परिभाषायें
एक जून पा गया है रोटी , अब फ़िक्र नहीं कल की उसको,
मुख पर संतोष की छाया है , उसको तुम निर्धन कहते हो ?
मोटा बैंक बैलेंस भी है , मोटर है आने जाने को ,
चख नहीं सकता कुछ भी , दी है दावत रोगों को ,
लाख आज पा गया , पर चाहता है करोड़ों को ,
शेयरों में लगी पूंजी , दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती,
फिर भी फ़िक्र सताती है , उसको धनवान समझते हो ?
रूखे बालों में न कंघी है , धोती चीथड़ा चीथड़ा है ,
इस तरफ खींच छुपाती है , उस तरफ बदन उघडता है ,
फिर भी यत्न प्रयत्न करती , अपनी अस्मिता बचाने को ,
पैरों में फटी विवाई है . उसको तुम चालू कहते हो ?
वो पांच सितारे में बैठी , तन पर वस्त्र न होने जैसा है ,
खुद ही यत्न प्रयत्न करती , अपना आंचल ढलकाने को,
मय का प्याला हाथ लिए , आमन्त्रण का भाव लिए,
गिद्धों की दृष्टि से बेपरवा , उसको आधुनिका समझते हो ?
वो लुच्चा है लफंगा है , गुंडा है बदमाश भी है ,
बलात्कारी कत्लादी , वो पक्का हिस्ट्रीशीटर है ,
खद्दर का पैजामा कुर्ता , सर पर गांधी टोपी है,
एम एल ए बन गया अगर , तो उसको नेता कहते हो ?
अपनी परिभाषाएं बदलो , सोचो तुम क्या कहते हो ?
इसा मिथ्या जगत में संतोष से बड़ा कोई धन है ?
धनबल , जनबल , बाहुबल , सब चरित्रबल के आगे फीके हैं,
जो इसको पा गया समय पर , वो ही सच्चा मानव है ।
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