महारास
सारे गाँव में हलचल मची हुई थी, गाँव के छोर पर स्थित मंदिर में स्वामी जी पधारे हुए थे, स्वामी जी सुबह शाम प्रवचन देते थे, गाँव वाले अब चौपाल में न बैठते थे, गोधूलि बेला में खेतों से लौटकर, कलेवा कर सीधे मंदिर पहुँच जाते और स्वामी जी की सेवा सत्कार में लग जाते । रोज शाम को मंदिर में कीर्तन होता उसके बाद प्रसाद वितरण होता । स्वामी जी गाँव वालों को सनातन धर्म के बारे में बताते, और नित नई नई कथाएं सुनाते, जिसे गाँव वाले बडे मनोयोग से सुनते, सभी धर्मभीरू थे इसलिए सारा वातावरण भक्तिमय हो उठता था । लोग अपनी समस्याएं स्वामी जी को बताते और वे उसका सुन्दर निराकरण बताते । किसी का बैल खो गया, किसी का आभूषण नहीं मिल रहा या किसी को अपने स्वास्थ के प्रति प्रश्न पूछने होते थे , स्वामी जी किसी को भी निराश नहीं करते थे ।
एक दिन मुखिया जी ने स्वामी जी से पूछा कि क्या वे पागलपन का भी इलाज कर सकते हैं ? स्वामी जी मुस्कुराए और बोले " मुखिया जी मैं तो निमित्त मात्र हूँ , मैं क्या इलाज कर सकता हूँ , खैर बताइये क्या बात है ?"
मुखिया जी ने बताया की एक बार गाँव के कुछ लोग वृन्दावन तीर्थयात्रा पर गये थे, वहां से लौटने पर गोधन बीमार पड गया और पागलों सी हरकत करने लगा, वो न किसी को पहचान ही रहा है बल्कि घडी घडी कुछ ढूँढ़ता रहता है, बिस्तर पर, सिरहाने, भोजन थाल के नीचे, पेड के खोह में, खेतों में फसलों के बीच, अपने वस्त्रों में न जाने क्या ढूँढ़ता रहता है, पूछने पर कुछ भी नहीं बतलाता केवल शून्य में ताकता रहता है, घर वाले अलग परेशान हैं, कितना इलाज किया पर कोई फायदा नहीं है, सरकारी डाक्टर कहता है कि इसे शहर ले जाओ और किसी बडे डाक्टर को दिखाओ, अभी परसों ही इसका भाई इसे शहर में दिमाग के डाक्टर को दिखला कर आया है, पर वो कहता है कि इसे पागलखाने में भारती कर दो वहीं इसका इलाज संभव है, पर भाई का प्रेम इसे शहर नहीं ले जाने दे रहा है, भाई पागलखाने के हालात देख आया है वहां इस प्रकार के मरीजों को पागल करार दे कर बेड़ियों में जकड देते है "
सारी बातें सुनकर स्वामी जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद मुखिया जी से बोले, " ठीक है मुखिया जी चलिए गोधन के घर चल कर देखते हैं कि क्या हो सकता है "
सभी लोग गोधन के घर की और चल पडे, मुखिया जी के इशारे पर बुधराम दौड़ता हुआ गोधन के घर को भागा जिससे उसके भाई को स्वामी जी के पधारने का समाचार दे सके, और स्वामी जी की आवभगत में कोई कमी न रहे क्योंकि स्वामी जी पहली बार मंदिर से गाँव के भीतर पधार रहे थे ।
गोधन के भाई ने घर के आँगन में चारपाई डाल दी और गुड का शरबत ले कर द्वार पर तैयार खडा हो गया । आते ही स्वामी जी ने गोधन से मिलने की इच्छा व्यक्त की, गोधन का भाई उसे बाहर ले आया , वो आते ही स्वामी जी को अपलक देखने लगा, स्वामी जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और बोले, " आप सभी लोग हम दोनों को कुछ पल एकांत में छोड दें, गोधन के भाई ने स्वामी जी से कहा कि वे भीतर जा कर गोधन के साथ बैठें, मैं द्वार पर पहरा दूँगा, स्वामी जी गोधन को लेकर भीतर चले गए और भाई ने बाहर से कुण्डी लगा दी ।
गाँव वाले उत्सुकतावश वहीं खडे रहे, गोधन की सबको फ़िक्र थी, काफी समय बीत गया पर कोई भी बाहर नहीं निकला । करीब चार घंटे बाद स्वामी जी ने द्वार खोला और मुस्कुराते हुए बाहर आये, उनके पीछे गोधन यंत्रवत चला आ रहा था, उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधार बह रही थी , वह हाथ जोडे हुए था,उसने पहले भाई को गले लगाया, फिर मुखिया जी के पैर छुए, अपने बच्चों को सीने से लगाया और फूट = फूट कर रोने लगा । सभी अचम्भित थे ये कैसा चमत्कार हो गया, गोधन तो सबको पहचानने लगा है , और इसका पागलपन भी दूर हो गया है, जो काम बड़े बड़े डाक्टर नहीं कर पाए स्वामी जी के प्रताप से वह संभव हो गया है । सभी स्वामी जी का जयकारा लगाने लगे पर स्वामी जी ने सबको रोका और कहा कि " मेरा कोई चमत्कार नहीं है, चमत्कार तो वह है जो गोधन तुम्हें सुनाएगा " मेरे ध्यान का समय हो गया है, मैं मन्दिर जा रहा हूँ आप लोग गोधन से उसकी जुबानी सुनिए, स्वामी जी ने गोधंके सर पर हाथ फेरा और मन्दिर की और चल पडे ।
गोधन को सबने घेर लिया और उससे तरह तरह के सवाल करने लगे, वो चुपचाप रहने वाला गोधन अचानक ही मुखर हो गया, उसने सबको शांत कराया और बोला " मुखिया जी आपको याद ही होगा पिछले साल हम लोग वृन्दावन धाम तीर्थ पर गए थे, सभी वहां धर्मशाला में रुके रहे, हम सभी लोग दिन भर मन्दिरों में दर्शन करते और शाम ढले वापस आकर धर्मचर्चा कर सो जाते, उस दिन दोपहर में हम सभी उस कुञ्ज वन में भी गए जहां भगवान श्रीकृष्ण गोपियों संग रास रचाते थे, पंडा जी बता रहे थे कि आज भी भगवान् यहाँ व् ही लीला रचते हैं जो विरलों को ही दिखाई देती है , इसलिए रात्रि में इस स्थान को बंद कर दिया जाता है, यहाँ रात्रि में किसी के भी प्रवेश की मनाही है । मैंने इसे कपोलकल्पना समझा और उस रात चुपचाप धर्मशाला से निकल कर सबकी आँखों से बचता हुआ कुञ्ज वन में कूद गया और एक पेड के नीचे दुबक गया, पता नहीं कितनी देर में वहां चुपचाप पडा रहा, ताकि कोई रखवाला मुझे देख न ले, काफी देर निश्चल पड़े रहने के बाद मुझे अहसास हुआ कि शायद में गलती कर बैठा हूँ, बताने वाले न जाने क्या क्या बताते हैं पर सब बातें सच थोडे ही होती हैं पर अब क्या हो सकता था वापस लौटने का साहस मुझमें न था, , दुबके रहते हुए ही मुझे नींद आने लगी , नीम अँधेरे में झींगुरों की झांय -झांय , और हलकी हलकी चल रही हवा से मुझे झपकी आ गई , अचानक मेरी तंद्रा टूटी , लगा कि हल्का हल्का सा प्रकाश फैल रहा है, हवा में मदमाती सुगंध घुल रही है, दूर कहीं वंशी की मदहोश कर देने वाली आवाज़ आ रही थी, इसकी धुन पर कोयलों के कूकने की मधुर ध्वनि मिल कर सारे वातावरण में रस घोल रही थी । हवा कुछ भारी हो चली थी, तभी मुझे खिलखिलाने की आवाज़ सुनाई दी, झाडी के बीच झरोखा बना कर देखा कि पेड़ों के बीच से निकल कर , सारे कुञ्ज वन में गोपियाँ आ रही थीं, और दूर घनश्याम वंशी रहे थे । सभी गोपियाँ कान्हा के चारों और घेरा बना कर खड़ी हो गईं और ललित लास्य में नृत्य करने लगीं , धीरे धीरे वंशी की धुन तेज होती गई और गोपियों का नृत्य भी उसी गति में तेज होने लगा । तभी मैंने देखा कि कदम्ब के पेड के पीछे से राधिका जी प्रकट हुईं , उनके रूप का मैं वर्णन नहीं कर सकता, वो एक प्रकाश पुंज की भाँति लग रही थीं, वो
भगवान् श्रीकृष्ण के समीप पहुँचीं और भगवान् से उनकी वंशी छीन ली, वंशी की धुन बंद होते ही गोपियों का भी नृत्य रुक गया, सभी गोपियाँ राधा जी के समीप आयीं और उनसे न जाने क्या वार्ता हुई कि कान्हां हंस पडे और फिर सभी गोपियों का हाथ उन्होंने और राधा जी ने थामा और नृत्य शुरू हो गया, फिर मैंने देखा कि भगवान् ने अपने कई रूप धारण कर लिए हैं , कहीं वह राधा जी के साथ हैं तो कहीं वे हर गोपी के साथ हैं, कहीं वे खड़े-खड़े वंशी बजा रहे हैं , फिर वातावरण में दिव्य संगीत गूँजने लगा, गायें सर हिला हिला कर एक लय में नाचती घूम रही थीं, मोर अपने पंख फैला कर नाच रहे थे, कोयले कूक रही थीं, ऐसा लग रहा था मानो हर कोई नाचने के लिए उद्धृत है । संगीत मधुर से मधुरतम होता जा रहा था , नृत्य में लास्य बढ़ता जा रहा था, हवा में एक प्रकार की गति पैदा हो गई थी, योगी, योगिनियाँ, किन्नर किन्नरियाँ , यक्ष यक्शिणिया, डाक डाकिनियाँ, भूत, पिशाच , मृग, शशक, , पशु पक्षी सभी नाच रहे थे, तभी मुझे आभास हुआ कि सभी पेड भी तरंग में आ गए हैं, और खड़े-खड़े नाच रहे हैं । अद्भुत दृश्य था, मानो पृथ्वी नाच रही थी, व्योम नाच रहा था, तारामंडल नाच रहा था सारी स्रुष्टि नाच रही थी, अंतरिक्ष भी नाच रहा था, (COSMIC DANCE ) स्वयं नटराज मोहित हो रहे थे योगेश्वर की इस लीला को देखकर, ऊपर से नारद वीणा बजाने लगे, और यह संगीत अत्यंत ही दिव्य हो गया था, लगता था जैसे चारों और मधुरता फैल गई है, नैराश्य समाप्त हो चुका है, लीलाधर सभी के साथ एक ही समय में अलग अलग रूप धर कर नाच रहे थे, उनके हर रूप में मधुरता थी,

" अधरं मधुरं, वदनं मधुरं, नयनं मधुरं, हसितं मधुरं ,
नृत्यं मधुरं, सख्य मधुरं , मधुराधिपते रखिलं मधुरं ,
गोपी मधुरा, लीला मधुरा ,युक्तं मधुरं, भुक्तं मधुरं ,
दृष्ट मधुरं , शिष्ट मधुरं , मधुराधिपते रखिलं मधुरं ,
सभी को लग रहा था जैसे केवल उसके साथ ही भगवान् नाच रहे हैं, पर ऐसा भी प्रतीत होता था जैसे, एकोहं बहुश्श्याम : सारी निजता, सारे अभिमान, लोभ, मोह, क्रोध, माया, ममता सभी तिरोहित हुए जा रहे थे, जैसे आत्मा का परमात्मा में विलय हो रहा हो ।
तभी राधा जी के कान का बूंदा टूटकर मेरे सामने गिरा मैंने चुपचाप उसे उठाकर अपने कुर्ते की जेब में डाल लिया , बूंदा गिरते ही राधा जी रुक गईं और नृत्य रुक गया , सभी जड चेतन गतिहीन हो गए, केवल झींगुरों की झांय -झांय सुनाई दे रही थी , मैंने अपनी जेब टटोली तो बूंदा वहां नहीं पाया , आसपास की सारी जमीन में खोजा पर मुझे वहां नहीं मिला, दूर आकाश में लालिमा छाने लगी थी , मैं बेहोश हो गया । मुझे वहां से कौन उठाकर लाया और मेरी बेहोशी कब तक रही मुझे ज्ञात नहीं है ।
मुखिया जी बोले, " तुम्हारे जेब में धर्मशाला की रसीद देखकर कुञ्ज वन के गार्डों ने तुम्हें रिक्शे पर बिठाकर धर्मशाला भेज दिया, हम लोग प्रात{काल ही मंदिर में दर्शन के लिए चले गए थे , लौटकर तुम्हें देखा तब से आज तक तुम नीम पागलपन में रहे थे , आज स्वामी जी की कृपा से तुम ठीक हो पाए हो । पण्डित जी ने विस्मय से पूछा पर गोधन राधा जी के बुँदे का क्या हुआ, शायद इतने दिन तक तुम हर जगह उसे ही ढूँढ़ रहे थे । गोधन बोल, " हाँ पण्डित जी मैं उसे ही खोजता था पर मुझे कहीं नहीं मिलता था , यही मेरा पागलपन था, मुझे और कुछ भी स्मरण नहीं था, घर द्वार, बन्धु बांधव, इष्ट मित्र, आस पडोस , सुख दू{ख , मैं सब कुछ भूल गया था । कमरे के भीतर स्वामी जी ने मेरे सर पर हाथ फेरा और वे सारा माजरा समझ गए, उनहोंने मेरी आँखों में झाँक कर मेरे मस्तिष्क में प्रवेश किया , और काफी देर बाद उन्होंने मुझे बताया कि बूंदा गिरते ही वन के पहरेदारों ने उसे उठा लिया था और राधा जी को दे दिया था, इसलिए तुम्हारे पास वो बूंदा नहीं था तुम व्यर्थ में उसे ढूँढ़ रहे हो , इस दृश्य को स्वामी जी ने अपने अंतर्मन से देखा और मेरी चेतना जाग गई, मुझे अहसास हुआ कि में कई दिनों बाद जागा हूँ" ।
मुखिया जी और पण्डित जी आपस में चर्चा करने लगे कि स्वामी जी ने यह कैसे समझ लिया कि वास्तव में बूंदा गोधन के पास नहीं है , और वो इतने दिनों तक क्यों संज्ञा शून्य रहा ? दोनों मन्दिर की और चल पडे , मन्दिर पहुँच कर उन्होंने देखा कि स्वामी जी ध्यान लगाए बैठे हैं उनके चहरे पर अपार संतुष्टि फैली हुई है, उनका चेहरा छोटे से शिशु की तरह निर्विकाए लग रहा था, दोनों के पहुँचने की पदचाप सुनकर स्वामी जी ने नेत्र खोले और बोले," मैं आप लोगों की ही प्रतीक्षा कर रहा था, मुझे मालूम था कि आप लोगों के मन में कई प्रश्न घूम रहे होंगे , बैठिये मैं आपको बताता हूँ "
गोधन के भाग्य में था कि वह साक्षात ब्रह्म के दर्शन करे पर वह इसका पात्र न था , इस दर्शन के लिए योगी मुनिजन जीवन पर्यन्त प्रयत्न करते हैं पर विरले ही सफलता पाते हैं , इसके लिए योग्य बनना पड्ता है ताकि इस दर्शन से वह अचंभित होकर अपने होश न खो बैठे, श्रीमद्भागवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि ,
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चितेनम
आश्चर्य्व्द्व्द्ति तथैव चान्य:
आश्चर्य्व्च्चैन्मन्य: श्रुणोतिश्रुत्वाप्येन
वेद न चैव कश्चित्
"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा ( ब्रह्म ) को आश्चर्य से देख पाता है, और वैसे ही कोई दूसरा महापुरुष ही आश्चर्य से इसका वर्णन करता है , और कोई दूसरा ही अधिकारी महापुरुष इसको आश्चर्य से सुनता है, और कोई कोई तो इसे सुनकर भी समझ नहीं पाते "
गोधन ने जो देखा, सूना वो सब करने का वह अधिकारी नहीं था क्योंकि उसका छोटा सा मस्तिष्क इसके लिए तैयार नहीं था , यह सब देखने कहने और सुनने के लिए कठिन साधना करनी पड़ती है , तभी दिव्य दर्शन संभव होते हैं " चूँकि तंद्रा टूटने पर उसको भान हुआ कि वह क्या गलती कर बैठा है, उसे अपने ऊपर खिन्नता हुई और इसी वेग में उसकी आँखों से अश्रुधार बह गई, वो चाहता तो बूंदा न चुराता और चल रही अप्रतिम लीला को देखता उसमें सम्मिलित होता पर वह इसका पात्र न था इसलिए विधि ने उसकी बुद्धि में जडता भर दी और वह संज्ञाहीन हो गया " इस ब्रह्म की अनुभूति के लिए वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के भीतर बहुत गहरे खुदाई कर वहां STEEL की विशालकाय ट्यूब बनाई और उसमें विस्फोट किया तो क्षणमात्र के लिए ही उन्हें इसलि अनुभूति हुई जिसे उन्होंने GOD PARTICLE कहा और इसका नाम HIGGS BOSON रखा ।
इति
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