Monday, 1 April 2013

रितुलि मास्टरनी

रितुलि मास्टरनी 

( हल्द्वाणि  जाई भयां  , इनर दिदि  वां  ले जाण पड़  , रत्ते जाई  ब्याल  आयां,  उनरि चेलि तब मास्टरनी  छी , वीक हाल देखि यो कविता  निकलि  ) ......................

मै  बाब  नान्तिनन हूँ  के के नि करन ,
आपुण  नि खाय , उन्हनू  धरनी 
पर ख्वार पडा नानतिन नि खान लगड़ 
धिगड़ ले अब कम  कम लगूनी  . 
 म्वाटा  - घाटा  नानतिन  खूब हूछी  हो धिनाली ,
चाई  रूछ्याँ कब भैंस  हो बियाली ,
गाड  बग्नेर  भै  कूछा  दूध  दै  घ्यूकि ,
छाँ  पीनेर  भयां , पाणि  मुख नि लगूँछी 
पर आजकल  फैशन भयो  लिस्तड  पट्क्याई ,
बाट में घुरी रूनी  जस  आम चुस्क्याई .
कमर तोरियाँ जसी  आँख हिसालू टप्क्याई 
हाथ खुट काकड़ जसा , ऊ ले घामाक  सुखाई .
पदी - लिखी बेर खाली बैठ  अब के करनी ,
हल्द्वाणि में यो साल देखि  रितुली मास्टरनी .
आठ बाजी रत्तेब्याण  हाथ चहा को गिलास ,
मूख मारी पाणि छींटा , लिण हूँ जाछी  किलास .
जस कस  स्कूल नि  भै , भयो  कौन्वेण्टा ,
नौकरी टेम्परेरी  भई  नि भै  पर्मानेण्टा .
तनखा जतुक भई  ऊ है  बाहिक निकल जानी ,
सब सामान  लिण  भयो जो बेचेंछी  लम्याणी .
छब्बीस जनवरी  दिन रत्तेब्याण न्हेगे ,
निरार पेट जाई भई  घर के नि कैगे .
इज वी की चाई भई  कब घर आली ,
बाब कुनेर भया , वां परेड ऊ कराली .
दिन दोफरी घाम ऊ घर जब आई ,
कालो मूख हई  भयो जस हूँ जोत्याई .
हाथ को पर्स  खितो  ज्वात वां घुराई ,
कैको पुछ्ण  कुंछा , नि देखि को भै  आई ,
सिराण हूँ  मुख  करि , खुटाण  हुं  रिसाई .
ऐसि नौकरी  के भै , थोल  पट्क्याई ,
मै कणि नि:श्वास  लागो घर लौटि आई  । 

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