Thursday, 10 July 2014

अलक्षिण




पं  द्वारिका प्रसाद पाण्डेय जी काली मंदिर के पुजारी थे , मंदिर के ही  अहाते में उनका निवास भी था । वे बड़े सज्जन व् धर्मपरायण व्यक्ति थे , उन्हें वेद शाश्त्रों का गहन अध्ययन  था , वे कुंडली भी बहुत अच्छी बांचते थे । उनकी पत्नी राधा सुशील महिला थीं , वे पतिधर्म का सदा निर्वाह करतीं, पंडित जी को  किस समय किस चीज की आवश्यकता है वे तुरंत समझ जातीं , पंडित जी के आहार, पहनावे, व् धार्मिक पुस्तकों का वह हर समय ख़याल रखतीं । माँ  काली की घोर उपासना व् बहुत मिन्नतें कर उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ,जिस का नाम काली प्रसाद रखा गया । जन्म के तेरहवें दिन नामकरण संस्कार के अवसर पर पंडिताइन ने पंडित जी से आग्रह किया कि बालक की कुंडली बना दी जाए, पहले तो पंडित जी मामले को टालने की गरज से बोले कि " अभी यह बहुत छोटा है, बाद में बना दूँगा " पर पंडिताइन चाहती थीं कि बालक की कुंडली बन जाए तो वो इसके भाग्य को देखकर संतुष्ट हो सकें । पंडित जी ने कुंडली बनाई और पंडिताइन से बोले कि "यह तो बहुत विद्वान व् साहसी बनेगा, जातक के ग्रह तो बहुत बलवान हैं, इसको यद्यपि शनि की दशा है पर यह उससे उबर कर बहुत आगे जाएगा और कुल का नाम उज्जवल करेगा । " इस बात को सुनकर पंडिताइन बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने काली माँ  को कोटि=कोटि  धन्यवाद कहा । 



समय बीतता रहा, बालक बड़ा होने लगा, वह स्कूल जाने लगा , वह अन्य बालकों की तरह उददंड नहीं था वह बहुत विचारशील बालक था, वह हर प्रश्न की व्याख्या चाहता था, स्कूल में मास्टर साहब उसे संतुष्ट करने का बहुत प्रयत्न  करते पर वह शाम को अपने पिताजी से ही पूछकर संतुष्ट होता था । छोटी ही उम्र में उसने अधिकतर धार्मिक पुस्तकें पढ़ डाली थीं, उसे महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए उपदेश बहुत प्रिय थे वह हर श्लोक की मीमासा चाहता था , पिता को जितना ज्ञान था वो उसे दे चुके थे, उसके द्वारा बहुत प्रश्न पूछे जाने पर वह मौन रह जाते और काली प्रासाद को खीज लगती  ।  स्कूल में बच्चे उसके इस नाम से भी उसे चिढ़ाते, वह अपने नाम से भी चिढ़ने लगा , वह थोड़ा थोड़ा विद्रोही होने लगा , उसे स्कूल के बच्चे अधीर  व् मानसिक रूप से कमजोर लगते । जब वह तीसरी ही क्लास में था तो उसने आठवीं क्लास के सबक याद कर लिए थे , वह हर विषय में पारंगत था , गणित के कठिन से कठिन सवाल तो वह चुटकियों में ही हल कर लेता , पर इस सबके बाद भी उसकी माँ  सोचती कि वह दुनियादारी नहीं सीख पाया है, वह अन्य बच्चों की तरह किसी भी चीज की जिद नहीं करता और बहुत आवश्यकता पड़ने पर ही अपने पिता से ही उसकी मांग करता । 



पितृ  पक्ष प्रारम्भ हो चुका था, उसके पिताजी अक्सर अपने जजमानों के यहां श्राद्ध कराने जाते , वे स्वयं भी अपने माता पिता का श्राद्ध करते थे, उस दिन भोजन मिलने पर बहुत देर हो जाती, पिताजी श्राद्ध करते और माँ खाना बनाती, जब तक बुलाये गए पंडित जी और पिताजी खा न लेते काली प्रसाद को लंबा इन्तजार करना पडता । उस दिन श्राद्ध पूरा होने के बाद उसने सोचा कि शायद अब माँ उसे खाने के लिए बुलाएगी , पर माँ ने उसे पातळी पकड़ाते हुए कहा कि "ा इसे किसी गाय को खिला कर आ , फिर तुझे खाना देती हूँ " वह अत्यंत भूखा था, उस पर माँ ने यह काम सौंप दिया था, वह पातळी ले कर गाय को ढूंढने निकल पड़ा , तभी एक मरियल सा कुत्ता उसके पीछे लग गया, कुछ देर चलने पर उसे एक गाय दिखी , उसने गाय को खिलाने की बहुत चेष्टा की पर श्राद्ध के दिनों गाय बहुत से घरों की पातळी खा चुकी थी इसलिए गाय जुगाली ही करती रह गई और उसने उस खाने को मुंह ही नहीं लगाया  । तभी उसके पीछे  वह मरियल सा काला कुत्ता कूँ कूँ करने लगा, उसने बड़े प्रेम से उस कुत्ते को भरपेट भोजन कराया और वापस घर आ गया । खाना खाने के बाद माँ ने पूछ कि  उसे गाय को पातळी खिलाने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई वह बोला, " गाय ने तो उस पातळी को मुंह ही नहीं लगाया , इसलिए मैंने वह खाना एक काले कुत्ते को खिला दिया था । माँ अवाक रह गई, उसने चिल्लाकर कहा " तू कितना अलक्षिण है ! अरे ! अपने पितरों का भाग कुत्ते को खिला आया ? अरे नराधम तुझे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी " और माँ  जोर जोर से रोने लगी " अरे किस जन्म का बैरी पैदा हुआ रे यह मेरे घर में ! कैसा पापी है रे  ये कलुआ ?" पंडित जी भी जड़ रह गए पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त बहीं की , और पंडिताईन से बोले " चल जाने दे भाग्यवान ! पितरों के भाग्य में नहीं होगा भोजन " 



वह खिन्न हो गया और , मंदिर के पीछे जंगल को निकल गया, वहां एक टीले पर बैठकर वह सोचने लगा " क्या परिस्थति है , भगवान श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि मैं सर्वव्यापी हूँ हर जीव में मैं ही वास करता हूँ , जल, थल, वायु में मैं ही विचरण करता हूँ , मैं ही आत्मा हूँ , मैं ही परमात्मा हूँ !!! फिर यह विरोधाभास क्यों ? क्यों माँ ऐसा  कहती है ? उसे कुछ भी समझ में नहीं आया और वह घर लौट कर चुपचाप सो गया । अब माँ  उससे बहुत काम बोलती थी, बहुत ही आवश्यक हुआ तो धीरे   से उससे कह देती थी । धीरे धीरे समय बीतने के साथ ही यह घटना घर में सबके द्वारा भुला दी गई । एक साल बीत गया , नवरात्र प्रारम्भ हो चुकी थी  उसके माता पिता नौ दिन का व्रत रखते थे , पिता का माँ को आदेश था कि काली प्रसाद को समय से भोजन दे दिया जाय, जिससे उसे कोई परेशानी न हो । इस तरह अभिभावक और पुत्र में एक अघोषित संधि स्थापित  हो चुकी थी । नवें दिन पंडित जी ने परायण कर हवन किया और माँ ने कन्या पूजने  के लिए उत्जोग किया , नौ दिनों के वृत के पश्चात माँ बहुत थकी हुई थी, उसने काली प्रसाद से कहा कि वो जाकर मोहल्ले की लड़कियों को बुला लए जिससे वो उन्हें पूज कर खिला पिला कर अपना ब्रुत भी पूर्ण करें । काली प्रसाद लड़कियों को ढूढने निकल गया,थोड़ी देर में वह कुछ लड़कियों को ले आया, माँ ने कहा कि ये तो आठ ही हैं एक और बुला ला, काली प्रसाद थोड़ी देर में एक और लड़की को ले आया, माँ ने सभी के पैर धोये और सभी की आरती उतारी और उन्हें भोग लगा कर दक्षिणा देकर विदा किया और फिर काली माँ को पूज कर उन्होंने अन्न ग्रहण किया । शाम को पंडित जी ने माँ  पूछा कि क्या उनकी कन्या जिमाई ढंग से हो गई थी, माँ  ने कहा कि काली प्रसाद ने नौ लड़कियों को बुला लिया था जिससे नौ कन्याएं जीमा दी गईं, पंडित जी बोले अरे इसे भी बिठा देती एक लंगूर भी पूज दिया जाता । बातों ही बातों में माँ ने कहा कि  पहले तो यह आठ ही कन्या बुला पाया , बाद में मैंने एक और बुलाने को कहा तो यह ले आया इस तरह नौ हो गईं थीं । फिर जैसे माँ को कुछ याद आया वो काली प्रसाद से बोलीं," क्यों वो नवीन कन्या किसकी बेटी है , उसे तो इधर मैंने नहीं देखा है, शायद कोई नया परिवार आया होगा, " काली प्रसाद बोला, " माँ तू  ! उसे कैसे जानेगी ? वो इस मोहल्ले की नहीं है, वो मेरे क्लास में पढ़ती है" माँ ने पूछ " अच्छा वो किस मोहल्ले में रहती है ? उसके माँ-बाप क्या करते हैं ? " वह बोला. " अरे माँ वह बड़े गरीब घर की है, स्कूल में अक्सर बताती है कि वह कभी कभी केवल छाछ  और रोटी खाकर आती है, मुझे उस पर बहुत दया आती है, मुझे याद आया तो मैंने सोचा कि क्वारी पूजन में वह भी कुछ खा लेगी, उस का पेट भी भर जाएगा और तुम्हारा धर्म भी रह जाएगा " माँ बोली वो तो ठीक है पर वह किसकी बेटी है ? काली प्रसाद बोला , " वो चूड़ी बेचने वाले मुस्तफा चच्चा की बटी है " । इतना सुनते ही माँ दहाड़ मार कर रोने लगी और जोर से चिल्लाने लगी. "सुनते हो  काली के बाबू ! कैसा लड़का जन्मा है ये हमारे घर में ? मेरा तो धर्म ही भ्र्ष्ट  हो गया ! हाय ! हाय !! अब में किसी को भी मुंह दिखाने लायक नहीं रह गई,  कैसा अलक्षिण लड़का है यह , हे भगवान ऐसा लड़का किसी दुश्मन को भी न दे ।" पंडित जी भी अवाक थे, उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था , उन्होंने मन ही मन विचार किया और काली प्रसाद से बोले, " बेटा कल से तू मेरे साथ मंदिर चलेगा और पूजा कार्य में मेरी सहायता करेगा , तूने तो आठवीं तक का सबक याद कर लिया है इसलिए तुझे अब स्कूल जाने की आवश्यकता नहीं है ! " काली प्रसाद को इससे कोई फर्क नहीं पडता था वह दूसरे दिन से पंडित जी के साथ मंदिर जाने लगा और उनके काम में हाथ बंटाने लगा । 


मंदिर में कई भक्तों द्वारा बकरों की बलि भी दी जाती, भक्तों के अनुरोध पर पंडित जी बकरे की बलि पूजा करते और उसके माथे पर रोली का टीका लगाते, और बलि पूर्ण करने वाला गड़ासे से एक ही झटके में बकरे की गर्दन काट देता । काली प्रसाद इस दृश्य को बड़े विस्मय से देखता और बलि के पश्चात भक्तों द्वारा मृत बकरे को अपने साथ ले जाते देखता । उस दिन मिलिट्री के सूबेदाार  साहब बलि देने सपरिवार आये हुए थे, बलि के पश्चात काली प्रसाद ने सूबेदार जी के बड़े लडके से पूछा कि "यह  शेष बकरा तुम लोग किस उद्देश्य से अपने साथ लिए जाते हो ? " सूबेदार जी के पुत्र ने उत्तर दिया कि यह प्रसाद के रूप में घर ले जाया जाता है, और घर में इसे पका कर ईष्ट मित्रों को प्रसाद की तरह बांटा जाता है । काली को बहुत अचरज हुआ वह बोला " पर बलि कार्य में तो हमने  भी सहायता की है, तो यह प्रसाद हमें क्यों नहीं खिलाते हो ? इस पर सूबेदार जी के पुत्र ने उत्तर दिया कि हमारा गाँव पास में ही है. शाम को आ जाना और तुम भी प्रसाद खा लेना " शाम  होते ही काली प्रसाद सूबेदार जी के गाँव गया और वहां पहुँच कर उस लडके से मिला और उसके द्वारा दिए गए प्रसाद को वह बड़े चाव  से खा गया, तभी भीतर से सूबेदार जी निकले और यह दृश्य देखकर बोले/" अरे तू तो पंडित जी का लड़का है तू यह प्रसाद कैसे खा गया ? यह तुम्हारे लिए नहीं है, अरे राम बड़ा पाप हो गया ! अब पंडित जी को पता चलेगा तो वे क्या कहेंगे ? बेटा तू जल्दी से घर जा और हो सके तो रास्ते में उलटी करते हुए जाना, हरे राम, हरे राम ! कैसा कलयुग आ गया है ! "

काली प्रसाद को घर पहुंचते पहुंचते देर हो गई, पंडित जी ने बड़े प्रेम से उससे पूछा। " बेटा ! कहाँ चला गया था ? मैं तो फिक्र के मारे घबरा रहा था? काली प्रसाद कभी झूठ नहीं बोलता था उसने पिताजी से कहा कि." मैं दूसरे गाँव में प्रसाद खाने गया था" पिता बोले." किस गाँव में और कैसा प्रसाद ?" काली ने सारी बात बता दी । घर में कोहराम मच गया , अब तो धैर्यवान पंडित जी भी आग बबूला हो गए और चिल्लाते हुए बोले " अरे दुष्ट ! तुझे मुझसे तो पूछना था ! हम लोग मांस नहीं खाते हैं ! तुझे यह रोग कैसे लग गया ? काली प्रसाद की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जिस बकरे की पूजा कर उसे रोली का टीका  पिताजी लगाते  हैं उस बकरे का प्रसाद वह क्यों नहीं खा सकताा ? 

इति 


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