की रामलीला के बारे में चर्चा कर रहे थे । हनुमान जी बेहद उत्साहित थे उन्हें मालूम था कि अशोक वाटिका में उनके हिस्से काफी फुटेज आ रही थी, वे रावण , सीता और त्रिजटा और राक्षस , इन लोगों का ही आधे घंटे का सीन था , जो निश्चित ही कैमरों की जद में आने वाला था । मेघनाद महोदय भी मन ही मन खुश थे कि शायद हनुमान को पकड़ने के सीन में उनकी भी किस्मत चमक जाए । सुग्रीव व् अंगद भी प्रफुल्लित थे कि ज्यादा न सही एक सीन में तो वे आ ही जायेंगे, जब रामचंद्र जी हनुमान को जामवंत के कहने पर लंका भेजेगे । राम जी का मुंह उतारा हुआ था , उसके पिताजी कह रहे थे, " देखो भला यह क्या बात हुई लीला तो राम की ठेरी और फिल्म बन रही राक्षसों की ? उन्होंने लक्षमण के पात्र के पिताजी के साथ मिल कर एक नया गुट बना लिया था । मोहन जो हम लोगों का मित्र था , उसे मकरध्वज का रोल करना था इसलिए वह भी मुदित था कि लंका पहुँचते ही उसका सामना हनुमान से होगा और एक अलग सीन में उसकी लडाई हनुमान से होगी तब शायद इस सीन की भी शूटिंग हो । इस प्रकार सभी अपनी अपनी गोटें बिछा रहे थे कि येन केन प्रकारेण उनकी भी फिल्म बन जाए । और इस तरह राजनीति भी शुरू हो गई ।
किशन भाई साहब जो कि पुलिस वायरलेस में काम करते थे, जिसका आफिस महानगर में था और महानगर की रामलीला में उनके आफिस के कई साथी हिस्सा लेते थे, उन लोगों से जुगाड कर राक्षस की एक बड़ी पोशाक ले आये थे और मुझसे चुपके से बोले, "यार मैंने पोशाक का जुगाड कर लिया है, तुम बस त्रिजटा के बगल में मुझे खडा कर देना ।
रामलीला में छोटे बच्चे हमेशा बन्दर ही बनना चाहते थे, उनके मां बाप भी यही कोशिश करते कि उनका बेटा राम जी की ही सेना में रहे, पहला पहला अभिनय है राक्षस से क्यों शुरू करे , थोडा बडा होने पर शत्रुघन बनेगा फिर लक्ष्मण या राम भी बन सकता है । इसके विपरीत कुछ बडे हो चुके बच्चे राक्षस ही बनना चाहते थे , उसमें उन्हें जोर से हा!! हा!!! हा!!!! करने में बडा मजा आता था, ऐसे बच्चे कम होते थे इसलिए हम कम बच्चों में काम चला लिया करते थे । पर आज तो राक्षस बनने के लिए इतनी मारा मारी हो रही थी ।
शाम हो चुकी थी, में थोडा बहुत खा कर घर से खा कर स्टेज की और चला , मुझे यह भी देखना होता था कि उस दिन के लिए स्टेज पर प्रयोग होने वाले आइटम समय से आ गए हैं कि नहीं , मेकअप मेन समय से आ गया है , और छोटी लड़कियों का मेकअप शुरू हो चुका है जिन्हें प्रार्थना में हिस्सा लेना होता था , उसके बाद राम, लक्ष्मण , सीता को तैयार करना होता था । मंच पर पहुँच कर मैंने देखा कि अशोक के पेड की बहुत सारी डाल आ चुकी हैं, स्टेज के बिलकुल पीछे वाले हिस्से पर सफ़ेद स्क्रीन लगी होती थी जो समय समय पर छाया चित्रों को दिखाने के लिए प्रयोग की जाती थी , उसके तुरंत आगे वाली स्क्रीन पर मैंने रावण दरबार के लिए तखत रखवाया और उसके आगे वाली स्क्रीन पर मैंने अशोक वाटिका सजानी शुरू कर दी , अशोक की डालों को एक दूसरे से बाँध कर उन्हें रावण दरबार के तखत से बाँध दिया जो कि सामने से नहीं दिखाई दे रहा था , कुछ डालों को इस तरह गूँथ दिया कि वह एक खोह का सा आभास देने लगीं, इसके भीतर सीताजी के बैठने के लिए एक छोटा स्टूल रख दिया, उसके बाद ऊपर की दो मजबूत डालों को इस तरह बाँध दिया कि उसमें हनुमान के छिप कर बैठने की जगह हो जाए । इसके बाद मैंने कमेटी द्वारा मंगाए हुए फल बांधने शुरू किये , इन्हें मै नीचे ही बाँध रहा था ताकि हनुमान जी का हाथ आसानी से इन तक पहुँच सके और वे आराम से इन्हें तोड सकें, हनुमान जी का कद थोडा छोटा था ।
यह सब करने के बाद में नीचे उतारा और ग्रीनरूम की तरफ आया, मैंने देखा कि राम पार्टी तैयार हो चुकी है और रमेश जोशी जी के मुंह पर मुर्दा शंख घिस कर लगाया जा रहा था, जिसे आजकल की मेकअप की भाषा में बेस कहा जाता है । वो सिगरेट धोंक रहे थे और बसंत बल्लभ जोशी जी से कह रहे थे , मैं तो यहाँ मेकअप करके बैठा हूँ अगर फिल्म डिविजन वाले आ गए तो उनकी आगवानी कौन करेगा ? फिर मेरी तरफ देखकर बोले."यार तुम चले जाना , उनको रिसीव करने के लिए " तब तक आरती वगैरह शुरू कराओ , देर हो रही है अगर वे लोग खम्म से आ गए तो क्या उस समय स्टेज छोड पाओगे ? अरे यार शंख का क्या हुआ ? तुम लाये कि नहीं ? मैंने कहा ," जल्दी बाजी में भूल ही गया , इतने काम रहते हैं याद ही नहीं रहता ", वे बोले यार अब इतना टाईम नहीं है तुम दौड कर पाठक जी के यहाँ से शंख मांग लाओ । मैं दौड कर उनके घर गया, वे बाहर निकले और मुझसे बोले क्या बात है, मैंने कहा चाचाजी, जल्दीबाजी में में शंख घंट नहीं ला पाया , आज आप ही दे दीजिये, वे बोले नहीं शंख तो मेरे बाबू की है उसे मैं नहीं दे सकता , पता नहीं वहां कौन कौन इस शंख को बजाएगा, मैंने उन्हें विशवास दिलाया कि इसे मैं ही बजाऊँगा , तब वो तैयार हुए और एक झोले में दोनों चीज रखकर मुझे दीं और दोबारा इस बात की ताकीद की कि वो मेरी ही जिम्मेदारी पर इसे दे रहे हैं वरना अपने बाबू की शंख घंट वो किसी को नहीं देते ।

आरती पूरी होने तक मेरा ध्यान बाहर ही था कि न जाने वे लोग कब आ जाएँ । खैर , वे लोग तबतक नहीं आये थे , ग्रीनरूम में अब भीड बड चुकी थी , राक्षस पार्टी आ चुकी थी और सभी लोग तैयार हो रहे थे , मैंने राम, लक्षमण, हनुमान, सुग्रीव, अंगद और सभी बंदरों को स्टेज पर बुलाया, उनके डायलाग बताये , किसको कैसे खडा होना है , और किस तरह से माइक पर जा कर बोलना है , तिवारी जी दर्शकों को बता रहे थे कि अब राम सुग्रीव से सीता की खोज करने के लिए कहेंगे , पर्दा खुला और सादी हरी स्क्रीन पर , लीला का मंचन शुरू हुआ , सारा सीन बहुत बढिया संपन्न हुआ , पर्दा गिरा दिया गया , मंच से उतर कर राम ने मुझसे पूछा," दाज्यू ये फिल्म वाले कब आ रहे हैं ? अब जल्दी मेरा सीन नहीं आने वाला है, मैंने उसे ढाढस बंधाया और बोला, कि वे जब आयेंगे उन्हें ग्रीनरूम में बुलाकर राम लक्ष्मण और सीता के पोज खिंचवाऊँगा ।
तभी ग्रीन रूम से आवाज़ आई,"अरे ! ये रुज की डिबिया कहाँ गई ? " अभी अभी तो यहीं थी , मेकअप मैन जोर से चिल्ला रहा था , " अब में अगले पात्रों को कैसे सजाऊंगा ? " मेरे पास दूसरी डिबिया भी नहीं है, सब लोग डिबिया ढूँढ़ने लगे , पर यह मिल नहीं रही थी, तभी मैंने देखा कि मोहन सकपकाया सा खडा हुआ है, उसमे मकरध्वज की ड्रेस पहन ली थी और मेकअप के लिए तैयार खड है । मैंने माज़रा समझ कर उससे कहा," यार रुज की डिबिया मेकपमैन को दे दे वो लोगों को तैयार कर रहा है, मोहन बोला इतनी देर से मैं खडा हूँ ये मेरा मेकप नहीं कर रहा है, पहले मुझे सजाये तब मैं रूज की डिबिया दूँगा, मैंने मसला सुलझाया और मोहन को तैयार करने के लिए मेकअप मैंन से कहा ।
अब हनुमान को लंका की ओर जाने का सीन था, रमेश जोशी जी ने इस सीन में मकरध्वज का सीन भी पिरोया था, जब हनुमान का युद्ध मकरध्वज से होता है । स्टेज पर चढने से पहले मोहन मुझसे बोला , यार मेरा हनुमान के साथ युद्ध थोडा लंबा रखना , गाने में मेरी दो ही चौपाई हैं ये जल्दी ही ख़त्म हो जायेंगी , अगर फिल्म वाले आ गए तो थोडा युद्ध का ही सीन खींच लेंगे । सभी अपनी फुटेज के लिए परेशान थे । खैर सीन संपन्न हुआ और तब तक फिल्म डिविजन वाले नहीं आये थे, निराश होकर मोहन नीचे उतरा और खिसिया कर बोला ," यार कोई राक्षस की ड्रेस हो तो जुगाड कर, शायद आगे वाले सीन तक वे आ जाएँ । मैंने कहा ड्रेस के इंचार्ज डिमरी जी हैं उनसे ही कहो । मैंने मन में सोचा अच्छा बखेड़ा खडा कर दिया है रमेश जोशी जी ने , सारे लोग रामलीला कम और फिल्म डिविजन पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं ।
अब शुरू होना था सबसे महत्वपूर्ण सीन, जिसके लिए इतनी तैयारी की गई थी, सीता के पात्र की बहन उसके कान में कुछ कह रही थी , मैंने सीता को स्टेज पर बुलाया और उसे उस खोह में रखे स्टूल पर बिठा दिया , और उसे समझाने लगा कि इस छुपे हुए माइक को न ज्यादा दूर रखना और न ज्यादा नजदीक रखना, तुम्हारा पहला सीन विलाप का है इसलिए रुंधी आवाज़ में अपना गाना गाना, वो बोला ठीक है दाज्यू पर इन डालियों के भीतर मैं कैसे दिखूंगा ? मैंने कहा सबको पता है कि सीता इसी जगह है इसलिए तुम चिंता न करो, उसने कहा अगर मैं खडा ही रह कर अभिनय करूं तो लोग मुझे देख पायेंगे, । मैं समझ गया कि उसकी बहन उसे क्या समझा गई थी , डपटते हुए मैंने कहा, नहीं जैसा बता रहा हूँ वैसा करो, अपने मन से तुम जरा भी नहीं हिलोगे । तब तक त्रिजटा और अन्य राक्षस गण मंच पर आ गए थे, लीला भाई साहब, किशन भाई साहब, और अन्य छोटे राक्षस सभी लाइन से खडे हो गए, मैंने उन्हें खोह के अगल बगल खडा कर समझाया कि जैसे ही रावण आयेगा तुम सबको इस खोह के चारों और चलते हुए सीता की गार्डिंग करनी है , लीला भाई साहब हाथ में घडी पहने हुए थे, मैंने कहा ये घडी उतार दीजिये, रामायण काल में घडी नहीं हुआ करती थी । वे बोले रहने दे यार सभी राक्षस एक जैसे लग रहे हैं घडी हाथ में रहेगी तो में फिल्म में दूर से ही पहचान लिया जाऊँगा , मेरे लाख समझाने पर भी वे न माने , और तिवारी जी को इशारा करते हुए मैंने पर्दा उठवा दिया । सीता का विलाप शुरू हुआ, जो राग पीलू में था , और इसकी लाइनें बड़ी मार्मिक थीं , उस पर सीता का पात्र इसे बहुत ही दर्दीले सुर में गा रहा था, इसके बोल थे, " मिटावे कौन विरह की पीर रघुपति बिनु अब प्राण न राखों, मन को हॉत न धीर, कहा कहूँ किसको समझाऊँ अपनो कलेजा चीर। …… सारी महिलाओं के आंसू भर आये ……। बहुत ही मार्मिक सीन बन पडा था , त्रिजटा और अन्य राक्षस गण चारों और चक्कर लगा रहे थे, ऊपर डालियों के बीच हनुमान को चैन न था वह रह रह कर डाली हिला देते जिससे लोग उनके होने का भी अहसास करें ।
तभी स्टेज के एक कोने से रावण प्रकट हुआ , उसके साथ मंदोदरी थी वह खोह के नजदीक आकर हा!! हा!!! हा!!!! करता हुआ बोल," समझ समझ मन राजकुमारी तेरे दरस को मैं आयो यहाँ री, तेरे पति ने सुध बिसरायी अबहु न तेरी खोज लगाई , रोवत रोवत भई दुखारि….तेरे दरस को मैं आयो यहाँ री । सीता बोली, " व्यथा अभिमान क्यों करता अरे मतिमंद तू बल का, अकेली जान कर मुझको बचन बोला है तू छल का, अरे हट दूर जा पापी न पकडे पल्ला आंचल का। ………… क्रोध भरे स्वर में रावण बोला," सीता ते मम कृत अपमाना , कटिहहु तव शिर कठिन कृपाना, नाहिं ते सपद मान मम बानी, सुमुखी हॉत न त जीवन हानि, ……। बस खबरदार सीते जो आगे कहा, तेरे सर को धड से उडा दूँगा मैं , जो कुछ कहा है वो कर के दिखा दूंगा मैं ……। फिर राक्षसों से बोला।, अरे राक्षस वीरों , सीता को डराओ, धमकाओ, फिर पैर पटकता हुआ मंदोदरी के साथ परदे के दूसरे कोने से अन्दर चला गया, ।
रमेश जोशी जी रावण का अभिनय करते समय सबको मंत्रमुग्ध कर देते थे, इसी चक्कर में मैं बाहर नज़र रखना भूल गया , तभी दर्शक दीर्घा में कुछ हलचल हुई, कुछ लोग आकर सामने रखे V I P सोफे पर बैठ गए, रावण के जाने के बाद सीता का एक और विलाप था " दु:ख हरो अयोध्यानाथ शरण में तेरी, तुम धरो लाज महाराज आज प्रभु मेरी………।सारे विलाप का सत्यानाश हनुमान ने कर दिया वो उचक उचक कर डाल हिला रहे थे, और दर्शक विलाप भूल कर हनुमान को देख रहे थे, सामने बैठे बच्चे तालियाँ बजाने लगे, सीता का गाना पूरा भी नहीं हुआ कि हनुमान जी डाल से नीचे कूद गए और, " बोल सियाबर रामचंद्र की जय कहते हुए, राक्षसों पर टूट पडे, राक्षस हडबडा गए, क्योंकि इस सीन में गदा से मारने का कोई रिहर्सल न था, लेकिन हनुमान जी गदा हिलाते हुए, छोटे राक्षसों के नितम्बों पर गदा प्रहार करते और उन्हें स्टेज से भीतर खदेडने लगे, प्रोम्टर बोला, अरे ये क्या कर रहे हो अभी इतना उत्पात नहीं मचाना है, जब फल तोड़ोगे तब इन्हें भगाना, लीला भाई साहब के पीछे आकार परदे के पीछे मेंने भी हनुमान को चेताया, पर शायद हनुमान जी ने सोफे पर बैठे आगंतुकों को फिल्म डिविजन वाला समझ लिया था, अब हनुमान जी मानने वाले नहीं थे, वो तो डाल से नीचे सीता के सामने राम की मुद्रिका तक गिराना भूल गए , परदे के पीछे से मैंने सीता से कहा तुम अपना डायलाग बोलो," सीता ने हडबडाकर कहा " अहा !! प्राणनाथ की यह मुद्रिका कहाँ से आई ? , जीति न सकहिं अजय रघुराई, माया से असि रचि नहिं जाई " तब तक हनुमान को जैसे होश आया , उसका डायलाग बोलने का समय था, बडे ही मधुर स्वर में वह बोल" राम दूत मैं मातु जानकी, सत्य कहहुं करुनानिधान की, ………… यह मुद्रिका मातु मैं आनी , दीन्हिं राम कह तुम सह दानी………. फिर सीता ने हनुमान से कहा कि उन्हें विशवास नहीं हो रहा है, तब हनुमान जी ने अपना विशाल रूप दिखाया, और सीताजी के पूछने पर दोनों भाइयों की कुशलता बतलाई, फिर सीता जी से बोले कि उन्हें बहुत भूख लगी है यदि उनकी आज्ञा हो तो वह कुछ फल खा लें, सीताजी ने उन्हें अनुमति दी और हनुमान जी , रामनाम का जयकारा लगाते हुए, उन लटकाए हुए फलों की और बढे, वो फल तोडकर पहले एक कौर खाते और उसे सामने पब्लिक की और उछल देते, , वे अधिकतर महिलाओं की और फेंक रहे थे, तभी पुरुषों की और से आवाज़ आई," हनुमान जी एक इधर भी तो फेंकिये , हनुमान ने लटके हुए फलों में से एक तोड़कर पुरुष दर्शक दीर्घा की और उछाल दिया , जिस दर्शक ने इसे कैच किया, वो चिल्लाता हुआ बोला, "अबे ये क्या ? खीरा फेंक रहे हो गुरू ! उधर तो सेब, केला फेंक रहे हो । मैं चौंका, खीरा ? ये तो मैंने नहीं लटकाया था, ओहो, जरूर हनुमान ने यह लटकाया हुआ होगा , फिल्म के चक्कर में सभी मनमानी कर रहे थे । उसके बाद हनुमान ने खूब धमाचौकडी मचाई, वो राक्षसों को पीट्पीट्कर भगा रहे थे । उसके बाद रावण का छोटा पुत्र अक्षयकुमार आया और हनुमान से युद्ध करने लगा, हनुमान ने उसे डायलाग बोलने ही नहीं दिया और गदा के एक ही वार से उसे चित्त कर दिया, फिर पर्दा गिर गया ।


रात को अपने घर जा कर सो जाने वाले जोशीजी , उस दिन हम लोगों के साथ स्टेज पर ही रुक गए और सारी रात इसी बात पर चर्चा होती रही । दूसरे दिन सुबह नौ बजे जोशीजी मेरे घर आये और बोले तुम तैयार रहना, सूचना विभाग चलेंगे, वहां देखना है कि ये लोग क्यों नहीं आये । उनके साथ में सूचना केंद्र पहुंचा और हम लोगों ने फिल्म डिविजन वालों से भेंट की, चाय मंगाने के बाद वे बोले, अरे जोशीजी, रात तो आप कहीं नहीं दिखाई दिए , आप कह रहे थे कि आपके यहाँ बडी अच्छी रामलीला होती है, शास्त्रीय संगीत में कलाकार गाते हैं, गानों के बोल शुद्ध हिंदी में होते हैं, बहुत ही सभ्य दर्शक आते हैं जिनमें महिलाओं की बहुतायत होती है, पर हमें तो ऐसा कुछ नहीं मिला, आपके कहने पर हम आधे घण्टे की शूटिंग कर के लाये हैं । विस्मय भरे स्वर में जोशी जी बोले ," झूठ बोल रहे हैं आप, सारी रात तो हम आपका इंतज़ार करते रहे, मैंने लोगों के ताने सुने, आप कह रहे कि आपने वहां शूटिंग की", वे बोले हाथ कंगन को आरसी क्या? आप खुद ही सारी फुटेज देख लीजिये, , वे हमें प्रोडक्शन रूम में लाये और परदे पर शूटिंग दिखाने लगे, जिसमें महाराज दशरथ का दरबार लगा हुआ है, एक पहरेदार अन्दर आता है और दशरथ जी से सुर में कहता है, " मुनी विश्वामित्र जी आये हुए हैं, वो गोया किसी के सताए हुए हैं, लबों में उनके जुम्बिश नहीं है, पैर उनके थरथराये हुए हैं ,……. बस करो बस करो जोशी जी चिल्लाए, ये हमारे यहाँ की रामलीला नहीं है। …… नहीं है ? टीम के एक सदस्य बोले पर हम तो आपके बताये हुए रास्ते से ही डालीगंज आये थे, मैंने कहा ये तो मौसम गंज की रामलीला है, जो डालीगंज की ही है, पर हमारी रामलीला तो बाबूगंज में होती है, वह भी डालीगंज में ही होती है , पर आप लोग मौसंगंज कैसे पहुँच गए । टीम के एक अन्य सदस्य बोले आई टी कालेज से आने की जगह हम शहीद स्मारक से आये, रास्ते में एक रिक्शेवाले से पूछा कि यहाँ रामलीला कहाँ होती है, उसने मौसम गंज की और इशारा किया, वहां रामलीला हो रही थी, हमने जोशी के बारे में पूछा तो किसी ने कहा कि इधर उधर होंगे, पर आप नहीं दिखे ।
अब पश्चाताप का भी कोई कारण न था गलती सरासर जोशीजी की ही थी उन्हें फिल्म डिविजन वालों को सही पता बताना चाहिए था, उनकी भद्द तो उड ही चुकी थी ।
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