ताण्डव्

उत्तराखंड में प्रकृति की भयावह विनाशलीला हुई है । जगह - जगह सड़कें टूट गई हैं , पहाड़ दरक कर नीचे आ गए हैं , नदियाँ उफान पर हैं वे अपने कूल किनारों के मकानों को, जमीन को लील गई हैं , गड़वाल के पहाड़ों पर चल रही चारधाम यात्रा पर गए तीर्थयात्रियों को भी ये विनाश झेलना पड़ा है, कई मलबे में दब गए, कोई बाढ में बह गया , जो बचे वे जंगलों में भटक गए व किसी तरह से सेना के द्वारा बचाए गए हैं, कुमाऊँ में भी जल प्रलय हुई है , धारचूला, मुंश्यारी इसके प्रभाव में हैं । प्रकृति के अमूल्य वरदान का अनाप शनाप दोहन इसका मूल कारण है ।
भौगोलिक पहलू :
करोड़ों साल पहले यहाँ समुद्र हुआ करता था , continental drifting की वजह से समुद्र अपनी जगह छोड़ गया Drifting के कारण समुद्र का तल धीरे - धीरे ऊपर उठता गया और फिर इतना उठ गया कि इसने वर्तमान हिमालय का रूप ले लिया और तत्कालीन पहाड़ समुद्र में तब्दील हो गए । आज भी इन पहाड़ों पर इसके चिन्ह मिल जाते हैं , खुदाई करने पर शंख घोंघे इत्यादि मिल जाते हैं । पहले पृथ्वी के दो हिस्से हुआ करते थे जिसमें एक गोंडवाना लैण्ड कहलाता था , इसमें डाइनोसार बसते थे, आज भी जबलपुर के चुई हिल्स व् शिमला हिल्स में डाय्नोसार के फोसिल्स मिल जाते हैं, यद्यपि अब ये फोसिल्स करोड़ों साल पुराने हैं और इनकी कार्बन डेटिंग नहीं की जा सकती पर प्रकृति की अनोखी लीला से इनके कार्बन कण मिट्टी के द्वारा विस्थापित किये जा चुके हैं । गढ़वाल और कुमाऊँ हिल्स शिवालिक रेंज में आते हैं जो कि नवीनतम पर्वत श्रंखला है , और इसलिए अन्य के मुकाबले कच्चे हैं इनमें भूगर्भ शाश्त्र के अनुसार लम्बे लम्बे फ़ाल्ट्स हैं , जो सतत चल रही continental drifting के कारण हिलते और खिसकते हैं और भूकंप को जन्म देते हैं । पहाड़ों के इस खिसकने के कारण वे आपस में रगड़ खाते हैं और इस प्रक्रिया में काफी सारा चूर्ण जमा हो जाता है और कालान्तर में पानी के साथ मिल कर दलदल बना देता है, सारा चारधाम इलाका ऐसे ही दलदल से बना है । संस्कृत में दलदल को केदार कहते हैं इसलिए ये क्षेत्र केदार खंड कहलाता है, जिसका वर्तमान में केदारनाथ मंदिर के बगल में स्थित उद्क्कुण्ड है जहां पर जरा सी आवाज़ से बुलबुले उठने लगते हैं इन पहाड़ों पर कोई भी निर्माण बिना भूगर्भ वैज्ञानिकों की सलाह के बिना करना खतरे का संकेत है । पर विकास के नाम पर किये जा रहे अनियमित निर्माण और नदियों से रेत व बजरी का निकाला जाना , भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में बाँध का निर्माण , इन सबके लिए पेड़ों को काटना , दुर्गम इलाकों में सड़कों का जाल बिछा कर एवलांज को निमंत्रण देना , जल्दी जल्दी अधिक से अधिक कमा लेने की लालसा , प्रकृति का अप्राकृतिक दोहन इस विनाश लीला का कारण है । उत्तराखंड का मूल आयश्रोत पर्यटन है इसके लिए यहाँ की सरकारें अधिक से अधिक आय जुटाने के लिए पर्यटकों को तरह तरह से आकर्षित करती हैं, जगह जगह टूरिस्ट स्पाट बना दिये गए हैं वहां प्रकृति की वास्तविक स्वरूप को बिगाड़ कर सड़कें बना दी गई हैं जिससे भूस्व्खलन की संभावना बढ गई है ।
आध्यात्मिक पहलू :
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था , पाण्डव अपने पराक्रम और भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से इस युद्ध में विजयी हुए थे, पर वे खिन्न थे, एक शून्य सा व्याप्त हो गया था, अपने बंधू बांधवों, ब्राह्मणों, गुरुजनों का संहार कर वे इस राजपाट को भोगने के इच्छुक न थे, उन्हें अत्यधिक ग्लानि हो रही थी वे जानते थे कि उन्हें ब्रह्म ह्त्या का दोष लग चुका है अत : वे उदास थे । भगवान् श्रीकृष्ण उनके महल में आये और उनके दू:ख का कारण पूछा, युधिष्ठिर बोले हे श्रीकृष्ण हमारी व्यथा का कारण हमारे द्वारा अपने कृत संबंधियों, ब्राह्मणों की ह्त्या से हमें लगे इस श्राप से है, अपनों को मार कर अब इस सुख को कैसे भोगें और कैसे इस पाप का निवारण हो ? श्रीकृष्ण ने कहा हे कुन्ती पुत्रो तुमने बुराई को समाप्त किया है क्योंकि " शठे शाठ्यम समाचरेत, इस लिए अपने मन में कदापि भी मलिनता मत लाओ और सभी सुखों का आनंद लो । अर्जुन ने कहा हे सखे तुम मुझे यह उपदेश युद्धभूमी में दे चुके हो, पर अब जब हम ब्रह्महत्या के अभिशाप से जूझ रहे हैं तो कृपया हमें इसके निराकरण का उपाय बताइये, तब भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को उनके महल में पुन: उपदेश दिया ( जो श्रीमद्भागवद्गीता की तरह प्रचलित तो नहीं है पर खिन्न मन को समझाने का सरल उपाय है ) । भगवान् बोले, हे पाण्डु पुत्रो ब्रह्महत्या का श्राप तो तुम्हें लग चुका है विधि के इस विधान को मैं बदल नहीं सकता, हां पर महादेव तुम्हारी इस समस्या का हल निकाल सकते हैं वे आदिदेव हैं वामदेव हैं सारी ऋणात्मक ऊर्जा को अपने में समेट लेते हैं , जो हलाहल, कालकूट का पान कर गए वे तुम्हारे इस लघुतम श्राप को नष्ट कर देंगे, जाओ उन्हें खोजो और उनकी आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो .इस प्रकार श्रीकृष्ण के उपदेश देने पर सभी पाण्ड्व महादेव को खोजने निकल पड़े । ऋषि मुनियों, पंडितों से महादेव का प्रवास पूछते पूछते वे हिमालय आ गए, पांडव बहुत परिश्रमी थे इस लिए वे केदार खंड तक पहुँच गए, ऋषिकेश से चलते हुए वे उस स्थान पर पहुंचे जहां भगवान शिव माता पार्वती के साथ वास कर रहे थे, पांडवों को आता देख महादेव गुप्त रास्ते से और ऊपर निकल गए, महादेव को वहां न पाकर पाण्ड्व उनके पीछे पीछे चल दिये ( तब इस स्थान का नाम गुप्त काशी पड़ा ) ऊपर चल कर वे गौरीकुंड पहुंचे जहां महादेव ने श्रीगणेश के हठीपन को हरते हुए उन्हें बुद्धिमान गजशीश प्रदान किया था, महादेव यहाँ भी न थे, पर पाण्डव हार नहीं माने और ऊचाइयों पर चढ़ने लगे, वे जब बिलकुल शीर्ष पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कुछ ग्वाले भैसे चरा रहे हैं, पांडवों ने उन ग्वालों ( गोपों ) से महादेव के बारे में पूछा पर उन्होंने अनभिज्ञता प्रकट की, पाण्डव समझ गए कि महादेव उनकी परीक्षा ले रहे हैं, पर वे इतनी सहजता से हार मानने वाले न थे, वे समझ गए कि महादेव इन भैसों के झुण्ड में छिप गए हैं ।
" उते नं गोपा अदृशन्न दृशन्न दहार्य सद्र्ष्टो म्रुडयातिन:":
तभी भीम को एक उपाय सूझा वह सामने खड़े दो पहाड़ों पर चढ कर एक एक पैर दोनों में टिकाकर खड़ा हो गया, उसने अपने भाइयों से कहा कि आप लोग इन भैंसों को नीचे की और हांको जिससे ये सभी मेरे पैरों के नीचे से निकल जांयें, अगर इनमें भगवान् हुए तो वे कदापि भी मेरे पैरों के नीचे से नहीं निकलेंगे, भीम की युक्ति काम कर गई, सभी भैंसे उसकी टांगों के नीचे से निकल गए पर एक भैसा ऊपर की और भागा, यही महादेव थे, भीम ने तुरंत कूद कर भैंसे को पीछे से पकड लिया पर भैंसा उस केदार में अपने सींग घुसाता हुआ गायब होने लगा, केवल भैंसे का पृष्ठ भाग ही ऊपर रह गया, पांडवों के इस पराक्रम से भोलेनाथ अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर बोले जाओ तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो, इस पर्वत के पीछे स्वर्ग को सीढियां हैं तुम उससे चले जाओ, और पाण्डव सशरीर स्वर्गरोहण कर गए । पुराणो के अनुसार भगवान् शिव , भैसे के रूप में केदार से घुसते हुए नेपाल के काठ्माण्डू में निकले जहां वे पशुपतिनाथ के रूप में स्थित हुए । महादेव सर्वव्यापी हैं इसलिए वे केदार स्थान पर उसी दलदल में समाधिस्थ हो गए, उनके इस रूप को देखकर भगवान् विष्णु अत्यंत मोहित हो गए उन्होंने भोलेनाथ से आग्रह किया कि उन्हें भी इस पावन भूमि पर वास करने दें , भगवान शिव चूंकि मुकुंद प्रिय हैं अत: उन्होंने भगवान विष्णु को केदार खण्ड में एक पर्वत सहर्ष भेंट कर दिया जहां भगवान विष्णु बद्रीनाथ ( बेर के स्वरूप में ) स्थित हुए । पांडवों के सशरीर स्वर्गारोहण के कारण यह स्थान मोक्षदायी है, अत: यह मान्यता है कि मनुष्य इस स्थान पर मोक्ष पाने के लिए आते हैं, प्राचीन काल में यह स्थान अत्यंत दुर्गम था , केवल एक पगडंडी पर चलते हुए यहाँ पहुंचा जा सकता था बीच में रात्रि विश्राम के लिए सराय बनी होती थीं जिन्हें स्थानीय भाषा में चट्टी कहते हैं , बद्रीनाथ व् केदारनाथ दोनों के लिए तब मोटर मार्ग नहीं थे , इसलिए तीर्थ यात्रियों को इन स्थानों में पहुँचाने में कई दिन लग जाते थे, अत्यन्य दुर्गम होने के कारण विरले ही इस यात्रा को कर पाते थे, जो सकुशल वापस आता था उसकी बड़ी आवभगत होती थी वो सारे गाँव में पूज्य समझा जाता था । जो वापस नहीं आ पाता था, मान्यता थी कि उसे मोक्ष प्राप्त हो गया । गौरी कुण्ड तक आजकल मोटर मार्ग है वहां से केदार धाम चौदह किलोमीटर ऊपर है जो पैदल रास्ता है पर आजकल मानव के स्वभाव को देखकर खच्चर, डोलियाँ, व् पिट्ठू उपलब्ध रहते हैं जिससे यह यात्रा उतनी कष्ट्साध्य नहीं रह गई है, बद्रीनाथ धाम तक तो खैर मोटर मार्ग है ही, जहां लोग अपनी व्यक्तिगत वाहनों से चले जाते हैं , पहले इस मार्ग पर जोशीमठ से वाहनों के आवागमन पर नियंत्रण रखा जाता था, एक दिशा में वाहन भेजे जाते थे तो दूसरी दिशा से वाहनों को नहीं चलने दिया जाता था , एक गेट सिस्टम हुआ करता था , पर अब सड़कें चौड़ी कर दी गई हैं जिससे वाहनों के आवागमन में कोई व्यवधान नहीं होता । गौरीकुंड से बद्रीनाथ जाने के लिए रुद्रप्रयाग आना पड्ता है जो मंदाकिनी और अलकनंदा का संगम है और अत्यंत पवित्र स्थान है, यहाँ से चढाई चढते हुए जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ को जाया जाता है, पर गौरीकुंड से बद्रीनाथ जाने के लिए एक छोटा रास्ता भी है जो अत्यंत निर्जन है, इसी रास्ते पर तुंगनाथ मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि महादेव के भैंसे रूपी शरीर का यहाँ पुट्ठा है, यहाँ विस्मृत कर देने वाला पृकृति का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है, जो अविस्मयरीण है ।
इस वर्ष इन स्थानों पर अनुमान से अधिक वृस्ति हुई, जिससे भूस्व्खलन हुए, सडक मार्ग जगह टूट गए, नदियाँ उफान गईं और पहाड दरक गए , हजारों तीर्थयात्री कालकवलित हो गए, स्थानीय लोग भी इस प्रलय का शिकार हुए, उनके मकान ढह गए, मवेशी बह गए । केद्दर्नाथ धाम के ऊपर ग्लेशियरों से जन्मे गांधी सरोवर को अति व्रुष्टि ने पानी से लबालब भर दिया और यह पानी का बोझ सह न पाया और दरक गया, फिर आयी महाविनाशकारी बाढ जो अपने साथ बड़े वेग से सबकुछ बहा ले गयी समूचा केदारनाथ (मंदिर को छोड्कर), बह गया , हरहराता हुआ यह पानी कूल किनारे तोड़ता हुआ मानव निर्मित सभी निर्माणों को बहाता हुआ राम्बाडा आया और यहाँ इसने प्रलय ही मचा दी , मंदाकिनी बगल से ही बहती हैं इसलिए इसमें आयी भयानक बाड ने सभी कुछ ध्वस्त कर दिया, यह बाढ बडे वेग और नीचे आयी और आधे गौरीकुंड को बहा ले गई, वहां से यह नीचे उतरते हुए समूचे सोनप्रयाग को निगल गई, मार्ग में जो कुछ भी मिला उसे लीलते हुए रौद्र रूप में रुद्रप्रयाग पहुंची जहां इसने उफनाई अलकनंदा के साथ मिलकर जो तबाही मचाई उससे सारा उत्तराखण्ड थरथरा गया, ऐसा लगता था जैसे प्रकृति मानव से बदला ले रही हो ।
प्रकृति ने यह विनाशलीला क्यों की यह सोच का विषय है ,कुछ सुझाव निम्नवत हैं, उत्तराखंड की सरकारों को इन्हें अमल में लाना चाहिए :-
१. पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में चीड के पेड़ों की जगह बांज के पेड लगाने चाहिए जिनके पत्ते बडे होते हैं और बरसते पानो को एकदम से ब्हने नहीं देते जबकि चीड के सुई जैसे पत्ते पानी को रोक नहीं पाते और इनके जंगलों में बाढ का खतरा बना रहता है, चीड के पेड़ों के नीचे की भूमि मरुस्थल की तरह होती है तभी बहता हुआ पानी शीघ्र नीचे बह जाता है, इसके विपरीत बांज के पेड़ों के नीचे मोंस (moss) जमी रहती है, पेड के नीचे का पानी जमीन द्वारा सोख लिया जाता है, और बाढ नहीं आती है, सारा पानी वहीं ज़ज्ब हो जाता है ।
२. नदियों के किनारे किसी भी निर्माण को तुरंत रोक दिया जाना चाहिए, क्योंकि बाढ आने पर ये नदियों द्वारा लील लिए जाते हैं जिससे भारी जान माल की हानि होती है ।
३. तीर्थस्थानों को टूरिस्ट स्थान न बनाएं, इन्हें तीर्थ ही रहने दें इससे यहाँ केवल तीर्थयात्री ही आयेंगे और भीडभाड कम रहेगी जिससे जन हानि कम होगी ही साथ ही साथ प्रदूष्ण भी कम होगा ।
४. नदियों का प्राकृतिक स्वरुप बने रहने दें इनसे बजरी रेता का खनन न करें इससे बाढ का पानी बहता हुआ आगे चला जायेगा और स्थानीय निवासी किसी भी विभीषिका से बच जायेंगे ।
५. भूस्व्खलन वाले स्थानों पर निर्माण कार्य अथवा सडक बनाने के लिए डयनामाईट का प्रयोग कदापि न करें , इससे पहाड कमजोर पडते हैं और जमीन को ध्वस्त करते हैं ।
६. नदियों में प्रदूष्ण न करें सारे सीवरों के निष्कासन का अलग से प्रबंध करें इन्हें नदियोप्न में प्रवाहित न करें, पूजा के फूल इत्यादि भी नदियों में प्रवाहित न करें , इससे नदियाँ शुद्ध रहेंगी और हमेशा पूज्य रहेंगी ।
७. ज्यादा कमाने व् शीघ्र अमीर बनने की लालसा को दबाएँ , इसके लिए प्रकृति का अनाप शनाप दोहन न करें , प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ मानव को हमेशा भारी पड़ती है,
८. देवभूमि की पवित्रता को बनाए रखें , इसकी मर्यादा बनी रहेगी तो यहाँ के सभी तीर्थ अक्षुण रहेंगे ।
९ वनमाफियाओं के आतंक से पेड़ों को बचाएं जिससे अचानक आई बाड़ से जमीं के बह जाने का खतरा कम हो सके ।
१0 . अंत में यह कहना भी आवश्यक होगा कि पहाड़ों पर भारी वाहन कम से कम प्रयोग करें इससे सड़को पर कम्पन समाप्त हो जाएगा और भूस्खलन कम हो जायेंगे ।
यह मात्र सलाह है इसका मानना न मानना अधिकारियों के हाथ में है ।
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