ईजा शब्द मराठी के आई शब्द का ही अपभ्रंश है, अधिकाँश पर्वतीय समाज महाराष्ट्र के कोंकण तथा अन्य जिलों से मुस्लिमों के आतंक से पलायन कर पहाड़ों में आ कर बसे, वे विद्वान और कर्मकांडी थे इस लिए स्थानीय राजाओं ने उन्हें जागीरें दे कर बसाया था ऐसा लगता है कि आई शब्द धात लगाते लगाते ( पुकारते पुकारते ), ओई बना फिर सांस को विराम देने के लिए अवरोह में ज का समावेश हुआ होगा जैसे ओ आई , या ओ ई या ओ ईज , जो भी हो हर पर्वतीय के लिए ईजा मातृत्व का एक अवलंबन है जहां चोट लगने पर या किसी भी मुसीबत में सबके मुंह से बरबस ही निकल जाता है ।
आज "मदर्स डे " है , सारे विज्ञापनों में " मां " की महानता का गुणगान हो रहा है, पूरा मार्किट अपने उत्पाद बेचने के लिए " मां " का सहारा ले रहा है,, कपडे, मिठाइयां ,गहने क्या क्या नहीं हैं बेचने के लिए ? प्रसून जोशी 'तुझे सब पता है मेरी मां , कह कर लोगों की आँखें नम कर रहे हैं , सारा माहौल मां -मय हो रहा है ]
( यह लेख मैंने मदर्स डे पर लिखना शुरू किया था पर ईजा का जीवन वृत्त इतने कम समय में कैनवस पर नहीं उतर सकता, अब भी यह अधूरा ही है, महान लोगों का जीवन वृतांत महान ही होता है )
ऐसे में मुझे ईजा की याद आ रही है, कलावती सचमुच कलाओं का भंडार थीं , सारा जीवन कौतूहल भरा रहां, में यह सोचता हू कि एक मनुष्य अपने जीवन में इतनी विविधता कैसे ला सकता है,वो संयमी उदारमना, मृदुभाषी, तार्किक , हज़िरजवाब, गीत -संगीत, नृत्य सभी विधाओं में पारंगत थीं यहाँ तक कि स्वांग करने में भी उनका कोई सानी नहीं था , कुमाउनी किस्से कहानियाँ, सामयिक चुटकुले तो जैसे उनकी जुबान पर रहते थे , इंसान की खूबियों को देखते हुए उनके निक नेम रखना तो जैसे उनके बाएं हाथ का काम था , उनके धरे गए निक नेम चुटीले, सटीक और यादगार होते थे , इतनी कलाएं एक व्यक्तित्व में मिलना कठिन है,
हमारी पारवारिक पृष्ठभूमि साधारण ही थी, पिताजी गाँव से निकल कर शहर में नौकरी करने वाले शायद हमारे गाँव के पहले व्यक्ति थे,ग्रामिण परिवेश से शहरी वातावरण में सामंजस्य बिठाना कोई सरल काम नहीं था, लेकिन पिताजी के कदमों से कदम मिलाते हुए उन्होंने उनको कभी भी यह भान नहीं होने दिया वो सदा हर परिवेश में फिट हो जाती थीं , हम सात भाई और तीन बहनें, इतना बडा परिवार एक पिताजी की आय से मां ही चला सकती थीं , "पार" की छोटी आमा उनकी सहेली थीं , दोनों सास बहू साथ साथ जंगल में घास काटने जाया करतीं, आपस में चुहुल बाजी होती एक दूसरे का दू:ख दर्द बांटा करतीं , आमा सदा ही कहतीं " तेरि इजलि कसि कै पालि हुनाला तुम नानतिन, जस चड आपुण प्वाथन कणि पान्खन में लुकै रखों उसीकै पालि भया"" । सच में ईजा ने हम सभी भाई बहिनों को जैसे अपने आंचल से ढक कर सहेजा हुआ था । बाबू और ठुल्दाज्यू लखनऊ आ गए थे , रानीखेत में ईजा ने मां बाप दोनों का रोल निभाया, बहुत गरीबी के दिन थे, अपनी छोटी सी तनख्वाह से बाबू मनिआर्डर से रुपये भिजवाया करते , उसी से मकान का किराया, राशन , सभी की फीस, थोडा दूध , कापी, किताबें, इत्यादि, पता नहीं कैसे मैनेज करती थीं ईजा, आज हम एक बच्चे की फीस ही जमा करने में हांफ जाते हैं , ईजा के वित्तीय प्रबंध को देखकर आश्चर्य होता है ।
ईजा को रामलीला देखने का बहुत शौक था, खड़ी बाज़ार की रामलीला ही हमारी पहुँच में थी , मेरे शौक को देखते हुए मुझे भी साथ ले जातीं , सारी रात रामलीला देखने बाद भी वो अल्लसुबह उठ जातीं और दैनिक कार्यों में लग जातीं , न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी मेरी ईजा !
उनके गाये भजनों में मुझे एक भजन आज भी याद है " मारत किलकारी चढि गए हनुमान:" , इसके अंतरे को वो इतना ऊंचा लेजातीं फिर बड़ी सहजता से स्थाई पर आतीं, पर मजाल था कि कभी सुर भटके , न कोई तानपूरा न कोई साज , बडे बडे कलाकार भी बिना साज़ के अपने सुर पर कंट्रोल नहीं कर पाते, धन्य थी मेरी ईजा ।
किसी भी बात के तत्व को भांपने की उनमें विलक्षण शक्ति थी , उनके सामने कोई भी बहाना बनाना बेकार हुआ करता था , वो तुरत समझ जातीं फिर या तो डाट कर या तंज कास कर खुलासा कर देतीं, उनकी यह प्रतिभा ठुल्दाज्यू में आई है इसलिए हम लोग उन्हें धरुका कहते हैं, बचपन में सभी कुछ न कुछ शरारत करते ही हैं, हम लोग भी इससे अछूते नहीं थे, घर में मिठाई तो दुर्लभ चीज हुआ करती थी, डिब्बे में रखी शक्कर ही चुरा कर फांक लेते थे पर सदा ही पकडे जाते, यदि वो किसी काम में मग्न हों उनके पीठ पीछे चुपके से जाना भी खतरनाक था वो तुरंत ताड जातीं और पकड लेतीं उनके सामने सभी की चालाकी धरी रह जाती । अपने जीवनकाल में उनहोंने बाबू को कई विषम परिस्थतियों से पहले ही आगाह कर दिया था , जो कि बाद में बिलकुल सही निकलीं, उनका पूर्वानुमान बिलकुल सटीक हुआ करता था । यद्यपि वो बहुत पढी लिखी न थीं पर उनके जैसा गुणी भी विरला ही होता है । वो इतनी कृषान थीं कि चौबटिया में उनहोंने गाये भी पाल ली थीं ।
फिर हम लखनऊ आ गए , एक ऐसा परिवेश जहां भाषा , रहन सहन बिलकुल विपरीत था , कहाँ बोलचाल में कुमाउनी लहजा और कहाँ लखनऊ क ी सुसंस्कृत उर्दू की मिठास लिए अवधी का लहजा । पर धन्य थी ईजा उसने न केवल स्वयं को बदला पर हम सभी की जुबान भी तराश दी, हमारे बगल में श्रीवास्तव परिवार रहता था उनसे अपने आँगन से ही दोस्ती गाँठ ली थी ईजा ने ,अपने और उनके व्रत त्यौहार समझे और समझाए गए उनमें ही एक त्यौहार " करवा चौथ " हम बच्चों ने पहली बार देखा जिसमें पति की लम्बी आयु के लिए महिलाए व्रत रखती हैं और सारा दिन निर्जल रहकर चाँद देखने पर उपवास तोडती हैं ,ईजा को यद्यपि यह त्यौहार पसंद था पर वो कहतीं कि हमारे यहाँ वट सावित्री का त्यौहार मनाया जाता है , ऐसे ही कई संस्मरण हैं ।
लखनऊ में पर्वतीय महिलायें होली के दिनों में होली गायन करा करती थीं , ईजा भी इनमें भाग लेती थीं , वो शाने महफ़िल हुआ करती थीं, होली गाना, नाचना और स्वांग करना उनकी इन कलाओं के सब कायल थे ।
ईजा हम सब भाइयों की अलग अलग दोस्त थीं , हर एक के साथ उनके प्रथक प्रथक राज़ थे , वो अपनी बहुत सी बातों को साझा किया करती थीं, बहिनों के साथ बेटियों सा व्यवहार तो था ही वे उनके साथ सहेलियों सा वर्ताव करती थीं , बहुओं को भी वो सहेली की तरह समझती थीं उनसे वे दोस्ताने व्यंग भी कर लेतीं । भरी गर्मियों में तीन बजे ही वो बाज़ार चल देतीं अपने साथ किसी भाई या बहनॉ में से ले जातीं और शाम ढले सब्जी राशन ले कर आ जातीं । सुबह चार बजे उठ कर स्नान कर लेतीं और बैठक में हम सभी के ऊपर लोटे से पानी छिडक देतीं जिससे हम जाग जाएँ और पढने बैठ जाएँ , उनके उस लोटे को नन्दाज्यू आज भी याद करते हैं ।
समय अपनी गति से बढ़ता चला गया, जीवन में कई उतार चढाव आये, कई मौकों पर वे विचलित भी हुईं पर उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी वो समाज से लड़ीं अपने परिवार के लिए लड़ीं , और हमेशा बहादुर हो कर निकलीं, पर अंत समय कैंसर से जंग जीत नहीं पाई, बडे भावुक क्षण थे वो कानपुर के कैंसर इन्स्टीट्यूट से हार कर लौट आइ थीं, उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता था पर उन्होंने कभी इसका जिक्र नहीं किया, अंत समय उन्होंने बाबू से कहा कि वो गीता पढ कर सुनाएँ पर बाबू टूट चुके थे, तब ईजा ने मुझसे पढ्ने को कहा और यह गुरुतर दायित्व मुझे निभाना पडा , अपनी आसन्न मृत्यु को जान कर उस साल दिवाली में उन्होंने सभी पटाखे दगाए, फुल्झाडियाँ जलायीं और जी भर कर उत्सव मनाया, जब कि हम सभी खिसियाये से उन्हें देख रहे थे, अंत समय उन्होंने बाबू को बुलाकर कहा कि में जा रही हूँ इन सबका ध्यान रखना और शेखरू को कहना कि मैंने उसे माफ़ कर दिया है ।
आज भी कभी कभी वो स्वप्न में आती हैं और जब कभी कोई कठिन परस्थिति हो तो उससे निबटने का तरीका बतला देती हैं , उनका एक तैल चित्र मेरे मित्र ने बनाया था जो इतना सजीव है कि जैसे वो अभी बोल पड़ेंगी । मुझे कभी ऐसा लगता है कि यदि वो अधिक पढि लिखी होतीं तो शायद वो राजनेता होतीं , हम सभी स्वयं को धन्य मानते हैं कि हमने ऐसी विलक्ष्ण जननी की कोख से जन्म लिया , उनकी याद में मेंने अपने मकान का नाम कलास्मृति रखा हुआ है,
सच ही कहा गया है कि , " कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति "
ऐसी महान आत्मा को मेरा शत शत प्रणाम ।
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