पहाड़ के गाँव में मिठाई की शुरुवात कब और किस रूप में हुई थी इसका बहुत पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता । पर एक बात तो तय है कि आज से साठ साल पूर्व भी हमारे गाँव में लाडू के रूप में यह हुआ करती थी । शादी ब्याहों में ढेरों लाडू सुंवाल बनाये जाते थे, जो सभी को उपहार के रुुुप में भी दिए जाते थे , जिन्हें लोग बड़े चाव के साथ खाते थे । आजकल सुवाल पथाई रस्म के रूप में मनाई जाती है , आजकल की पीढी इन सुंवालों को क्या खाती है ? लाडू के अलावा मीठे में गुड की डली हुआ करती थी , जिसका 'टपुक ' लगा लोग चाय सुड़कते थे । कभी कोई किसी का रिश्तेदार अल्मोड़ा जैसे शहर से आता तो वह अवश्य ही बाल मिठाई लाता , जो सामान्य लोगों के पहुँच से दूर ही थी । लेमन ड्राप्स को विलायती मिठाई कहा करते थे जिसे केवल बच्चे ही खाते थे , बड़े बूढ़े इसे कतिपय कारणों से खाने से परहेज करते थे । इसके अतिरिक्त और कोई मिठाई प्रचलन में नहीं थी ( यह पहाड़ के समवित्तीय ग्रामों का चित्र था ) ।
बात वर्ष १९६४ के करीब की होगी ,बाबू , रानीखेत में फल उपयोग विभाग में कार्यरत थे , उन्हें Cost & works Accountancy के कोर्स के लिए छह महीने के लिए कलकत्ता भेजा गया , वे वहां कोर्स कर रहे थे जब उनकी मुलाक़ात 'कालासिला ' के बृजमोहन जी से हुई , वे गाँव आ रहे थे , बाबू ने उनके मार्फ़त दो डिब्बाबंद रसगुल्ले , एक रानीखेत हम लोगों के लिए और दूसरा गांव बजेत (वर्षायात ) ,बड़बाज्यू लोगों के लिए भिजवाया } गाँव में आमा , बड़बाज्यू, बड़े चाचाजी का परिवार रहा करता था , जिस समय की यह बात है, बड़े चाचाजी , टूर पर निकले हुए थे । बड़बाज्यू किसी काम के सिलसिले में कालासिला गए हुए थे , वहां उनकी बृजमोहन जी के पिताजी से मुलाक़ात हुई उन्होंने, ब्बड़बाज्यू को बुलाकर कहा ," अरे भबन दत्त ! बृज कलकत्त बटी ऐ रौ , वां वीक भेट तयार च्याल मोहनक दगड भैछ, मोहनैलि त्यार लिजी मिठै भेजि राखी , लि जये ! " एक झोले में मिठाई उन्हें थमा कर वो अन्य बातों में मशगूल हो गए । शाम को बड़बाज्यू जब घर आये तो उन्होंने आमा से कहा " मोहनैलि कलकत्त बटी मिठै भेजि राखी !' और झोले से डिब्बा निकाला , पहले तो वे चमत्कृत हो गए कि मिठाई किसी टीन के डिब्बे में भी भेजी जाती है , क्योंकि बाल मिठाई तो वे गत्ते के डिब्बे में ही देखते थे , अब डिब्बा देखकर सारा परिवार बड़बाज्यू को घेर कर बैठ गया }
आमा , चाची से : के हुनल तौ दुल्हैंणि ?
चाची : पत्त नै !
बड़ी बहिन : तो डाब में के बणी छू ?
मझली बहन : एक ठुल्ला जुंग वाल मैस बणी छ दिदि , खाप में आन जा खितनौ
बड़ी बहन : छि छी: त माछक आन हुनाल , कलकत्त तरफ माछ खानन बल !
बड़बाज्यू : चणी रौ ! जस तुई जै रै छै कलकत्त ! नै खै जैली होय
छोटा भाई ( जो छोटा होने के कारण उस गोल तक नहीं पहुँच पा रहा था ) : ओ , बड़बाज्यू ! मैं कत्ति बैठूँ ?
बड़बाज्यू (खीजते हुए ) म्यार ख्वार में बैठ !
( और सचमुच वो बड़बाज्यू की पीठ पर चढ़कर सर पर बैठने लगा )
बड़बाज्यू ने उसे धकेलते हुए कहा : पर हट रे ख्वार चढ़ी नानतिन ! ,
डिब्बे में जो कुछ भी लिखा हुआ था वह बंगाली में था , किसी के कुछ समझ में नहीं आ रहा था , बड़बाज्यू ने आमा से कहा , ला पै दराती लौ और सिलौक लोड़ ले ली आये , अब बड़बाज्यू ने दराती को डिब्बे के ऊपर रख कर बट्टे से चोट मारी तो थोड़ी देर में डब्बे का एक सिरा हल्का सा खुल गया , और थोड़ा सा रस बाहर निकल आया , उंगली में उस रस को लगाया तो वह चिपचिपा जान पड़ा , वे बोले, " के छ यो लिस जस ? बड़ी बहन की तरफ उंगली बढ़ाते हुए बोले, "ले चख धे के छ यो ?" बड़ी बहन चिल्लाकर भागी ' न ! न!!! न मैं नि चखन तौ " तब बड़बाज्यू ने छोटी कीऔर उंगली बढाई और उसे जबरदस्ती चटा दिया , फिर बोले ," कस हैरयोछ ?"
छोटी ने उत्तर दिया , " गुलिओ गुली है रयोछ ! त डाब आजि खोलो धे, भितौर के छु ? बड़बाज्यू ने डिब्बे का पूरा ढक्कन खोल दिया , अब सबने देखा कि उसमें सफ़ेद रसगुल्ले तैर रहे थे , बड़ी बहिन जो दूर से ही सारा तमाशा देख रही थी वह वहीं से चिल्लाई , " त माछाक आन छन , मैंलि पैलिये कै हालि छी , खितौ तनन भ्यार " । अब स्थति थोड़ी विचित्र हो गई थी , बड़बाज्यू असमंजस में थे, वो सोचरहे थे कि उनका पुत्र यह सब नहीं कर सकता, या तो डिब्बा ही बदल दिया गया है या यह मिठाई ही है , पर इसे चखा या खाया कैसे जाय, बिना उनकी आज्ञा से आमा और चाची भी खाने की हिम्मत नहीं कर सकती थीं । खैर ! छोटे बच्चों ने इसे चाव से खाया, एक ने कई पीस उदरस्त किये । गाँव में छोटी सी बात भी बच्चों के माध्यम से जंगल की आग की तरह फ़ैल जाती है, बच्चे पेट में बात पचा ही नहीं पाते, छोटी बहिन दौड़ती हुई बाहर आई और बगल के घर में घुस गई, और अपनी समवयस्क सहेली को कोने में लेजाकर कान में बोली, " हमार जिठबाज्युनैली कलकत्त बटी माछक आन भेज राख्यान औरै गुली हैरयांन , खाली ? " कौतूहल के कारण वो हमारे घर जाकर रसगुल्ला खा आई , और उसने पूरे गाँव के बच्चों में यह जाग जगा दी और इस तरह देर शाम तक सारे रसगुल्ले खत्म हो गए । बड़बाज्यू चाहते ही थे कि यह समाप्त हो जाएँ , क्योंकि कोई बड़ा बूढ़ा तो इसे खायेगा नहीं और ताने अलग से मिलेंगे ।
पर बड़बाज्यू जो सोच रहे थे वह जल्दी ही हो गया , गए रात तक यह बात गाँव के सभी लोगों को हो गई थी । सुबह बड़बाज्यू स्नान के लिए धारे पर गए तो उन्हें वहां बड़े बड़बाज्यू ( उनके ताऊ जी के पुत्र ) मिल गए उन्होंने बड़बाज्यू को फटकारते हुए कहा , " किलै रे भबन दत्त ! त्यार च्यालेल कलकत्त बटी माछक आन भेज्यान बल, और त्वील सब नानतीनां कण खवै द्यान बल ! , कस मैस भये तू ,! धरम भ्रष्ट करि हालि त्वील पुर गौंक ! सयाण है बेर ले त्वील तस करि , निखद्द मैस भये ला !! , बड़बाज्यू , सुणौ ! सुणौ !! कहते रह गए पर , बड़े बड़बाज्यू उन्हें झिटकते हुए बोले। " आज बटी जन लाग्ये मैंकनि , अलीत कां को "
शाम को कालासिला से , बृजमोहन जी का चचेरा भाई आया और उसने एक चिट्ठी बड़बाज्यू को देते हुए कहा, " भबन का ! बेली तुम यो चिट्ठी भूलि गया ! दाज्यूनैली भेजी राखी " बड़बाज्यू ने तह की हुई चिट्ठी खोली और उसे पढने लगे , चिट्ठी में बाबू ने रसगुल्लों के बारे में विस्तार से बताया था कि ये दूध को फाड़कर बनाये जाते हैं और इन्हें ब्रत त्योहारों पर भी खाया जा सकता है, ये काफी दिन तक चलते हैं " यह पढ़कर बड़बाज्यू शून्य में ताक रहे थे और चिट्ठी उनके हाथ में फड़फड़ा रही थी ।
उधर दिन में बड़े बड़बाज्यू पार वर्षायत किसी काम से गए थे तो उन्हें वहां तारा दत्त बड़बाज्यू मिल गए, आपस में अन्य फसकों के अलावा पिछली रात को गाँव में हुए काण्ड की भी जानकारी उन्होंने तारा दत्त बड़बाज्यू को दी, (तारादत्त बड़बाज्यु बहुत साल बनारस में रहे थे , वे वहां बी एच यू में संस्कृत के प्राध्यापक थे और मालवीय जी से कुछ मनमुटाव होने के कारण वे छोड़ कर गाँव वापस आ गए) + वे पूरा मामला समझ गए और हँसते हुए बोले , "पगल बजी रौछै तू ! अरे ऊ माछक आन नि भ्या ! ऊ रसगुल्ल भ्या , बंगालि लोग खानेर भ्या !" हतप्रभ हुए बड़े बड़बाज्यू घर लौटे , पर वे अपनी हार न मानने वाले थे , घर पर बड़बाज्यू को सब लोगों के सामने देखकर अनजान बन कर बोले ," हला भबन दत्त ! त्यार च्यालेल कलकत्त बटी रस्गुल्ल भेज्यान बल , त्वील हमन नि खवै , कतुक खाना ? "
अब बड़बाज्यू के बेहोश होने की बारी थी ।
इति
तरदा तुम बहुते भल लिखनछा हो.बधाई |
ReplyDeleteवाह ! तरदा ऐसे ही मिले जुले किस्से हमारे भी होते हैं पहाड़(गाँव) से जुड़े हुये।
ReplyDeleteहा हा हा
ReplyDeleteपगल बजी रौछै तू ! अरे ऊ माछक आन नि भ्या ! ऊ रसगुल्ल भ्या