Monday, 24 June 2013

I C U से .................नंबरगेम

I C U  से .................

नंबरगेम 
अस्पतालों में सामान्यत: भीड़ भाड़,शोरगुल बना रहता है  । जनरल वार्ड में लोगों की भागमभाग मची रहती है मरीज व् अनके परिजन हर दम व्यस्त दिखलाई देते हैं । केवल डाक्टर के राउण्ड पर थोडी चाक चौकस व्यवस्ता रहती है, उस समय नर्सें ऊघती नहीं हैं साफ़ सफाई बनी रहती है , तीमारदारों को भीतर नहीं  घुसने दिया जाता है , डाक्टर साहब चेहरे  पर खामख्वाह गंभीरता ओढे रहते हैं,  अपने गले पर आला लटकाए फिरते हैं, बेड के ऊपर लगे चार्ट पर सरसरी निगाह डालते हुए नर्स को हिदायत देते रहते हैं , उनके जाते ही जन सैलाब उमड़  पड़ता   है और  धक्कम पेच शुरू हो जाती है । 

आई सी यू में यह सब नहीं चलता, एक तो पूरा वार्ड शीशे के पैनलों से बंद रहता है, उस पर वातानुकूलित व्यवस्ता होती है, नर्सें खासी गंभीर मुद्रा बनाए रहती हैं सन्नाटा पसरा रहता है, उनके चलने की सरसराहट या मरीज के कराहने की ही आवाज सुनाई देती है, आई सी यू के अधिकतर मरीज बोलने की स्थति में नहीं रहते या किससे बोले और क्या बोले इसी उधेड़बुन में चुपचाप पडे रहते हैं, बेहिस बेजान छतों, दीवारों को ताकते हुए समय गुजार देते हैं, मेरे  लिए  ये सब नया अनुभव था, अस्पताल जरूर गया था पर कभी स्वयं भर्ती  नहीं हुआ था, पर आज तो आई सी यू में भर्ती  था, पहले दिन यूं कुछ बेहोशी सी थी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि यहाँ क्यों लाया गया हूँ, पर दूसरे दिन सुबह जब गीता आई तो मैंने हाल चाल पूछा तो उसने बताया कि मेरे भाई बहिन व् उनका परिवार बाहर कारीडोर में डेरा डाले हुए है, बारी बारी से सबकी ड्यूटी लगी हुई है, चूंकि हर एक को अन्दर नहीं आने दिया जा रहा है इसलिए वे बाहर से ही हालचाल पूछ रहे हैं, भीतर आने के लिए मेंन  गेट पर एप्रन पहनाया जाता है , तभी भीतर आने दिया जा रहा है । सारा दिन उदासी सी छाई रही मन में सोचता कि देखो आशियाना में मकान यूं ही छोड  आये, गार्ड भी नहीं लगा पाए , गुड्डू को ठुल्दाज्यू के पास छोड कर आये हैं, इन्हीं चिंताओं से रात भर नींद नहीं आई, रात में एक नंबर पर भर्ती बुढिया चीखती रही और सुबह मैंने हलचल सुनी तो नींद टूटी तो पाया कि उसके परिजन बिलख रहे हैं वो सिधार चुकी थी, अस्पताल वालों ने आनन् फानन में शव को बिस्तर से उतारा और परिजनों के हवाले कर दिया, फिर तुरंत ही नई चादर बिछा दी . बेड नए मरीज के लिए तैयार था, मुझे वितृष्णा होने लगी , क्या यही जीवन है ? 

मेरी बेड संख्या सात थी दीवार की साइड में एक बडी खिडकी थी जहां से बाहर का नज़ारा दिखता था, लेटकर देखने पर चढ़ता हुआ पुल ही दीखता था जिस पर गाड़ियां चढ़ती उतरती दिखाई देती थीं मेरे बगल  में बेड नम्बर आठ पर एक मिश्रा जी भर्ती थे , उन्हें डेंगू था,उनका  बड़ा बेटा रोज चला आता था और उनकी प्लेटलेट्स  की रिपोर्ट लाता था , मिश्रा जी से मेरी बात तो  नहीं होती थी,  , उन लोगों को यह भान भी नहीं था कि बगल में भी  कोई  है और  मैं वो सब सुना   करता था, बेटा हमेशा अपने भाई की बुराई करता रहता था कि पापा देखो वो  आपको देखने भी नहीं आता में तो ऑफिस से छुट्टी ले कर आपकी तीमारदारी में लगा हुआ हूँ, शायद प्रापर्टी का कोई मसला था जिसकी वजह से ये वार्तालाप होता था । मिश्राजी चूंकि नीम बेहोश नहीं थे इसलिए हमेशा दिन में जगे रहते थे वो बेचारे बातचीत करना चाहते थे पर किससे करें, मेरी और टकटकी लगा कर देखते थे, दूसरे दिन मैंने  उनसे सहज ही पूछ लिया कि वो क्या करते हैं उन्हें यह बीमारी कब से है, वो तत्परता से वार्तालाप में शामिल हो गए और बताने लगे कि जैसे ही उनकी प्लेटलेट्स बढ जायेंगी उन्हें छुट्टी दे दी जायेगी । शाम ढलने लगी थी कुछ लोग मुझे देखने आये , फिर अस्पताल का मरीजी खाना मुझे दिया गया, केण्टीन का इंचार्ज द्वाराहाट का था वो मुझसे सहज ही स्नेह रखने लगा, चाय के साथ दो बिस्कुट ही मुक़र्रर थे पर वह चार दे देता, या सुबह थोडा गाढी दाल दे देता, उस रात तीसरे नम्बर के बेड का मरीज चल बसा, वही हलचल हुई और बेड फिर से तैयार कर दिया गया, दूसरे दिन उस बेड पर सचिवालय के कोई प्रभावशाली व्यक्ति को भर्ती किया गया जिनसे मिलने के लिए दिन भर लोगों का तांता लगा रहा, चूंकि वे सरकारी आदमी थे इसलिए उनके तीमारदारों से अस्पताल प्रशासन भी कुछ नहीं बोल पाता था , जैसे अपना सारा आफिस ही वो आई सी यू में उठा लाये थे, मिश्राजी मुझसे बोले कि देखिये कितना अन्याय है हमारे तीमारदारों को सब रूल्स बताये जाते हैं पर इनसे कोई कुछ कहने वाला नहीं है । 

तीसरे दिन सुबह से ही गहमागहमी बनी हुई थी पांच नम्बर बेड के मरीज की हालत बिगड रही थी , उसके आक्सीजन लगी हुई थी और वेंटीलेटर पर लगाने की व्यवस्था की जा रही थी, तीमारदार स्टाफ़ नर्स से उलझे हुए थे जो उनसे वेंटीलेटर और आक्सीजन सिलेण्डर के पैसे  जमा करने को कह रही थी , फिर अचानक ही मरीज ने अंतिम सांस ली और चल बसा । शव के जाने के बाद पूरे वार्ड में सन्नाटा सा पसर गया था, केवल नर्सें रुटीन में अपना काम कर रहीं थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो, मुझे सुई लगाने पहुंची नर्स से मैंने कहा तुम लोगों पर इसका असर नहीं पड्ता तो वो कहने लगी कि यदि यह सब सोचने लगें तो अपनी नौकरी नहीं कर पाएंगी ।उसकी इस बात ने मुझमें बहुत परिवर्तन आया मैंने सोचा कि जिन्दगी को भी इसी रूप में लेना चाहिए, जो होना है वो तो होगा ही उस पर हर समय शोक क्या करना ? मैंने गीता से कुछ कागज़ मंगवाए और उन पर छोटी  छोटी कविताएं, शेर लिखने लगा नर्सें मुझे गौर से देखतीं और मेरे सो जाने पर मेरे सिरहाने रखी कविताएं पढा करतीं,धीरे धीरे मेरी दाढी  बढने लगी और चेहरा भयावह लगने लगा , मेरी ब्लड शुगर नापने आई नर्स ने मुझसे कहा बाबा दाढी बनवा लो, उसी समय मैंने एक शेर गढ दिया, 

" मेरी सूरत पे फैली ये हैवानियत न देख,
पके बाल बढी दाढी, आँखें लाल न देख,
नूर को देख जो है नेमते इलाही,
चहरे पे मेरे रूमानियत तो देख "

शाम को मिश्रा जी बहुत उदास से थे मेरे कई बार टोकने पर  भी कुछ नहीं बताते थे, मैंने जब खुद सवाल का उत्तर देते हुए कहा कि आप शायद  अपने बेटों की वजह से परेशान हैं, पर वो बोले ऐसी बात नहीं  है देखिये पहले दिन एक नम्बर के बेड वाला दूसरे दिन तीन नम्बर बेड वाला, तीसरे दिन पांच नम्बर बेड वाला मरीज चल बसा है, यह एक नम्बर लांघ कर आ रहा है, मुझे आपकी चिंता सता रही है, इतने दिनों मे, आपसे मित्रता हो गई है, वो ख्याल आते ही कलेजा मुंह को आता है,  मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है यह सब एक संयोग है, यदि विधि को मंजूर होगा तो ऐसा ही सही, पर यह सब सोचकर क्या घबडाना ? मन में थोडा उथलपुथल घर कर गई, क्योंकि दिन में डाक्टर से मैंने पूछा था कि आखिर मुझे क्या बीमारी है तो वह बोला कि , हम समझते थे कि आपका हार्ट सिंक कर रहा है कल आपका बेड साइड  एक्सरे  किया जाएगा और फिर ई सी जी भी किया जाएगा, मैं अंदर से इतना घायल हूँ ये मैंने सोचा भी न था . खैर, ये सोचकर कि" नाचणि  खेलणि सामुणि आलि  " मैं सो गया, सुबह किसी ने मुझे हिलाया तो मैंने देखा कि मिश्राजी मुस्कुरा रहे हैं वे बोले आपको तो इतनी गहरी नींद आई थी कि आपने कुछ सूना ही नहीं , देखिये पांच से उछलकर कल रात वह तेरह नम्बर पर पहुँच गया, उस पर भर्ती डेगूं वाला मरीज चल बसा, राहत की सांस लेते हुए बोले भाई साहब मुझे इतनी  ख़ुशी  हो रही है कि मैं बयान नहीं कर सकता  । उनकी इस बात पर मेंने  ज्यादा तवज्जो नहीं दी और  मुंह घुमा लिया  । 

डाक्टर की सलाह पर आज मुझे खून चड़ना था , पुनीत इधर से उधर अस्पताल के ब्लड बैंक के चक्कर लगा रहा था पर मेरे ग्रुप का खून शायद मिल नहीं रहा था, स्टाफ़ नर्स ने सलाह दी कि यदि कोई खून देने वाला हो तो ब्लड बैंक में जाकर दे दे और इनके ग्रुप का खून बैंक से ले आये, बाहर कारीडोर में लोगों में इस बात पर बहस हुई होगी  तभी हमारे दामाद  ( पम्मी के पतिदेव ) ने अपना खून देना सहर्ष स्वीकार कर  लिया, पर इस प्रक्रिया में देर हो रही थी इसलिए तुरंत ब्लड चडाने के लिए किसी दाता  की जरूरत थी, तभी मेरा भांजा रिशू आया और वह  छोटा सा बच्चा  मुझे खून देने को तैयार हो गया , नर्स ने लगातार दो बोतल खून चढाया और इस प्रकार मैं दोनों का उरिणी  बन गया  । शाम को नन्दाज्यू व् शद्दाज्यू मुझ्र देखने आये , उन्होंने डाक्टर से मेरा हाल पूछा , इंगलैंड  से भतीजी विनीता ने भी डाक्टर से हाल पूछा और किये जा रहे इलाज पर चर्चा की , डाक्टर के राउण्ड  के बाद जब दोनों भाई मुझसे मिलने आये तब छह नम्बर के बेड पर भर्ती मरीज आखरी साँसें गिन रहा था और देखते ही देखते उसने प्राण त्याग दिए, चूंकि यह बेड बिलकुल मेरे बेड के सामने था तो शद्दा बोले कि डरना नहीं अस्पतालों में यह चलता रहता है , मैं मुस्कुरा दिया । उन लोगों के जाने के बाद मैंने मिश्रा जी से बात करनी चाही तो देखा कि वो सो चुके थे, बाद में खाना खाकर में भी सो गया, आधी रात में मुझे सुबकने की आवाज सुनाई पड़ी तो मैंने देखा कि मिश्रा जी अपने बेड पर बैठे हुए हैं और सुबक रहे हैं, मैंने उनसे पूछा कि क्या हो गया है तो  वे  बोले आज नम्बर छह  था कल आठ होगा, मैंने उन्हें डपट दिया और बोला कि क्यों इस पर दिमाग खपाते हो चुपचाप सो जाओ हमारी बात सुनकर मेल स्टाफ़ नर्स वहां आया और पूरी बात सुनने पर उन्हें नीद की गोली दे गया । 

दूसरे दिन फिर आँख देर से खुली, देखा तो मिश्राजी चाय व् बंद मक्खन खा रहे हैं , शुभप्रभात कह कर मैंने  कहा  कि रात नींद आई तो वे बोले भाई साहब  आप हिम्मत देते रहते हो तो प्राण  में प्राण  हैं, देखिये कल रात नौ नम्बर वाला निकल गया । मैंने उनसे कहा  कि मिश्रा जी प्रथम तो ऐसा कुछ भी नहीं होता है  अगर हुआ भी तो श्रीमदभगवत गीता मैं भगवान् ने कहा  ही है कि 

" जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु , ध्रुवं जन्म मृतस्य च ,
तस्मा द्वौ   अपरिहार्येते,  तत्र  का  परिवेदना ? " 

( जो जन्मा है उसकी मृत्यु अटल है, और जो मर गया है उसका जन्म निश्चित है, ये दोनों अपरिहार्य हैं इसलिए इन पर वेदना  कैसी  ? )

और इसके बाद अस्पताल से जाने के दिन तक मिश्राजी कभी नम्बर गेम  नहीं खेले  । 

इति 


  

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