बाबू
(This blog was due for post on Father's Day but it could not be posted due inavailability of net connection............)
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आज ' फादर्स डे ' है , बच्चों ने इस अवसर पर याद किया, बडी सुखद अनुभूति हुई , बरबस ही बाबू याद आ गए , आज जब हमारे पुत्रों के समवयस्क बच्चे अपने अपने पिताओं को इस अवसर पर बधाइयां दे रहे हैं उनके लिए उपहार इत्यादि ला रहे हैं तो मुझे महसूस हुआ कि हमारे वक्त में यदि ये प्रचलन में होता तो हम क्या करते, शायद बाबू पूरे प्रकरण को सहजता से लेते और मुस्कुरा कर रह जाते |
ग्राम वर्षायत, बेरीनाग जिला पिथोरागढ़ तत्कालीन उत्तर प्रदेश में पं भवानी दत्त जी के कृपाधाम में दि . ३ मार्च 1920 को पूज्य बाबू का जन्म हुआ ,कई विफल प्रसूतियों के पश्चात उनका आगमन हुआ था इसलिए शैशवावस्था से ही वे अनुपम थे , लम्बी ग्रीवा, लम्बे कान, उन्नत ललाट श्यामल वर्ण ,ओजस्वी वाणी उन्हें अन्य बालकों से अलग करती थी \
बचपन वर्षायत ग्राम में खेलते कूदते बीता, फिर अध्यावासन का समय आया तो बेरीनाग के स्कूल में भेज दिए गए, प्रात : काल बड़ी भोर में उठ जाते, नहा धो कर अपने समकक्षों के साथ मुंह अँधेरे बेरीनाग के लिए निकल जाते, डर न लगे इसलिए बडबाज्यू छिरूल ले कर उन्हें चडाई के टुक्के तक छोड़ आते जहां से बड्बाज्यू ये कह कर लौटते कि " जा च्याला जा अब रात ब्या गे", शाम को बेरीनाग से लौटते ओर घर पहुँच कर संध्या वंदन कर छिरूल की रोशनी में अपना पाठ याद करते , इसके अतिरिक्त जानवरों को पानी देना,बड्बाज्यू के साथ खेती में हाथ बटाना ये भी शामिल था , बेरीनाग से मिडिल करने के पश्चात उन्होंने आगे की पढ़ाई अल्मोड़ा से करने ,की ठानी, चूंकि पढ़ने की लगन थी इसलिए बड्बाज्यू ने भी हामी भर दी , वर्षायत से अल्मोड़ा पैदल मार्ग था जिसमें अंग्रेजों के शासन काल में गोरे घोड़ों से आया जाया करते थे या व्यापारी लोग खच्चरों से सामान लाया करते थे, पहला पड़ाव शेराघाट हुआ करता था जहां एक सराय थी सराय का मालिक भोजन बनाने के लिए बर्तन ईंधन मुहैय्या कर देता था, भोर में वर्षायत से चलकर शाम ढले इस सराय में पहुंचते भोजन इत्यादि के पश्चात रात्री विश्राम करते और सुबह आगे की यात्रा शुरू होती फिर शाम को अल्मोड़ा अपने किराए के क्वार्टर में पहुंचते फिर दूसरे दिन स्कूल, महीने के पश्चात वापस वर्षायत आते और पुन : अगले माह का राशन ले कर चल देते। यह उत्कट जिजीविषा उनके जीवन में कूट कूट कर भर गयी , वे हाईस्कूल के पश्चात नौकरी करने अस्कोट गए सारा रास्ता पैदल चल कर बाद में कानपुर गन फैक्ट्री में नौकरी करने लगे, उन्होंने इन सभी दूरियों को सहजता से लिया बाद में रानीखेत के चौबटिया गार्डन्स में बीस रूपये प्रतिमाह पर नौकरी करी जो बाद में उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि विभाग के अंतर्गत आता था ।
बाबू में सहजता, निर्भीकता और अनुशासन का अद्भुत समावेश था , वे हर चीज को बड़े गौर से देखते समझते और उसके बारे में जानकार लोगों से पूछते, बड्बाज्यू सिंगर कंपनी में सेल्समैन थे उस युग में वे बम्बई गए पर विकट ब्राह्मण होने के कारण खान पान की दिक्कतों की वजह से वे वापस आ गए कुछ सिलाई की मशीनें भी साथ ले आये, सिलाई मशीन खराब होने पर वे उसे दुरुस्त कर देते उनसे ही बाबू ने यह विद्या सीखी, मुझे याद है जब हमारे घर में पहली सिलाई की मशीन आई तो शायद ही उसे ठीक करने के लिए मैकेनिक के पास ले जाना पडा हो । बाबू को संगीत पसंद था, उन्होंने हारमोनियम खरीदी एक हारमोनियम गाइड भी ले आये, हारमोनियम की रीड्स पर नंबर लिखे तथा उसे देख देख कर बजाने लगे, चूंकि इसके लिए किसी गुरु से तालीम नहीं ली थी इसलिए पूरा सीख नहीं पाए चौबटिया के उस निर्जन स्थान में उन्होंने अपने सभी शौक पूरे किये उस समय उन्होंने ग्रामाफोंन/ बैटरी चालित रेडियो तक खरीदे ।
शायद कम लोगों को मालूम होगा कि बाबू शास्त्रीय संगीत में भी दखल रखते थे, डालीगंज में पर्वतीय बंधू परिषद् के कलाकारों में एक जोशी जी इस विधा में पारंगत थे बाबू उनके पास बैठ जाते यद्यपि वे गाते नहीं थे पर होली किस राग में गाई जा रही है पहचान जाते, एक बार उन्होंने जोशी जी से कहा कि कल्याण राग में कुछ सुनाओ, जोशी जी हैरान रह गए बाद में मुझसे कहने लगे यार तेरे बौज्यू तो बहुत कुछ जानते हैं, गाँव में खडी होली में वे सभी के साथ गाते और स्वांग करने में माहिर थे, उनके द्वारा निभाये गए स्वांग बड़े प्रेक्टिकल होते थे और लोग बड़ी जिज्ञासा से उनकी बारी का इन्तजार किया करते, एक बार वे लखनऊ से " चुरराईट - मुर्राइट " बना कर ले गए जिसमें एक बांस के खोखले डंडे को भीतर से हमवार करके छर्रे से धागा बाँध कर ऊपर के छेद से बाहर निकाल दिया जाता और टेढा करने पर छर्रे के बल से धागा ऊपर नीचे होता , गाँव वालों ने यह करतब कभी नहीं देखा था, बाबू हर किसी के पास जाते और किसी के कान के पास डंडे को छुवाते , चुरराईट कहते , धागा गायब हो जाता और मुर्राइट कहते डंडा सीधा करते तो धागा वापस आ जाता , इस तरह के अजीबोगरीब करतब वे दिखाया करते, सभी को उनका इंतज़ार रहता, वो महफिलों की शान थे, तभी तो कहते हें कि " चिरागों के तय नहीं होते मुकाम , जहां रख दीजिये रोशनी बिखेरते हैं " वो जहां भी जाते , जहां भी बैठते, महफिलें उनके अहसास से भरी रहतीं । गाँव के होली समाज के लिए उन्होंने दो पैट्रोमैक्स भी खरीदे, ग्राम समाज के लिए अपनी अल्प आय से उन्होंने बर्तन इत्यादि खरीदे, वे इतने फक्कड़ स्वभाव के थे कि अपनी खरीदी हुई चीजों को जरूरतमंदों में बाँट दिया करते , जब देखा कि मोहन दाज्यू को गाने का शौक है तो उन्हें अपनी हारमोनियम गिफ्ट कर दी ।
लोगों में तरगें उठती हैं तो लोग ऐसे कृत्य करते हैं पर बाबू तो समुद्र थे , उनमें बहुत गहराई थी , जो उनको समझ पाया वो उनसे कुछ न कुछ ले ही गया, चूंकि : सामुद्रो हि तरंग: क्वचन समुद्रो न तारंग: " ( तरंगों से समुद्र नहीं बनता वरन समुद्र ही तरंगें पैदा करता है ) जैसे समुद्र किसी से कुछ नहीं लेता बल्कि अर्पित चीजें किनारे पर लहरों से वापस भेज देता है वैसे ही बाबू भी सभी को कुछ न कुछ दिया ही करते, अपनी अल्प आय में उन्होंने छो टे चाचा जी को गाँव से बुलाकर पढ़ाया और वे हमारे गाँव के पहले स्नातक बने, कोई न कोई गाँव से चौबटिया आता रहता बाबू नि : संकोच हर एक की सहायता करते सच ही कहा है कि " दिलवालों के पास धन नहीं होता और धनवान के पास दिल नहीं होता," , सात बेटे और तीन बेटियां सभी को नि :स्पृह भाव से देखा , उन्होंने कभी घर की फिक्र भी नहीं की , ऑफिस के काम से निकल जाते तो कई दिन बाद लौटते । किसी भी परिस्थति में वे घबडाते नहीं थे , वे "स्थतिप्रज्ञ" थे ।
बाबू गज़ब के किस्सागो भी थे , उनकी किस्सागोई इतनी बेहतरीन होती थी कि लोग पूरे मनोयोग से उसे सुनते,उनके सुनाये हुए कई किस्से हैं जो समय आने पर प्रस्तुत करूंगा । उनको अपनी भाषा शैली पर पूरा कमाण्ड था । शब्दों की पकड वाक्यों का सामयिक चयन वाणी में ओज सभी अतुलनीय थे ।
बाबू गज़ब के किस्सागो भी थे , उनकी किस्सागोई इतनी बेहतरीन होती थी कि लोग पूरे मनोयोग से उसे सुनते,उनके सुनाये हुए कई किस्से हैं जो समय आने पर प्रस्तुत करूंगा । उनको अपनी भाषा शैली पर पूरा कमाण्ड था । शब्दों की पकड वाक्यों का सामयिक चयन वाणी में ओज सभी अतुलनीय थे ।
नन्दाज्यू ने उन्हें तथा अन्ना को इग्लैंड बुलाने के लिए हवाई जहाज का टिकट भेजा, पर बिना वीजा के कैसे जाते, वे अकेले दिल्ली गए, ब्रिटिश एम्बेसी में वीजा के लिए इंटरव्यू दिया, जहां उनसे अधिकारियों ने सवाल किया कि "we doubt that you will get your daughter married in England " बाबू ने सहजता से कहा कि "If I get a suitable match for my deaf & dumb daughter, than definitely I will get her married there, please do not allow any doubt in your mind, if it happens than what is wrong ? " अंग्रेज वीजा अधिकारी उनकी स्पष्ग्ट्वादिता पर हैरान हो गया और तुरंत ही वीजा जारी कर दिया ऐसे थे हमारे बाबू जो एक गूंगी बहरी लडकी को लेकर विदेश चले गए तब उनकी उम्र सत्तर वर्ष के करीब रही होगी । मास्को में उनकी फ्लाइट लेट हो गई , इन लोगों को एक होटल में टिकाया गया, भूख लगी हुई थी भाषा की भी समस्या थी ,पर वे बिलकुल नहीं घबडाये और इशारों में ही ब्रेड मक्खन मांग लाये और दोंनों लोगों ने उदरस्त किया, वहां हीथ्रो हवाई अड्डे पर बेचारे नन्दाज्यू हलकान हुए पडे थे । इंग्लैंड में भी वो खाली नहीं बेठे , नन्दाज्यू के साथ गार्डनिंग में हाथ बट़ाते , उनसे फूलों के कई बल्ब मंगाए , उन्हें सलीके से बोया , मूली बोई , जिसे बाबू के वापस लौटने के बाद नन्दाज्यू लोग उपयोग करते रहे और याद करते रहे, ऐसे ही उन्होंने द्वाराहाट में भी किया, शद्दा वहां गोचर में P H C के इंचार्ज थे उन्हें आफीसियल मकान मिला हुआ था जहां काफी जगह थी, बाबू ने वहां तरह तरह के फूल व् सब्जियां उगाएँ , शड्दा कहते अरे बाबू ये क्यों कर रहे हैं कल मेरा ट्रांसफर हो जाएगा तो ये सब बर्बाद हो जाएगा, पर बाबू ने कहा बेटा कोई भी चीज बर्बाद नहीं जाती, तेरा ट्रांसफर हो जाएगा तो जो दूसरा आयेगा वो खायेगा, ऐसे महान विचार थे बाबू के। R D S O में ठुल्दाअज्यू के आवास में भी उनके साथ इस प्रकार के क्रियाकलापों में व्यस्त रहते, खाली बैठना तो उन्होंने जैसे सीखा ही नहीं था, मेरे आवास में छत पर ही उन्होंने बगीचा बना लिया था, कितने ही गमले खरीद कर लाये, जब मेरा पीछे का हिस्सा बन रहा था उस समय बचे हुए सीमेण्ट से उन्होंने गमले बना डाले ऐसे क्रियेटिव थे बाबू । क्रिकेट का शौक उन्हें गजब का था , दुनिया जहाँ में कहीं भी मैच हो रहा हो सुबह से ही नहा कर तैयार हो जाते फिर कहते बहू मेरे को नाश्ता दे दो मुझे आस्ट्रेलिया (या जहाँ कहीं भी मैच हो रहा हो ) जाना है । जब कभी भी दामाद आते तो उनसे क्रिकेट पर चर्चा जरूर करते , जोशी जी तो खैर खिलाडी ही हैं पर डाक्टर अशोक के क्रिकेट शौक को देखते हुए उनसे भी इसी विषय पर बतियाया करते, यद्यपि डाक्टर दामाद बतियाने में थोड़ा कंजूस ही हैं ।
बाबू शलाका पुरुष थे, मनीषी थे , अल्मोडा में उन्हें पंतों का वंश वृक्ष मिला , वे इसे देखकर और इसके क्रियेता की मेहनत को देखकर इतने अभिभूत हुए कि इसे मांग लाये और इस पर और आगे काम करने की ठान ली, आशियाना से अल्मोडा निकल जाते, वहां से पंतों के मूल निवास गाँव गाँव जाते और वंश बेल के बिखरे हुए सिरों को जोडते, वो जहां भी गए उन्हें सत्कार मिला कई जगह तो उन्हें पैदल ही जाना पडा पर उन्होंने इसकी परवाह भी नहीं की , सारे बिखरे हुए सिरों को इकठ्ठा किया फिर आशियाना आ कर इसको संवारना शुरू किया , पन्त कहाँ से आये वे पहाड़ों में कहाँ बसे, वहां से कहाँ गए, उन्होंने इस बेल को सिरे चढाया और आश्चर्य होता है कि इसके कुछ सिरे नेपाल और पकिस्तान तक फैले हुए हैं , है न अद्भुत !! क्या कोई इंसान अपने जीवन काल में इतना सृजन कर सकता है, निश्चय ही इसके लिए गजब की मनन शीलता, साहस और लगन की आवश्यकता होती है, उनकी जीवटता रंग लायी और उनकी पुस्तक " पुरुख "
आकार लेने लगी और फिर सामने आया वो वृहद रचनाकर्म जिसे देखकर / पढ़कर सभी आश्चर्यचकित रह गए , इस व्यापारिक जमाने में लोगों ने उनकी इस कृति को अपने लाभ के लिए फोटोस्टेट करा लिया और अपने हिसाब से इसका उपयोग करने लगे, मुझसे कहा करते देखो मैंने इतना कर दिया है कि अब आगे आने वाले समय में लोगों को इसमें अपने बच्चों के ही नाम जोडने पड़ेंगे , उनकी इस रचना को खरीदने के लिए सुदूर स्थानों से लोग आते या V P P से मंगवाते , बहुत बाद तक जब तक प्रतियां उपलब्ध रहीं वे भेजते रहे , अपनी सारी पेंशन उन्होंने इस कार्य पर लगा दी थी, व् कभी धन संचय नहीं किया उनके समतुल्य लोग उनसे पूछते आपने अपने जीवन में क्या बचाया है, क्या बनाया है तो वे कहते मैंने सात पुत्रों को जन्म दिया है हरेक को उसके लायक शिक्षा दी है यही बनाया है यही बचाया है " अब पूत सपूत तो क्या धन संचय और पूत कपूत तो क्या धन संचय "

कई बार ऐसी भी परिस्थतियाँ आई जब वो विचलित हुए जैसे जीवन संगिनी का अचानक बिछोह , या कतिपय पुत्रों का मनमानापन , पर वे सदा ही मजबूती से खडे रहे, उन्होंने किसी भी पुत्र की बुराई नहीं की वो अत्यंत क्षमाशील थे , किसी के लिए भी उनके मन में कोई भी दुराव नहीं था । उनके इस स्वभाव को कनूका ने आत्मसात किया , जब बाबू के चाचाजी ( कनूका के पिताजी ) का स्वर्गारोहण हो गया तो उन्होंने बाबू को गाँव से चिठ्ठी लिखी कि वे आगे पढना चाहते हैं तो बाबू ने उन्हें बुला लिया, तब परिवार में बाबू के अलावा ठुल्दाज्यू ही कमाते थे उनकी आय भी साधारण थी बाकी सभी पढने वाले थे, बाबू ने कनुका से कहा कि जैसे हम रहते हैं जैसे खाते हैं वैसे ही तुझे रहना होगा, हम सभी भाइयों के साथ कनुका भी पढ़ते, सुबह ईजा उन्हें जगा देती वो स्नान कर पिता का तर्पण करते थोडा नाश्ता करते और पैदल ही डालीगंज से अमीनाबाद स्नातक की पढाई करने चले जाते कभी कभी हम में से कोई यदि जल्दी उठ गया तो उनको साइकिल से छोड आते, बाबू ने उन्हें अपने आफिस में क्लर्क लगवा दिया था , स्कूल से वो आफिस जाते और फिर शाम को बाबू के साथ वापस आते उनका लंच बाबू ले जाया करते थे , कनूका जीवन पर्यन्त बाबू को अपने पिता की तरह मानते थे , जब कभी बाबू लालबाग जाते तो कनुका उनसे रुकने को कहते स्वयं उनका बिस्तर लगाते , सुबह चाय लेकर खुद ही देते , जबकि घर में कई नौकर चाकर थे , उनकी इस भ्रात्रू प्रेम को भगवान् ने भी समझा जब बाबू वर्ष 2006 में विस्मृति की बीमारी से संज्ञाहीन हो चुके थे , अब - तब की बात थी, अचानक ही कनूका का स्वर्गवास हो गया, हम सभी हतप्रभ थे उस दिन, सारा दिन हम लोग वहीं रहे शाम को क्रियाकर्म के बाद लौटे तो बाबू अपलक हमें ताक रहे थे वे तब न कुछ बोल पाते थे न चल पाते थे, मैंने स्लेट पर लिख कर यह दू : ख़ द घटना उन्हें बताई , उनकी आँखों से आंसू टपक पडे , और उन्होंने मुंह
घुमा लिया , और फिर कुछ दिन बाद बाबू ने भी प्राण त्याग दिए ।
घुमा लिया , और फिर कुछ दिन बाद बाबू ने भी प्राण त्याग दिए ।
बाबू जल्दी ही किसी से भी प्रभावित नहीं होते थे , हाँ हर किसी की प्रतिभा का बयान जरूर करते, पोतों में मोनू की जिजीविषा, बबलू का अपनापन, संदीप का भोलापन , पुनीत की सज्जनता, विभोर की सहजता और उनके प्रिय विषय गायन , पीयूष की स्पष्टवादिता के वो कायल थे, बच्चों से उन्हें बहुत ममता नहीं थी पर जलज आशीष और तन्नु से वे विशेष प्रेम करते थे, लड़कियों, पोतियों के बारे में कहते ये दूसरे घर की अमानत हैं इन्हें सहेजकर रखो, भांजे भांजियों को तदनुसार लाड करते, सभी को एक समान भाव से डांटते , बहुओं के लिए एक Yardstick बना रखी थी कि जो अच्छा खाना खिलाती उससे प्रभावित रहते, पार की छोटी आमा
उनसे व्यंग करते हुए कहती " हला मोहन, तेरि को ब्वारि तेरि बाक़ि सेवा करें ? " बाबू भांप जाते और सहजता से कहते मेरे लिए सभी समान हैं जहां जाता हूँ , जहां रहता हूँ वही मेरा घर होता है मेरे इतने घर हैं जहां चाहूँ चला जाता हूँ, वे लोग बाबू को कभी न डिगा पाए न उनको समझ ही पाए । दोनों दामादों को बहुत पसंद करते थे, लालू से विशेष प्रभावित थे कहते थे कि देखो कितनी कम उम्र में इसने बढिया मकान बना लिया है. छब्बन के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया उसके लिए हमेशा चिंतित रहते थे,
उनसे व्यंग करते हुए कहती " हला मोहन, तेरि को ब्वारि तेरि बाक़ि सेवा करें ? " बाबू भांप जाते और सहजता से कहते मेरे लिए सभी समान हैं जहां जाता हूँ , जहां रहता हूँ वही मेरा घर होता है मेरे इतने घर हैं जहां चाहूँ चला जाता हूँ, वे लोग बाबू को कभी न डिगा पाए न उनको समझ ही पाए । दोनों दामादों को बहुत पसंद करते थे, लालू से विशेष प्रभावित थे कहते थे कि देखो कितनी कम उम्र में इसने बढिया मकान बना लिया है. छब्बन के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया उसके लिए हमेशा चिंतित रहते थे,

और वे शिवतत्व में समालीन हो गए ...................................
incredible!
ReplyDeleteTruly incredible! <3 mama proud to be his naati & your nephew :)
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