स्वर्गीय बाबू ये आपबीती सुनाया करते थे । ये उस वक्त की बात थी जब देश आजाद नहीं हुआ था, अल्मोड़ा शहर में किराए पर क्वाटर लेकर वे हाईस्कूल कर रहे थे, ये बड़बाज्यू की ही हिम्मत थी कि इतनी विपन्नता में भी वो किसी तरह उनकी पढाई का इंतजाम किये हुए थे । बाबू महीने भर का राशन अपने साथ घर से लाते और महीना ख़त्म होने के बाद वो पुन: गाँव जाते और एक दो दिन रहकर फिर पिट्ठू पर राशन लाद लाते ।
यह उसी तरह का एक फेरा था, जब बाबू अल्मोड़ा से वर्षायत जा रहे थे , अल्मोड़ा से यह सफर वाया शेराघाट करना पडता था , यह पैदल मार्ग था, जिस पर कतिपय संपन्न लोग अथवा सरकारी मुलाजिम घोड़ों से यात्रा करते थे , जगह जगह घोड़ों के पानी पीने के लिए नादें बनी हुई थी , कई जगह पर सराय भी थी जहां यात्री अपनी सुविधा के अनुसार रात्रि विश्राम कर सकते थे । सरकारी मुलाजिमों में एक हरकारा भी हुआ करता था जिसे सरकार की और से वर्दी मिलती थी , घुटनों तक चढ़े हुए पम्प शू उस पर लम्बे लेसेज, हाथ में एक भाला जिसके नीचे एक घुंघरू भी बंधा होता था जिससे सभी को हरकारे के आने की आवाज सुनाई पड़े और लम्बे इंतज़ार के बाद चिठ्ठियाँ मिल सकें । यदि कभी नायब तहसीलदार गश्त पर जाते तो उनके साथ बड़ा अमला चलता था , स्वयं साहब पालकी पर बैठते, कई घोड़ों पर उनके मुलाजिम सवार रहते और खच्चर जिन पर सामान और राशन रखा होता था , जगह -जगह रुकते और निर्देश देते चलते रहते थे इस प्रकार बड़ी गहमा गहमी रहती । बाबू सुबह अल्मोड़ा से निकल पड़े थे अब उनका लक्ष्य शेराघाट था जहां वे शाम तक पहुँचना चाहते थे, शेराघाट में एक ठाकुर साहब की सराय थी जो यात्रियों को रहने के लिए कमरे , जिन में गद्दा रजाई वगैरह रहता और खाना बनाने के लिए बर्तन व् लकड़ियाँ मुहैय्या करा देते थे । उस समय कोई भी ब्राह्मण दूसरे के हाथ का बना भोजन नहीं खाता था कैसी भी परिस्थति हो इन्हें अपना खाना स्वयं बनाना पडता था । यह प्रथा सभी जगह लागू थी इसलिए ठाकुर साहब जानते थे , और अक्सर आने जाने की वजह से वो बाबू को जानने भी लगे थे और बिना अधिक पूछताछ के उन्हें सादर यह चीजें दे देते , और बर्तन धोने के लिए अपने नौकर को कह देते , इसलिए बाबू को यह स्थान पसंद था ।
दोपहर हो चुकी थी , अभी वे धौलछीना तक भी नहीं पहुँच पाये थे, "इस तरह तो रात ही हो जायेगी, शेराघाट पहुंचते पहुंचते" ऐसा विचार करते हुए वे तेज चलने लगे, तभी उन्हें घुंघरू की चिरपरिचित आवाज सुनाई पडी जो उनके पीछे से आ रही थी , थोड़ी ही देर में हरकारा उनके सामने पहुँच गया, उसने बाबू से राम जोहार की और आगे बढ़ गया, बाबू उसके कदम से कदम मिला कर चलने लगे तो हरकारा उन्हें देख कर मुस्कुराने लगा और बोला " अरे सैप !, माठु -माठ हिटौ तुमन कण कांकि जल्दी छू ? मैकॉणी त कई जग डाक दीण छ , रुँकुँलो त ढील है जालि " ! बाबू उससे सहजता से बतियाते हुए उसी के साथ चलने लगे और उन्होंने अनुमान लगाया कि इस तरह सूरज डूबते समय तक वो शेराघाट तक पहुँच जाएंगे । और यही हुआ , वो शाम तक वहां पहुँच गए । हरकारा वहां डाक देकर आगे बढ़ गया । बाबू ने हमेशा की तरह वहां रात्रि विश्राम किया और सुबह घाट पर नहा कर उन्होंने सराय में खाना बनाया और खा पी कर वे आगे की यात्रा पर निकल पड़े ।
शेराघाट से आगे रास्ता चढ़ाई का था , दिन चढने लगा था और गरमी भी बढ़ रही थी , आगे बाझ के जंगल थे, बाबू वहीं कुछ देर सुस्ताने की सोच रहे थे , वहां एक तो गहन छाँव मिलती और बाँझ के पेड़ की जड़ से रिसता और सीर बन कर फूटता ठंडा पानी भी मिलता । थोड़ी देर में बाबू वहां पहुँच ही गए और ठण्डा पानी पीकर सुस्ताने लगे , तनिक देर के लिए उनकी आँख भी लग गई, आँख खुलते ही वे हड़बड़ाकर उठे और आलस्य भगाने के लिए उस ठन्डे पानी से मुंह धोने लगे, तभी पानी के बहाव की दिशा में उन्हें एक गोल सी वस्तु दिखाई दी, उत्सुकता वश उन्होंने उसे उठा लिया , यह एक सुन्दर गोल पत्थर था , बाबू ने मन में सोचा " अहा !कतुक गोल और चिफल ढुंग छू स्यापक जिबडक जस चाटी !!, घर में घट में धुर {PIVOT} बडूननक काम आल, " और उन्होंने इसे अपने कोट की जेब में रख लिया , और आगे बढ़ गए । शाम ढलते ढलते वो बेरीनाग पहुँच गए, वहां चाय पीकर वो वर्षायत के लिए निकल गए ।
रात्रि भोजन के समय तक वो घर पहुँच गए , बड़बाज्यू किसी काम से दूसरे गाँव गए हुए थे, सामान्य सी बात थी , हाथ पाँव धोकर वो खाना खाने के लिए बैठ गए, और खाते खाते आमा से बतियाते रहे , घर मोहल्ले की बातें करते हुए वो खाना खाकर सो गए , काफी थके हुए थे इसलिए उन्हें गहरी नींद आ गई, बड़बाज्यू को बताया गया कि बाबू आ कर सो गए हैं तो उन्होंने उन्हें उठाकर व्यवधान न डाल कर सोने ही दिया । आधीरात बीत चुकी थी तभी बड़बाज्यू की नींद टूट गई, उन्हें जोर जोर की आवाजें सुनाई देने लगीं, जब गौर से सूना तो उन्हें लगा कि शायद मज्याले से ये आवाज आ रही है, बड़बाज्यू अति पराक्रमी, निर्भीक और विवेकी व्यक्ति थे वे दौड़कर मज्याले पहुंचे तो देखा कि बाबू बड़बड़ा रहे हैं उनका शरीर नीला पड़ा हुआ है , वे जोर जोर से चिल्ला रहे थे , " ला म्योर ढुंग. ला म्योर ढुंग !! न त में तेकेन मारि द्यूंल, " और एक दबी दबी आवाज में घिघिया भी रहे थे "न , न, मैंल पाई राखौ त ढुंग , त्योर कसि हैगे ? फिर जोर से कहते," चणी रौ ! बांजक जंगल बटी टिप लाछे म्योर ढुंग , ला म्योर ढुंग , ला म्योर ढुंग !!
विवेकी बड़बाज्यू सारा मामला समझ गए , उन्होंने तुरंत बाबू के कोट की जेब से वह पत्थर निकाला और हाथ में कुछ चाॅवल के दाने लेकर पहले उन्हें मंतरा फिर बाबू के सामने उसे लहराते हुए बोले ,
मसान में भड़य्याई , किले म्यार घर आई ?
डंगरियौक जस डामा ,नंगरियौक जस बजाणा ,
दाडिमक जस दाणा, हम नि धरना सिराणा ,
भाज, भाज , भाज , तु जो ले छै भिशूना !!!!!!!!!!!
इतना कहकर वो उस पत्थर को दांये हाथ में रख कर , और जलते छिरूल को बांये हाथ में पकड़कर घुरघट्टी गाड़ की और ले चले , सारे गाँव वाले उनसे कहते रह गए कि सुबह चले जाइयेगा पर वो कहाँ मानने वाले थे ? नदी के किनारे पहुँच कर इन्होंने कुछ अनुष्ठान किये और जोर से उस पत्थर को नदी की और उछालते हुए कुछ मन्त्र पढ़े और वापस आ गए । सुबह तक बाबू बिलकुल ठीक हो गए, पर बड़बाज्यू ने उनसे कुछ नहीं कहा, यहां तक कि उन्होंने यह भी ताकीद कर दी थी कि इस बात को बिलकुल गुप्त रखा जाय, उन्हीं की भाषा में " अरे चणी रया रे सब, मैन्सन कण मालूम पडलो त नानतिन झसकी जाल " ये बड़बाज्यू की दूरदर्शिता थी क्योंकि सबको उसी गाँव में रहना था, इस लिए इस विपत्ति का सभी मिल कर मुकाबला करें । फिर एक दिन घुरघट्टी से ही बाबू और बड़बाज्यू एक चिकना पत्थर {agate} ढूँढ लाये जिसे गाँवके घट में धुरे की सतह पर लगा दिया गया , जिससे घट के घूमने में तेजी आ गयी और यह अनाज जल्दी पीसने लगा ।
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