हमारी ईजा बताया करती थी कि गाँव में एक व्यक्ति हुआ करते थे जिनका नाम धरुका था वे बहुत जल्दी हर रहस्य को भांप जाते , और किसी भी आणे ( पहेली) को चुटकियों में हल कर देते थे , ईजा को भी यह कौशल प्राप्त था, उनसे यह ठुल्दाज्यू को विरासत में मिला, इसीलिए ईजा स्नेह से उन्हें धरुका कहती थीं
हमारे पूर्वज किसान थे, पहाड़ों पर किसानी करना आसान बात नहीं है, सीढीनुमा खेतों पर जी तोड मेहनत कर किसी तरह वे फसल उगाते पर अधिकतर मौसम की मार उनकी मेहनत पर पानी फेर देती बाबू नौकरी करने बाहर रहते थे , नजायत , वर्षायत में ठुल्दाज्यू का जन्म हुआ, चूंकि बाबू अपने परिवार में सबसे बडे थे इसलिए उस समय बड़बाज्यू के पोतों में ठुल्दाज्यू सबसे बडे और सबके लाडले थे परिवार बड़ा होने लगा, सयानों ने नजायत में जगह की कमी को भांपा और बजेत आ गए, तभी बाबू ने चौबटिया गार्डन्स में नौकरी शुरू कर दी और सपरिवार चौबटिया आ गए. ठुल्दाज्यू और नन्दाज्यू बहुत छोटे थे, वहां सरकार की तरफ से बाबू को एक क्वार्टर मिला,जिसमें वे परिवार सहित रहने लगे, देश आजादी की अंगडाइयां ले रहा था, आजादी की बयार सारे कुमाऊँ में भी फैली हुई थी चौबटिया गार्डेन्स अंग्रेजों द्वारा बसाया गया था, उन्होंने जगह जगह से भिन्न भिन्न प्रकार के फलों के पेड लाकर यहाँ उगाये थे , उस समय गार्डन सुप्रिटेण्डेण्ट अंग्रेज ही हुआ करते थे , वे बडे मिलनसार और अनुशासित हुआ करते थे, क्रिसमस के दिन वे सभी कर्मचारियों को अपने बंगले में बुलाते, बच्चों को मिठाइयाँ, उपहार देते, ये प्रथा अंग्रेजों के जाने के बाद भी क्न्वर्टेड क्रिश्चियंस ने भी चालू रखी .
ठुल्दाज्यू की प्रारम्भिक शिक्षा चौबटिया में ही प्रारम्भ हुई , चौबटिया बाज़ार में बेसिक स्कूल तक की पढाई करने बाद कालान्तर में रानीखेत मिशन इण्टर कालेज में आगे की पढाई की . बाद में आई आई टी करने अल्मोडा चले गए , बाबू का स्थानान्तरण रानीखेत हो गया फिर बाद में लखनऊ चले आये, उस समय वे बाबू के साथ लखनऊ में रह कर छोटी मोटी नौकरी करने लगे, ड्राफ़्ट्स्मेन का कोर्स करने के बाद वे सिंचाई विभाग में नौकरी करते थे उसी समय सारा परिवार भी लखनऊ आ गया था, ठुल्दाज्यू दूरदृष्टा थे उन्होंने तभी समझ लिया था कि एक छोटे से शहर से आये बच्चे लखनऊ जैसे शहर में एक नए परिवेश में खुद को ढालने में समय लगायेंगे, इसलिए डालीगंज में एक बडा सा मकान जो कई वर्षों से खाली पडा था किराए पर लिया गया और हम सभी लोग ऍन केन प्रकारेण उसमें गुजर बसर करने लगे.
खासतौर पर हम छोटे भाई जो रानी खेत में कक्षा 6 से ही अंग्रेजी सीख रहे थे और उस समय तक हमें केवल अंग्रेजी की छोटी लिपि ही सिखाई गई थी , लखनऊ में अंग्रेजी की किताबें भूत की तरह लगतीं , अभी तो हम वाक्य बनाना भी न सीखे थे और यहाँ की किताबें तो भारी भरकम वाक्यों से भरी पड़ी थीं, मुझे याद है जब मैंने दुर्गा गीता विद्यालय में एडमिशन लिया तो उस समय जो पाठ पढाया जा रहा था उसकी शुरुवात कुछ यूं थी " Long long ago there was a fisherman lived near river Padma " यह पद्मा ही मेरे लिए सदमा था, पर ठुल्दाज्यू भांप गए उन्होंने सुबह शाम हमें पढाया और आफिस जाते समय दिन भर के लिए होमवर्क दे कर जाते और शाम को वापस आ कर पूछते , उन गर्मियों की छुट्टियों में ही हम इतना सीख गए कि क्लास में हमें झेंप नहीं होती , उन्होंने अपनी जिद से घर में अंग्रेजी का अखबार नेशनल हेरल्ड लगवाया और उसके सम्पादकीय कालम के नीचे दिए जाने वाले अंग्रेजी के कठिन शब्दों के मायने व् उनके प्रयोग को ध्यान पूर्वक पढने को कहा आज जो भी थोड़ी बहुत अंग्रेजी मुझे आती है वह ठुल्दाज्यू के उस प्रयास का ही परिणाम है
वो जानते थे कि हम बाज़ार में मिलने वाली चीजों के लिए लालायित रहते हैं वे यदा कदा आइसक्रीम, कोका कोला ले आते और सभी को बराबर बराबर देते, कभी कोई अच्छी फ़िल्म आती तो उसे देखने के लिए पैसे भी दे देते. तब तनख्वाहें बहुत कम हुआ करती थीं , जो कुछ भी मिलता उसमें अधिकाँश वे घर पर दे देते और स्वयं के शौक जो नगण्य थे उनको पूरा करने के लिए कुछ धनराशि अपने पास रखते. बाद में उन्हें आर डी एस ओ में नौकरी मिल गई, वे साइकिल से डालीगंज से आफिस जाते जो कि बहुत दूर था उसी दौरान उन्होंने शिया कालेज से बी .ए भी किया. उन्होंने परिवार के लिए अपने को सदा ही समर्पित किया, वे ईजा बाबू के पीछे दृढ़ता से हमेशा खडे रहे, बाबू उनसे सदैव परामर्श लेते , परिवार में कई बार बहुत कठिन परिस्थतियाँ आईं पर वे बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए अपना काम करते रहे. उन्हें अपने स्वभाव में गंभीरता, धीरता बाबू से , सहजता व् परस्थिति अनुकूल अनुमान लगा लेना ईजा से मिला है , केवल क्रोध ही उनका अपना जाया है पर इससे वे अपना ही नुक्सान करते हैं वे स्वभाव से अन्तर्मुखी हैं और जल्दी जल्दी खुलते नहीं हैं जान कर भी अनजान बने रहते हैं , पर वे अत्यधिक दयावान हैं आज भी इस उम्र में उनसे जो बन पड्ता है वो परिवार को एकजुट रखने के लिए करते हैं, वे क्षमाशील हैं , किसी भी गलती को "कोई बात नहीं" कह कर टाल देते हैं
उनकी क्षमाशीलता, दयालुता का एक वाकया अविस्मरणीय है, डालीगंज से आर डी एस ओ जाने के लिए उनहोंने एक इटेलियन विक्की खरीदी , उस विक्की में तीन गेयर भी हुआ करते थे, उस समय यह विक्की अच्छे अच्छे स्कूटरों को मात दे दिया करती थी , एक लीटर पेट्रोल में न जाने कितने किलोमीटर दूरी तय कर लेती थी, हम सभी भाई इसे चलाने के लिए लालायित रहते थे, पर बहुत कम मौके मिला करते, यह विक्की साइकिलों की तरह बाथरूम के बगल की गैलरी में रखी रहती, एक दिन आफिस जाने की तैय्यारी करने वे बाथरूम से बाहर निकले तो देखा कि विक्की का अगला पहिया पंचर है, ऊपर आकर वे छब्बन से बोले कि शायद विक्की का पहिया पंचर हो गया है, ये एक रुपिया ले और दिन में पंचर बना लेना, अभी मुझे देर हो रही है, और वो जल्दी तैयार होकर बस से आफिस चले गये. तब विक्की का पंचर बारह आने का बनता था शायद चार आने वो छब्बन को मेहताना देने के उद्देश्य से देते थे, विक्की ठीक करा कर छब्बन इसे दिन भर चलाता और हमें हाथ भी न लगाने देता , जगदा और मैंने मंत्रणा की और पाया कि विक्की का पहिया पंचर कैसे हो गया ? शाम तक तो यह बिलकुल ठीक ठाक था, जरूर छब्बन ने ही कुछ शैतानी की हुई है, जगदा ने छब्बन को पकडा और धमकाते हुए कहा जल्दी से बता नहीं तो बहुत मारूंगा, छब्बन डर गया और उसने राज़ उगल दिया, वो अक्सर विक्की के अगले पहिये की हवा निकाल देता और ऍन मौके पर ठुल्दाज्यू को पता चलता और मजबूरी में वे उसे पैसे देते और तथाकथित पंचर ठीक किया जाता, इसका अर्थशास्त्र कुछ यूं था कि पांच पैसे में विक्की के अगले पहिये में हवा भराई जाती और अस्सी पैसे का एक लीटर पेट्रोल उसमें भराया जाता और विक्की को दिन भर जोता जाता, अगले दिन जगदा ने भी यही किया और ठुल्दाज्यू के पता चलने से पहले ही उन्हें बताया कि उनकी विक्की का अगला पहिया पंचर हो गया है, बनवाना पडेगा, अनमने भाव से ठुल्दाज्यू ने उसे पैसे दिए और कहा कि इस बार ज़रा अच्छी तरह बनवा देना शायद पंचर वाला छब्बन को ठग लेता है, ठीक है कह कर जगदा ने दिन में अगले पहिये में हवा खुद भरी और एक लीटर पेट्रोल भरा कर दिन भर यहाँ वहां डोलता रहा ,बाद में मालूम पडा कि ठुल्दाज्यू सब जानते थे पर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा . इस विक्की से हम सब भाइयों ने दो पहिया वाहन चलाना सीखा , सभी भाइयों के दोस्तों ने भी इस पर हाथ साफ़ किया, तब मोहल्ले में केवल एक स्कूटर हुआ करता था जो पाडलिया जी का था, वो पर्वतीय बंधू परिषद् में आते और स्कूटर बिना ताला लगाए खडी कर देते, उन्हें मालूम था पहले तो यह लम्ब्रेटा स्कूटर है, भारी है, और साइकिल के अलावा कोई कुछ भी चलाना नहीं जानता , पर विक्की सीखने के बाद उनका स्कूटर हम सभी मित्र चलाने लगे .

शादी तय हो गई और बरात का निम्न्त्र्ण पूरे मोहल्ले में दिया गया, तब निमन्त्रण देते समय यह आगाह कर दिया जाता था कि बरात में एक घर से एक व्यक्ति ही सम्मिलित होगा, हमारे मोहल्ले में पर्वतीय लोग अधिक संख्या में थे, ईजा का जिन - जिन से परिचय था उन्हें इसी तरह निमंत्र्ण दिया गया, सभी भाइयों ने अपने मित्रों को भी निमंत्रित किया, चूंकि उस समय मोहल्ले में यह पहली शहरी शादी थी इसलिए सभी बारातियों में उत्साह था. बेबी बचपन से ही स्वभाव की तेज थी, लालू की मित्र मण्डली में कुछ घरों से दो लोग आ गए, बेबी मुण्डेर से चिल्लाई " ऐ तुम लोगों को शर्म नहीं आती ? एक घर से एक आदमी का निमंत्र्ण है, तुम दो लोग क्यों आ गए हो ?, " वो बेचारे मेरे पास आये और बोले, दाज्यू लालू हम सभी का दोस्त है उसने ही हम सब को आने के लिए कहा है, मैंने हंस कर कहा कोई बात नहीं तुम सब लोग भी चलो , इस प्रकार खुशी - खुशी सभी बरात में शामिल हुए,
विवाह संपन्न हुआ , भाभी अपने घर से ससुराल को विदा हुईं , बहुत भावुक क्षण थे, उनके मायके में रीति - रिवाज़ से उन्हें विदा किया गया, दहेज़ में मिला ड्रेसिंग टेबल , रिक्शे में लाद कर में घर पहुंचा , घर में उत्सव सा माहौल था, ठुल्गाज्यू और भाभीजी की आरती उतारी जा रही थी, नई बहू को देखने के लिए मोहल्ले भर की औरतें इकट्ठा हो गईं थीं, शकुनाखर गाये जा रहे थे, साडी में लिपटी हुई गुडिया सी भाभीजी सधे कदमों से उस घर में प्रवेश कर रहीं थीं जहां ईजा के अलावा सयानी कोई औरत न थी, सभी बहिनें बहुत छोटी थीं , पर सभी अपने अपने तरीके से उनका स्वागत कर रही थीं, अमूमन इस अवसर पर नवदंपत्ति को राधा और कृष्ण की उपमा दी जाती है पर हमारे दाज्यू और भाभीतो राम - सीता की जोडी लग रहे थे

मेरे बनारस से आने के बाद ठुल्दाज्यू ने आर डी एस ओ में सरकारी आवास ले लिया , और वहां शिफ़्ट हो गए , तब भी वे यदा कदा डालीगंज आते रहते और परिवार का हाल चाल लेते रहते, उन्होंने अपने बडे होने का फ़र्ज़ हमेशा निभाया , अपने परिवार में अश्विनी भाई साहब भी बडे थे, वे अक्सर कहा करते , "बडा बडा कहते हो पर बडे में तो छेद होता है", उनकी यह बात बहुत दिनों बाद मेरी समझ में आई .


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