( होली के रंग में , मस्ती की तरंग में ,होली मिलन की उमंग में, मृदंग की दंग में अपने अंग - भंग में पार्क यूं बोला : - )
में एक पार्क हूँ,
मेरे सीने में भी एक दिल है ,
जो धड़कता है नन्हीं पदचापों से , उन्मुक्त किलकारियों से,
बुजुर्गों के नाम से , महिलाओं की शान से,
युवाओं के आनबान से .....................
में सांस लेता हूँ ,
अपने चारों ओर उगे पेड़ों से ,
फूलों लदी क्यारियों से , महकते गुलाबों से ,
खिले डहलियों से, गमकते कनेरों से ,
प्रकृति के चितेरों से ....................
में पहले ऐसा न था ,
अंसल ने मुझे जन्म दिया, तिकोना बना दिया ,
रही सही कसर पूरी की बिजली विभाग ने,
सीने को मेरे चाक किया , ट्रांसफार्मर लगा के
बाक़ी बची जमीन बंजर वीरान थी ,
चोर उचक्कों की महिमा महान थी ,
दारू की टूटी बोतलें , टोटे सिगरेट के,
दालमोठ की पन्नियाँ , बीयर के कैन थे ,
कुछ न बताने लायक , और भी कर्म थे ,
इन सबको देखकर , मरता था शर्म से ,
मवेशियों का में बदिया चरागाह था ,
छाती में मूंग दलते , न कोई पनाह था ।
ऐसे में कुछ बुजुर्गों ने सहलाया लाड़ से,
चारों तरफ से घेरा मुझको एक बाड़ से,
मेरे इर्द - गिर्द के निवासी भी जग गए ,
उनके अथक प्रयासों से , उचक्के दुबक गए,
फिर सबने मिल कर एक फैसला लिया ,
सुन्दर सा मेरा नाम सरस्वती पार्क रख दिया ,
मेरे नाम पे एक समिति भी बनाई गई ,
हर महीने मेरे लिए बैठकें करी गईं ,
सभी घरों से हर माह चंदा लिया गया ,
मेरे नाम से बैंक में एकाउण्ट भी खुल गया,
माली मुझे हर रोज़ निखारने लग गया,
रंग भरे फूलों से में पूरा महक गया ,
मेरी प्यास बुझाने को सबमर्शिबल भी ठुक गया ,
माथे पे मेरे हाईमास्ट चमक गया ,
आशियाने में शोहरत फैली मेरे शबाब की,
हर नज़र रश्क. करती महकते गुलाब की ,
दामन में मेरे झूले लटक गए ,
जिसमें झूलने को बच्चे मचल गए,
किलकारियां भरते दोड़ते इधर-उधर ,
देखने में कितना सुहाना था ये मंजर ।
पर न जाने मुझको किसकी लगी नज़र ,
वो माहोल अब कहीं आता नहीं नज़र ,
अलाने का झगड़ा फलाने से जो होता,
अपनी वो खुंदक मुझ पे उतारता ,
वो कहता फलाना ठीक नहीं है बन्दा ,
जाओ ! अब में पार्क का देता नहीं चन्दा,
उस दिन मेरे पेड़ भी थे फुसफुसा रहे ,
हवा थमी हुई थी फिर भी थरथरा रहे ,
डर के एक बोला जाएं अब किधर ?
कुल्हाड़ी ले के हाथ में वो आ रहे इधर ,
नीम, कोई आम गुलमोहर को काटता ,
अमलतास को बुरी नज़र से ताकता,
बड़ी शिद्धत से हमें लगाया था इन्होंने ,
कि इनको देंगे छाँह , हम गरमी के दिनों में ,
पर आज ये कह रहे कि हम धूप रोकते,
आने जाने वालों को ये खूब टोकते ।
मेरे अज़ीज़ समिति वाले बहक गए,
कोई कुछ भी कहता मुझ पर तमक गए,
महकते हुए गुलशन में खेलने लग गए,
खिले हुए फूल बिखरने लग गए,
क्रिकेट और फ़ुटबाल मेरी छाती को रोंदते,
अनाप - शनाप दोडते, कूदते फांदते,
इन सबके कारण मेरा जीना मुहाल था,
हाईमास्ट को तोडता वो किक फ़ुटबाल का ।
ऐसा नहीं था के ये और कुछ नहीं करते ,
हर साल नवरात्र में माता को बुलाते,
श्रद्धा और मनुहार से उन्हें आसन में बिठाते ,
पंडित को बुलाकर हवन- यज्ञ कराते,
सारी रात बैठकर भजन सुनते व् सुनाते,
आरती के बाद सुबह अपने घर को ये जाते,,
और फिर लोटकर वहीं कुत्ते को हगाते ।
पानी का पाइप खींचता , जो जबर रहा,
सड़क से ले जा कर अपना टैंक भर रहा ,
आते जाते गाड़ियां इसको कुचल गईं,
इस बेचारे पाइप की अंतड़ियां निकल गईं ,
पानी के बिना मेरा जिस्म सूखता गया ,
हरियाली की जगह बंजर पसर गया ।
जागो ! जागो ! जागो ! अब संभाल भी चुको,
बचाओ मेरी लाज मेरे अजीज दोस्तों,
आपस का सारा बेर भाव भुलाकर,
मुस्कुराओ आके मेरे दामन में बैठकर,
में वो शै हूँ जो आपसे कुछ नहीं लेता ,
खुशबू भरी हवाएं में आपको देता ,
वो छोटे छोटे बच्चे क्या सीखेंगे आपसे ,
वो बहुत उम्मीद रखते हैं अपने बाप से,
अपने लिए नहीं तो आप उनका जतन करो,
वो भविष्य हैं देश के इसका स्मरण करो ।
रंग भरे सलाम के साथ,
आपका अपना सरस्वती पार्क
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