रानीखेत की निचली खडी बाज़ार के सबसे निचले हिस्से में कपड़ा व्यवसायी नरोत्तम अग्रवाल जी का मकान था , जो सामने से बाजार में खुलता था और पीछे की ओर से लकड़ी की सीढ़ियों के साथ खेतों में उतरता था जहा से एक पगडंडी नीचे के मोहल्लों को जाती थी । अग्रवाल की का व्यवसास बहुत बड़ा तो नहीं था पर वे इतना अवश्य कमा लेते थे कि जीवन मजे में चल रहा था । उनके पुरखे बहुत वर्ष पहले ही यहां बस गए थे और यहां की मनमोहक वादियों के कारण यहीं के हो गए थे । अग्रवाल जी और उनके परिवार के सभी सदस्य बड़ी अच्छी कुमाउनीं बोलते थे, ऐसा नहीं प्रतीत होता था कि वे पर्वतीय नहीं हैं , वैसे वे मूलत: राजस्थान के रहने वाले थे ।
मदन सिंह रावत , जो उन पीछे के खेतों से नीचे करीब एक किलोमीटर दूर रहते थे वे कर्मठ थे , यद्यपि वे किसी सरकारी विभाग में चपरासी के पद पर थे, पर आजीविका को और अच्छा चलाने के लिए उन्होंने कुछ दुधारू मवेशी पाल रखे थे , जिनका दूध वो कुछ लोगों को बेचा करते थे । वे अग्रवाल जी की दूकान के नियमित ग्राहक थे और अक्सर उनकी दूकान से उधार में वस्त्र खरीदा करते और इसको चुकाने के लिए वो महीने भर उनके घर में दूध पहुंचा देते थे । क्योंकि उन्हें आफिस भी जाना रहता था सुबह दूध देते हुए आफिस जाया करते थे । उनका पुत्र दीवान सिंह भी उनके साथ आता और अग्रवाल जी के घर के सामने की पगडंडी पकड़ कर अपने स्कूल को जाया करता, और उसके पिताजी लंबा फेरा लगा कर आफिस को जाते । कालांतर में जब दीवान सिंह बड़ा हुआ तो मदन सिंह ने उससे कहा कि क्यों न वो ही अग्रवाल जी के घर दूध पहुंचा दिया करे और शाम को स्कूल से लौटते वक्त बाल्टी भी लेता आये । इस तरह दीवान सिंह का अग्रवाल जी के घर आना जाना हुआ ।
लवंग लता अग्रवाल जी की पुत्री थी , वह अधिकतर पिछले दरवाजे पर आ कर दूध ले लिया करती थी , उस सरल और गवांर दीवान सिंह को वह अक्सर छेड़ा करती, वह उसकी समवयस्क थी इसलिए दीवान सिंह को उसकी किसी भी छेड़खानी पर ऐतराज न था । लवंगलाता जिसे घरवाले केवल लता कहते थे बड़ी जहीन और सुब्दर थी , उसे सभी कुमाउनीं व्यंजन बनाने में महारथ हासिल थी , स्वभाव से तनिक अंतर्मुखी होने के बाद भी उसे दीवान सिंह को छेड़ने में मजा आता था, शायद घर पर कोई अन्य समवयस्क सदस्य न होने के कारण उसे दीवान सिंह में ही एक मित्र की छवि दिखती थी । अब चूँकि दीवान सिंह के रोज दो फेरे लगते थे तो लता को उसे चिढ़ाने में ज्यादा समय मिल जाता था ।
एक दिन शाम को जब खाली बाल्टी लेते दीवान सिंह ने दरवाजा खटखटाया तो , दरवाजा खुलने पर देखा तो सामने लता खडी थी , वो तुनक कर बोली , " क्यों रे, दिवानियाँ, ये द्वार तेरे बौज्यू ने लगाया है जो इसे इस तरह ठोक रहा है "?
दीवान सिंह - " अरे हद्द हो गई में इसे ठोक कहाँ रहा हूँ, में तो इसे खटखटा रहा था कि तू मुझे बाल्टी दोगी "
लता " आ हां हां , जैसे तू बड़ा लाट साहब है , जो तू ठक-ठक करे और कोई नौकर तुझे तेरी बाल्टी दे दे ! "
दीवान सिंह ," अच्छा ! मेरा क्या है तू मत दे, कल तुझे ही दूध नहीं मिलेगा"
लता, " अरे धमकाता है , ठैर, तेरे बाबू से जो शिकायत नहीं की मैंने "
दीवान सिंह, चुप लगा गया, उसे अपने पिताजी का क्रोध मालूम था ।
लता, " खैर छोड़, तू बता आज तूने स्कूल में क्या पढ़ा ?"
दीवान सिंह गुस्से में बोला," तुझे क्यों बताऊँ ? क्या तू मेरी मास्टरनी लगी हुई है" चल मेरी बाल्टी दे मुझे ढील हो रही है "
लता," ठैरा तू तो गवांणी ही , देर को ढील बोल रहा ठैरा!! , अच्छा ये बता तू ये घुटन्ना ही क्यों पहनता है ? पेंट नहीं ठैरी तेरे पास ?
दीवान सिंह झुंझलाते हुए बोला ," अरे घुटन्ना नहीं जांगियाँ कहने वाले ठैरे इसे ! अब चल ज्यादा बात मत बना और बाल्टी दे !"
मुस्कुराते हुए लता ने उसे खाली बाल्टी दी , और दूर तक उसे जाता देखती रही, इस सोच में कि शायद वह पलट कर देखेगा तो वो उसे जीभ निकाल कर चिढ़ाएगी । पर दीवान सिंह अनमने भाव से लम्बे लम्बे डेग भरता हुआ आँखों से ओझल हो गया ।
दूसरे दिन जब दीवान सिंह दूध लेकर आया तो लता जैसे उसी के इंतज़ार में दरवाजे पर ही खडी थी, आते ही बोली " ज़रा रुक जा, दूध की चेकिंग करनी है, कल ईजा बता रही थी कि जब तेरे बाबू दूध लाते थे तो यह अच्छा होता था पर जब से तू लाने लगा है इसमें पानी मिला कर लाता है, जरूर रास्ते में दूध पी जाता होगा और किसी गधेरे से गंदा पानी इसमे पूरिया देता होगा "
दीवान सिंह की आँखों में आंसू आ गए वो बोला," माँ कसम ! मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है, तुम चाहे किसी की भी कसम दिला दो मैं तैयार हूँ !"
लता बाल्टी का ढक्कन उठा कर दूध चेक करने का नाटक करती हुई बोली," हुम्म ! आज तो दूध ठीक दिख रहा है, पर ये बता कि कभी कभी दूध पतला क्यों रहता है ?"
दीवान सिंह अपनी सरल और सहज वृत्ति से बोला," मैं क्या जानूँ? शायद भैंस ज्यादा पानी पी जाती होगी "
उसकी यह बात सुनकर लता खिलखिलाकर हंस पडी और बोली," अरे जिंदगी भर क्या गवांणी ही रहेगा, बुद्धू कहीं का !" और हँसते हुए वह भीतर चली गई । दीवान सिंह अपलक सोचता रहा कि आखिर वह उससे गवांणी क्यों कहती है । दिन बीतते रहे , दीवान सिंह का दूध लाना और लता का उससे ठिठोली करना जारी रहा ।
एक दिन शाम के समय लता ने उसे कुछ लड्डू दिए और कहा कि इन्हें खा लेना तेरा पेट भर जाएगा , दीवान सिंह को लड्डू बहुत प्रिय थे , जो उसे कभी शादी अथवा अन्य दावतों में ही मिलते थे , वह बहुत प्रसन्न हुआ और लड्डू खा कर ही अपने घर को गया ।
दोनों में अब शाम के समय ज्यादा बातचीत होती, सुबह तो दीवान सिंह को स्कूल की जल्दी होती थी और लता को माँ का हाथ बटाना होता था ।
अब दीवान सिंह दर्जा आठ में पहुँच गया था , उसे दुनियादारी भी समझ आ चुकी थी, वह समझनं लगा था कि लता उसे क्यों छेड़ती है , वह भी खुलकर उससे बातें करता ।
एक दिन लता ने शाम के फेरे में उससे कहा," तो जाँघिया मास्टर तेरे घर में दूध के अलावा भी कुछ होता है?"
दीवान सिंह." क्यों नहीं , बाबू ने हमारे खेतों में दाड़िम,माल्टा और नींबू के पेड़ लगा रखे हैं,"
लता," तो कभी नींबू लाना रे ! मुझे नींबू सान कर खाना अच्छा लगता है,"
दूसरे दिन दीवान सिंह उसके लिए चार बड़े नींबू ले आया, वो बोली." लो अब दही और भांग का नमक और मूली कौन लाएगा? केवल नींबू से थोड़ी काम चलेगा"
सना हुआ नींबू दीवान सिंह की भी कमजोरी थी, उसकी ईजा खेतों में इतना व्यस्त रहती कि बहुत कहने पर ही वह इसे बना पाती । अगले दिन दीवान सिंह एक दूसरी बाल्टी में काफी सारा दही और एक झोले में मूली और भांग लेता आया, और इसे लता को देता हुआ स्कूल चला गया ।
स्कूल में दिन भर उसे लता की याद आती रही , वह मन में कई बार सना हुआ नींबू खा चुका था । शाम होते होते वह दौड़ता हुआ लता के घर पहुंचा, और लता के दरवाजे पर आने पर हांफता हुआ बोला,"मेरे हिस्से का नींबू मुझे खिला !"
लता उसे चिढ़ाने के भाव में बोली," नींबू तो खत्म हो गया रे जाँघिया मास्टर, तूने देर कर दी, अभी अभी पाली धोकर रख आई हूँ"
दीवान सिंह मायूसी से बोला."मैं नींबू लाया, और उसे सानने के लिए बाक़ी चीजें भी लाया, और तूने मेरे लिए कुछ भी नहीं बचाया "
लता को उस पर दया अ गई, वो बोली."अच्छा रो मत, बचा रखा है तेरे लिए भी, रुक अभी लाती हूँ"
लौटकर वह नींबू की पाली और एक कटोरा साथ में लाई और पाली से कटोरे नींबू उलटने लगी, पर यह पदार्थ गाढ़ा था इसलिए उसने हाथ से ही नींबू कटोरे में डाल दिया जिससे उसका हाथ भी नींबू से सन गया । दीवान सिंह सड़प सड़प कर कटोरे से सारा नींबू खा गया, और न जाने उसे क्या सूझा और उसने लपक कर लता का हाथ पकड़ लिया और उसकी उंगलियां चाटने लगा । लता अरे अरे कहती रह गई पर दीवान सिंह उसे छोड़ता न था , जब वह सारी उंगलियां चाट चुका तो बाल्टी लेकर अपने घर को दौड़ पड़ा, लता उसे अपलक देखती रह गई, उसे शरीर में झुरझुरी सी महसूस हुई, वह बड़ी देर तक संज्ञाहीन सी खडी रही, फिर धीमे से उसने पाली और कटोरा उठाया और दरवाजा बंद कर वहीं खडी हो गई । फिर न जाने क्या सोचकर वह अपनी उन्हीं उँगलियों कोचाटने लगी । दूर कहीं ढोली लोग गा रहे थे " तेरो जूठो मैं नि खान्छि, माया ले खवायो " । और उस शाम उसने अपने हाथ भी नहीं धोये ।
अब दीवान सिंह का सामना करना लता के बस में नहीं था, सुबह दूध लेने और शाम को बाल्टी वापस देने वह अपनी नौकरानी को भेजने लगी । दीवान सिंह समझ ही नहीं पाया कि उससे क्या गलती हो गई है । कई महीने बीत गए दीवान सिंह को लता के दीदार न हुए , वह बहुत उदास हो चला था, पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था , वह रोज बड़ी उम्मीद के साथ लता के घर दूध देने जाता पर उसे न पाकर और उदास हो जाता ।
फिर एक दिन जैसे उसके मन मांगी मुराद पूरी हुई, शाम के फेरे में उसे लता दिख गई, जो दूध की खाली बाल्टी लेकर खडी हुई थी , दोनों ने एक दूसरे को देखा और दोनों की आँखों में जैसे ढेर सरे प्रश्न थे ,, दीवान सिंह तो जैसे जड़ हो गया था, बातचीत का सिरा लता ने ही पकड़ा और बोली," ले ये बाल्टी पकड़"
दीवान सिंह,"तू इतने दिन से क्यों नहीं आई,मैं तो परेशान हो गया था"
लता," अच्छा ! परेशान होना भी आ गया तुझे,जाँघिया मास्टर !!,( फिर सहजता से झूठ बोलते हुए बोली) में अपने ननिहाल चली गई थी, आज ही लौटी हूँ , तू बता तेरी पढ़ाई ठीक चल रही है न ? अब तो तू हाईस्कूल में पहुँच गया ठैरा ?"
दीवान सिंह," अरे तेरे बिना मन ही कहाँ लगता था ? तू नहीं थी तो क्या पढ़ाई ?
लता बात काटकर बोली। " अच्छा रहने दे रहने दे बड़ा आया , हाँ नहीं तो ! अरे पढ़ लिख कर मैंस तो बन पहले "
और ऐसा कहकर वह भीतर चली गई , दीवान सिंह बड़ी देर तक उसका इंतजार करता रहा कि शायद वह फिर आयेगी, पर वहां शून्यता व्याप्त थी । बेचारा उदास होकर घर को चला गया ।
भीतर पहुँच कर लता दीवान सिंह की बातें याद कर लजा गई, और आईने में अपने को निहारने लगी, उसकी नेपाली नौकरानी गुनगुना रही थी, " झई कई आंखां मां, कस्तो बस्यो माया प्रीती, सक्ति नामा बिर्सना, तिम्रै होय ले जाऊं जोबना " वह इस भरम को समझ नहीं पा रही थी ।
दीवान सिंह अब हाईस्कूल में पहुँच गया था , घर के कामकाज के अलावा वह लता के उलाहने को भी याद कर अपनी तैयारी कर रहा था, वह रोज ही उसके घर के दो फेरे करता था, अब उन दोनों को एक दूसरे का इंतज़ार रहता । वह बार बार उसे चेताती कि उसे अच्छे नंबरों से पास होना है । आखिरकार वह वक्त भी आया जब वह गुड सेकण्ड डिवीजन पास हुआ, उसके पिता बहुत प्रसन्न थे, उनके खानदान में कोई भी हाईस्कूल पास न था । वे सोचते थे कि चलो अब उनका लड़का सरकारी दफ्तर में बाबू तो लग ही जाएगा । लता भी बहुत खुश थी, उसे अपने प्रोत्साहन की सफलता पर भी खुशी थी ।
रिजल्ट मिलने के बाद वह शाम को सीधा उसके घर पहुंचा , लता ने उसे बधाई दी, वह सकुचाता हुआ बोला," मैंने तेरे लिए अंग्रेजी में कुछ लिखा है, ये ले" और उसे एक तह किया हुआ कागज़ पकड़ा कर यह जा वह जा ।
दूसरे दिन शाम को जब वह उसके घर आया तो लता ने उससे पूछ," क्यों रे जाँघिया मास्टर चिठ्ठी में तूने क्या लिखा ठैरा?, मेरे तो कुछ समझ में नहीं आया "
वो बोला," तूने ठीक से पढ़ा नहीं होगा ?"
लता," अरे तूने तो अंग्रेजी में लिखा है DIWAN AND LATE, दीवान तो तू हुआ पर यह LATE कौन हुआ ?"
दीवान." LATE तू हुई "
वह हँसने लगी और बोली." अरे लाटे ! मेरा नाम अंग्रेजी में LATE नहीं पर LATA लिखा जाएगा , कैसी अंग्रेजी सीखी ठैरी तूने?"
दीवान," मैं भी जनता हूँ पर जैसे रामचन्द्र जी सीताजी को सीते कहते थे उसी प्रकार में तुमको लता की जगह लते कहूँगा "
लता गम्भीर हो गई , और कुछ न बोलकर भीतर चली गई ।
लता को इस तरह लजाता देखकर दीवान सिंह की स्थति अजीब सी हो गई और वह अपने घर लौट गया ।
कुछ दिन बाद शाम की मुलाक़ात में दीवान सिंह ने हिम्मत जुटा कर लता से कहा," मैंने फैसला किया है कि मैं तुझसे ही ब्या करूँगा, चाहे कुछ हो जाय, अगर तू नहीं कहेगी तो मैं आजीवन कुंवारा ही रहूँगा "
लता को इस बात का अनुमान तो था कि दीवान सिंह के दिल में उसके लिए कुछ जगह है पर वह इतना स्पष्टवादी निकलेगा उसे विशवास न था, बात को संभालते हुए वह बोली."देख दिवानियाँ, यह सरल नहीं है, तू ठैरा ठाकुर और में बनिए की संतान, लोग इसे नहीं स्वीकारेंगे , तू इस बात को यहीं ख़त्म कर दे, तेरे ईजा बाबू भी नहीं मानेंगे और मेरे घरवाले तो मुझे काट ही डालेंगे"
दीवान सिंह," लता ! मैंने तो अब ठान ली है मैं तुझसे ही ब्या करूँगा"
"हट पागल कहीं का !! " कहते हुए लता भीतर भाग गई और तकिये में मुंह छिपाकर लेट गई ।
कुछ दिनों तक इस सम्बन्ध में और कोई बात नहीं हुई, दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्करा देते, और दिन बीतते रहे । अचानक एक दिन शाम को लता दीवान सिंह का बेसब्री से इंतजार कर रही थी और दीवान सिंह के आने पर बड़ी व्यग्रता से उससे बोली," पता है मेरे घर वाले मेरी शादी कर रहे हैं "
दीवान सिंह के सर पर जैसे आसमान टूट पड़ा वह हाँफ़ता हुआ बोला ." ये कैसे हो सकता है,तेरा ब्या तो मुझसे होना है, तेरे घरवाले कहीं और कैसे कर सकते हैं ?"
वो बोली," अरे पागल, क्या तूने मेरे घर वालों से इस बारे में कभी कुछ कहा? जो वो मेरी शादी तुझसे कर देंगे, और तू कहता भी तो भला क्या वह राजी हो जायेंगे ?"
दीवान सिंह," अरे ये बात तो अपने घर में तूने कहनी चाहिए ! मुझे मौक़ा लगेगा तो मैं अपने घर में बात करूँगा"
लता," न हो ! मेरी तो इतनी हिम्मत ही नहीं ठैरी, मैं कैसे यह बात कह पाऊँगी ?"
दीवान सिंह," पर बिना कहे बात कैसे बनेगी ? तुझे अपने ईजा बाबू से इस बारे में जल्दी बात कर लेनी चाहिए"
लता, "अरे ! बिलकुल ही पगला गया है क्या? मैं तो लड़की ठैरी, लड़कियों को यह शोभा देता है क्या? " न हो मुझसे ये नहीं होगा"
दीवान सिंह." देख ! मैंने तो ठान ली है कि मैं तुझसे ही ब्या करूँगा, अगसर तूने न कही तो में भ्योल में फाल हाल लूँगा "
लता की आँखों में आंसू आ गए वह रुंधे गले से बोली," अरे फाल हालें तेरे दुश्मन ! अच्छा मैंने एक तरकीब निकाली है , तू मुझे भगा ले जा , बाद में तो घरवालों को राजी होना पडेगा "
दीवान सिह गम्भीरता से बोला," नहीं लता इससे तेरी बहुत बदनामी होगी, मेरी भी कोई कमाई नहीं ठैरी , कैसे हम जिएंगे ?"
लता बैठकर अपने घुटनों में सर दे कर सुबकने लगी । दीवान सिंह," क्या तू अपने घर वालों को इस बात पर राजी नहीं कर सकती कि तू अभी ब्या नहीं करना चाहती ?"
लता ने अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए कहा, ? इससे क्या होगा रे दिवानियाँ ? पहले तो वे मानेंगे नहीं फिर मान भी गए तो क्या बाद में स्थति बदल जाएगी?"
दीवान सिंह," अरे बाद में तो मुझे नौकरी मिल जायेगी, तब में छाती चौड़ी कर तेरे बाबू से तेरा हाथ मांग लूँगा "
लता," जो करना है जल्दी कर ! कल ही बाबू ईजा से कह रहे थे कि इसी लगन में मेरा ब्या कर देंगे, लड़का हल्द्वानी में दूकान चलाता है, भरा पूरा परिवार है, अपनी लता मजे में रहेगी । अब तू ही बता मैं उनके स्यूंण में विघनी कैसे बनूँ ?"
दीवान सिंह बड़ी गम्भीरता से बोला। " चल ठीक है, तू घबड़ाना नहीं , मैं कुछ करता हूँ "
बड़े बुझे मन से दोनों एक दूसरे से विदा हुए ।
घर पहुँच कर बाल्टी को एक तरफ रख कर दीवान सिंह अपनी ईजा से बोला," मैं दूध बोकते बोकते थक गया हूँ , अब मैं बड़ा हो गया हूँ अब यह काम छोटे को दे दो "
ईजा," अरे च्याला ! ऐसा क्यों कहता है ? ज्वान जबान मेंस हो गया है अब तो तुझे और भी काम करने चाहिए, अपने बाबू का खेतों में हाथ बटाना चाहिए , तेरे बौज्यू भी अब रिटायर होने वाले हैं , अरे उनसे कितनी उम्मीद कर सकते हैं हम लोग ?"
दीवान सिंह, " ईजा ! तू भी तो बुडी गई ठैरी, तुझे भी अब कम काम करना चाहिए "
ईजा, अरे च्यला ! मैं न करूँ तो कौन करेगा, क्या तेरे सौर आएंगे करने को ?
दीवान सिंह ," यही तो मैं भी कह रहा हूँ , अब तू अपने काम के लिए ब्वारी ले आ."
ईजा," अच्छा ! अपनी अपनी हो री ठैरी "अरे कुछ कमाना धमाना तो शुरू कर तब तेरे को बिवा भी देंगे " जा भैसों को दौंण दे आ !"
रात में खाना खाने के बाद ईजा ने दीवान के बाबू से कहा कि दीवान सिंह अब जवान हो गया है, दूध देने जाने में अब उसको शर्म लगती है शायद, कल से छोटे को ही भेज दिया करो !"
और दूसरे दिन से दीवान सिंह के फेरे लगने बंद हो गए । इस बीच कुमाऊँ रेजीमेंट में सिपाहियों की भर्ती चल रही थी, दीवान सिंह वहां जा कर इम्तिहान दे आया , वह बलिष्ठ तो था ही उस पर हाईस्कूल भी पास था इसलिए अधिकारियों ने उसे भर्ती कर लिया । बहुत डरते डरते हुई उसने अपने बाबू से कहा कि वह सिपाही की भर्ती दे आया है , पहले तो उसके बाबू बहुत नाराज हुए फिर दीवान के समझाने पर वे राजी हो गए, कि क्लर्क बनाने से अच्छा देश का सिपाही बनना है । सेना ने उसे ट्रेनिंग के लिए पिथौरागढ़ की दुर्गम पहाड़ियों पर भेज दिया । जाने से पहले वह कई बार लता से मिलने उसके घर गया पर संयोग से उसकी मुलाक़ात न हो पाई । आखिर थक हार कर उसने लता को एक चिठ्ठी लिखी और छोटे के हाथ में लता को देने के लिए दी , जिसमें उसने सारी परिस्थति बयान की और लता से धीरज रखने को कहा था, उसने यह भी ताकीद की थी कि वह ट्रेनिंग पूरी होने पर वापस आएगा और उसके बाबू से उसका हाथ मांग लेगा । और दूसरे दिन वह ट्रेनिंग पर चला गया । छोटू अभी छोटा ही था इसलिए वह चिठ्ठी देने से पहले अपनी ईजा को बताने चला गया । ईजा ने उससे कहा कि वह उसे चिठ्ठी पढ़कर सुनाये, छोटू ने चिठ्ठी पढ़ी तो ईजा को दीवान सिंह के मंसूबों का पता चला , उसने छोटू से चिठ्ठी ले ली और कहा कि ," तू रहने दे मैं ही यह चिठ्ठी पहुंचा दूंगी " बाद में ईजा ने वह चिठ्ठी फाड़ कर गधेरे में बहा दी, उसने इस बात का जिक्र किसी से भी नही किया, उसने सोचा कि यह नया नया भूत लगा है, बाद में सब ठीक हो जाएगा ।
उधर लता ने दीवान सिंह का बहुत इंतज़ार किया , वो जानना चाहती थी कि आखिर दीवान सिंह उसे किस भरोसे दिलासा दे कर गया है , अपना तो वह आया ही नहीं और दूध देने उसका छोटा भाई आ रहा है } छोटू से इस सम्बन्ध में कोई बात संभव नहीं थी , पर एक दिन उसने छोटू से पूछ ही लिया ," अरे सुन तो ! आजकल वो तेरा भाई दूध देने नहीं आ रहा है, क्या बात हो गई ? क्या बीमार शीमार चल रहा है?" छोटू ने उसे बताया कि दाज्यू लाम में चले गए हैं अब ट्रेनिंग पूरी होने के बाद ही आएंगे । यह सुनकर लता का गला भर आया, वह सोचने लगी इस दिवानियाँ ने मेरे खातिर आगे की पढ़ाई छोड़ दी और फ़ौज में भर्ती हो गया । पर वह इतनी साहसी न थी कि अपने माँ बाप से अपने प्रेम के बारे में कह सके ।
और लता का विवाह उस वणिक से हो गया, अग्रवाल जी ने शादी में कोई कसार नहीं छोड़ी थी , समय के हिसाब से उन्होंने भरपूर दहेज़ दिया । जामाता सुशील था पर आम वणिक पुत्रों की भाँति थुलथुल, था , उस पर उसके चहरे पर चेचक के दाग थे जिससे वह कुरूप भी था । पर वह व्यापार करने में बहुत चतुर था, बहुत ही कम समय में उसने हल्द्वानी में अपनी दूकान का विस्तार कर लिया था, अपने कमाए धन से उसने एक और दुकाएं खोल ली थी , जिसमें उसका छोटा भाई बैठा करता था, इस प्रकार दोनों दुकानों से बहुत अच्छी आमदनी होती थी, हल्द्वानी में ही उसने एक आलीशान मकान भी बनवा लिया था , जिसमे एक मोटरकार खरीद कर रखने की उसकी योजना थी । विदाई के समय लता जार जार रोई, उसे ये सोचकर ज्यादा रुलाई आ रही थी कि वह दीवान सिंह के लिए रुक नहीं सकी, उसे इस प्रकार रोते देखकर उसकी माँ ने सोचा कि इतने लाड प्यार में पाली हुई है इसलिए इसे अपना मायका छोड़ने में रुलाई आ रही है । और उसकी डोली विदा हो गई ।
उधर छह महीने ट्रेनिंग के बाद दीवान सिंह लौटा तो बड़े उत्साह में वह लता के घर गया वहां उसे मालूम पड़ा कि उसकी तो शादी हो गई है " यह सुनकर दीवान सिंह वहीं सीढ़ियों पर बैठ गया और फूट फूट कर रोने लगा, बहुत देर बाद जान उसकी रुलाई रुकी तो उसने पीछे दरवाजे की तरफ देखा, जो मजबूती से बंद था , देली पर ऐंपण दिए हुए थे,जिन्हें लता ही देती थी, वह उन ऐंपणों पर धीरे धीरे हाथ फेरता रहा, मानो वो लता का हाथ हो । घर वापस आ कर वह किसी से कुछ नहीं बोला , उसे मालूम था कि अब किसी से कुछ कहने का मतलब नहीं रह जाएगा, इससे लता की ही बदनामी होगी जो अब ब्याह कर अपने ससुराल चली गई है, उसकी जिंदगी में उथल पुथल मच जाएगी । एक हफ्ता घर पर रह कर वह अपनी पोस्टिंग पर चला गया । अब वह त्योहारों पर भी अपने घर नहीं आता था, ईजा उसकी भावनाओं को समझती थी पर वह भी क्या कर सकती थी ।
समय का चक्र घूमता रहा कई वर्ष बीत गए । हल्द्वानी में लता अपना विवाहित जीवन बिता रही थी, गृहस्थी के कामों में उसे बहुत फुर्सत नहीं मिलती थी, कई साल से वह अपने मायके भी नहीं जा पाई थी । उसे शुरू के कुछ वर्ष तो बच्चों को संभालने में ही लग गए, बाद में उसके पति ने घर पर कई नौकर चाकर लगा दिए, बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए एक आया थी, बाद में बच्चे स्कूल बस से जाया करते । अब समय ही समय था, उसके पति ने उसे सुझाव दिया कि वह उसके साथ व्यापार में हाथ बंटाए, जिससे उसका खाली समय का उपयोग भी हो जाएगा साथ ही घर पर अतिरिक्त आमदनी भी आयेगी । वह होशियार तो थी ही , जल्दी ही व्यापार की बारीकियों को समझ गई, उसके प्रयास से उसके पति ने और कई दुकानें खोल लीं जिनमें एक में वह आफिस बना कर बैठ करती,उस प्रतिष्ठान के सारे लेन - देन लता की ही निगरानी में ही होते । इस प्रकार जीवन की गाडी अबाध रूप से चल रही थी ।
उस दिन बाह अपने कमरे में बैठ कर रेडियो सुन रही थी और साथ में एक पत्रिका पढ़ रही कि उसे आँगन से अपनी सास की आवाज सुनाई पडी जो उसके देवर से पूछ रही थी," आज दूकान बंद करते बहुत देर हो गई, क्या काम ज्यादा था?" वह बोला नहीं मां! आज तो बाज़ार बहुत पहले ही बंद हो गई थी " उसकी माँ बोली पर तुझे इतनी देर क्यों हो गई ?" वह बोला ," अरे माँ आज उत्तराखंड के एक वीर सिपाही की शव यात्रा के कारण मिलिट्री वालों ने रास्ता ही बंद कर दिया था, उस वीर की अंतिम यात्रा देखने सारा हल्द्वानी उमड़ पड़ा था, सभी लोगों ने अपनी दुकानें बंद कर दी थी, इतना हुजूम मैंने हल्द्वानी में पहले नहीं देखा था " उसकी माँ बोली. कौन था वह वीर सिपाही ?" उसने उत्तर दिया," लोग बता रहे थे गज़ब का पराक्रमी था वह, यहीं रानीखेत का है वह, लोग बता रहे थे कि उसने देश के लिए अपना बलिदान पहले ही दे दिया था तभी तो वह अपने नाम के आगे LATE लिखता था यानी LATE DIWAN SINGH. ऐसे अदम्य बीर और साहसी को सरकार ने महाबीर चक्र से सम्मानित किया है, हम सभी लोग उसकी अंतिम यात्रा को देखने लगे, सभी की आँखें नम थीं, मैंने तो उस वीर के पार्थिव शरीर पर फूल भी चढ़ाये, हल्द्वानी से उसे रानीखेत ले जाया जा रहा था, रास्ते भर उसका सम्मान किया जाएगा "
यह सुनकर लता का कलेजा मुंह को आ गया , वह दौड़कर बाथरूम की ओर भागी, भीतर से चिटकनी बंद कर उसने साडी के पल्लू को अपने मुंह में ठूंस लिया और जोर जोर से हिचकियाँ भरने लगी , आंसुओं से उसका बदन भीग गया, फिर धीरे धीरे वह बाथरूम के फर्श पर बैठ गई और सुबकने लगी, उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं । काफी देर बाद जब उसे होश आया और अपनी वर्तमान स्थति का आभास हुआ तो उसने अपना मुंह धोया और शीशे में अपना चेहरा देखा तो उसके पपोटे सूजे हुए थे, आाँखें अभी भी आंसुओं से डूबी हुई थीं, लड़खड़ाते कदमों से वह बाहर निकली और अपने कमरे की तरफ बढ़ी, कमरे में पहुंचते ही वह धम्म से बिस्तर पर गिर गई, तभी रेडियो पर तलत महमूद की ग़ज़ल बजने लगी," आज किसी ने बातों बातों में जब उनका नाम लिया, दिल ने जैसे ठोकर खाई दर्द ने बढ़कर थाम लिया "
इति
मदन सिंह रावत , जो उन पीछे के खेतों से नीचे करीब एक किलोमीटर दूर रहते थे वे कर्मठ थे , यद्यपि वे किसी सरकारी विभाग में चपरासी के पद पर थे, पर आजीविका को और अच्छा चलाने के लिए उन्होंने कुछ दुधारू मवेशी पाल रखे थे , जिनका दूध वो कुछ लोगों को बेचा करते थे । वे अग्रवाल जी की दूकान के नियमित ग्राहक थे और अक्सर उनकी दूकान से उधार में वस्त्र खरीदा करते और इसको चुकाने के लिए वो महीने भर उनके घर में दूध पहुंचा देते थे । क्योंकि उन्हें आफिस भी जाना रहता था सुबह दूध देते हुए आफिस जाया करते थे । उनका पुत्र दीवान सिंह भी उनके साथ आता और अग्रवाल जी के घर के सामने की पगडंडी पकड़ कर अपने स्कूल को जाया करता, और उसके पिताजी लंबा फेरा लगा कर आफिस को जाते । कालांतर में जब दीवान सिंह बड़ा हुआ तो मदन सिंह ने उससे कहा कि क्यों न वो ही अग्रवाल जी के घर दूध पहुंचा दिया करे और शाम को स्कूल से लौटते वक्त बाल्टी भी लेता आये । इस तरह दीवान सिंह का अग्रवाल जी के घर आना जाना हुआ ।
लवंग लता अग्रवाल जी की पुत्री थी , वह अधिकतर पिछले दरवाजे पर आ कर दूध ले लिया करती थी , उस सरल और गवांर दीवान सिंह को वह अक्सर छेड़ा करती, वह उसकी समवयस्क थी इसलिए दीवान सिंह को उसकी किसी भी छेड़खानी पर ऐतराज न था । लवंगलाता जिसे घरवाले केवल लता कहते थे बड़ी जहीन और सुब्दर थी , उसे सभी कुमाउनीं व्यंजन बनाने में महारथ हासिल थी , स्वभाव से तनिक अंतर्मुखी होने के बाद भी उसे दीवान सिंह को छेड़ने में मजा आता था, शायद घर पर कोई अन्य समवयस्क सदस्य न होने के कारण उसे दीवान सिंह में ही एक मित्र की छवि दिखती थी । अब चूँकि दीवान सिंह के रोज दो फेरे लगते थे तो लता को उसे चिढ़ाने में ज्यादा समय मिल जाता था ।
एक दिन शाम को जब खाली बाल्टी लेते दीवान सिंह ने दरवाजा खटखटाया तो , दरवाजा खुलने पर देखा तो सामने लता खडी थी , वो तुनक कर बोली , " क्यों रे, दिवानियाँ, ये द्वार तेरे बौज्यू ने लगाया है जो इसे इस तरह ठोक रहा है "?
दीवान सिंह - " अरे हद्द हो गई में इसे ठोक कहाँ रहा हूँ, में तो इसे खटखटा रहा था कि तू मुझे बाल्टी दोगी "
लता " आ हां हां , जैसे तू बड़ा लाट साहब है , जो तू ठक-ठक करे और कोई नौकर तुझे तेरी बाल्टी दे दे ! "
दीवान सिंह ," अच्छा ! मेरा क्या है तू मत दे, कल तुझे ही दूध नहीं मिलेगा"
लता, " अरे धमकाता है , ठैर, तेरे बाबू से जो शिकायत नहीं की मैंने "
दीवान सिंह, चुप लगा गया, उसे अपने पिताजी का क्रोध मालूम था ।
लता, " खैर छोड़, तू बता आज तूने स्कूल में क्या पढ़ा ?"
दीवान सिंह गुस्से में बोला," तुझे क्यों बताऊँ ? क्या तू मेरी मास्टरनी लगी हुई है" चल मेरी बाल्टी दे मुझे ढील हो रही है "
लता," ठैरा तू तो गवांणी ही , देर को ढील बोल रहा ठैरा!! , अच्छा ये बता तू ये घुटन्ना ही क्यों पहनता है ? पेंट नहीं ठैरी तेरे पास ?
दीवान सिंह झुंझलाते हुए बोला ," अरे घुटन्ना नहीं जांगियाँ कहने वाले ठैरे इसे ! अब चल ज्यादा बात मत बना और बाल्टी दे !"
मुस्कुराते हुए लता ने उसे खाली बाल्टी दी , और दूर तक उसे जाता देखती रही, इस सोच में कि शायद वह पलट कर देखेगा तो वो उसे जीभ निकाल कर चिढ़ाएगी । पर दीवान सिंह अनमने भाव से लम्बे लम्बे डेग भरता हुआ आँखों से ओझल हो गया ।
दूसरे दिन जब दीवान सिंह दूध लेकर आया तो लता जैसे उसी के इंतज़ार में दरवाजे पर ही खडी थी, आते ही बोली " ज़रा रुक जा, दूध की चेकिंग करनी है, कल ईजा बता रही थी कि जब तेरे बाबू दूध लाते थे तो यह अच्छा होता था पर जब से तू लाने लगा है इसमें पानी मिला कर लाता है, जरूर रास्ते में दूध पी जाता होगा और किसी गधेरे से गंदा पानी इसमे पूरिया देता होगा "
दीवान सिंह की आँखों में आंसू आ गए वो बोला," माँ कसम ! मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है, तुम चाहे किसी की भी कसम दिला दो मैं तैयार हूँ !"
लता बाल्टी का ढक्कन उठा कर दूध चेक करने का नाटक करती हुई बोली," हुम्म ! आज तो दूध ठीक दिख रहा है, पर ये बता कि कभी कभी दूध पतला क्यों रहता है ?"
दीवान सिंह अपनी सरल और सहज वृत्ति से बोला," मैं क्या जानूँ? शायद भैंस ज्यादा पानी पी जाती होगी "
उसकी यह बात सुनकर लता खिलखिलाकर हंस पडी और बोली," अरे जिंदगी भर क्या गवांणी ही रहेगा, बुद्धू कहीं का !" और हँसते हुए वह भीतर चली गई । दीवान सिंह अपलक सोचता रहा कि आखिर वह उससे गवांणी क्यों कहती है । दिन बीतते रहे , दीवान सिंह का दूध लाना और लता का उससे ठिठोली करना जारी रहा ।
एक दिन शाम के समय लता ने उसे कुछ लड्डू दिए और कहा कि इन्हें खा लेना तेरा पेट भर जाएगा , दीवान सिंह को लड्डू बहुत प्रिय थे , जो उसे कभी शादी अथवा अन्य दावतों में ही मिलते थे , वह बहुत प्रसन्न हुआ और लड्डू खा कर ही अपने घर को गया ।
दोनों में अब शाम के समय ज्यादा बातचीत होती, सुबह तो दीवान सिंह को स्कूल की जल्दी होती थी और लता को माँ का हाथ बटाना होता था ।
अब दीवान सिंह दर्जा आठ में पहुँच गया था , उसे दुनियादारी भी समझ आ चुकी थी, वह समझनं लगा था कि लता उसे क्यों छेड़ती है , वह भी खुलकर उससे बातें करता ।
एक दिन लता ने शाम के फेरे में उससे कहा," तो जाँघिया मास्टर तेरे घर में दूध के अलावा भी कुछ होता है?"
दीवान सिंह." क्यों नहीं , बाबू ने हमारे खेतों में दाड़िम,माल्टा और नींबू के पेड़ लगा रखे हैं,"
लता," तो कभी नींबू लाना रे ! मुझे नींबू सान कर खाना अच्छा लगता है,"
दूसरे दिन दीवान सिंह उसके लिए चार बड़े नींबू ले आया, वो बोली." लो अब दही और भांग का नमक और मूली कौन लाएगा? केवल नींबू से थोड़ी काम चलेगा"
सना हुआ नींबू दीवान सिंह की भी कमजोरी थी, उसकी ईजा खेतों में इतना व्यस्त रहती कि बहुत कहने पर ही वह इसे बना पाती । अगले दिन दीवान सिंह एक दूसरी बाल्टी में काफी सारा दही और एक झोले में मूली और भांग लेता आया, और इसे लता को देता हुआ स्कूल चला गया ।
स्कूल में दिन भर उसे लता की याद आती रही , वह मन में कई बार सना हुआ नींबू खा चुका था । शाम होते होते वह दौड़ता हुआ लता के घर पहुंचा, और लता के दरवाजे पर आने पर हांफता हुआ बोला,"मेरे हिस्से का नींबू मुझे खिला !"
लता उसे चिढ़ाने के भाव में बोली," नींबू तो खत्म हो गया रे जाँघिया मास्टर, तूने देर कर दी, अभी अभी पाली धोकर रख आई हूँ"
दीवान सिंह मायूसी से बोला."मैं नींबू लाया, और उसे सानने के लिए बाक़ी चीजें भी लाया, और तूने मेरे लिए कुछ भी नहीं बचाया "
लता को उस पर दया अ गई, वो बोली."अच्छा रो मत, बचा रखा है तेरे लिए भी, रुक अभी लाती हूँ"
लौटकर वह नींबू की पाली और एक कटोरा साथ में लाई और पाली से कटोरे नींबू उलटने लगी, पर यह पदार्थ गाढ़ा था इसलिए उसने हाथ से ही नींबू कटोरे में डाल दिया जिससे उसका हाथ भी नींबू से सन गया । दीवान सिंह सड़प सड़प कर कटोरे से सारा नींबू खा गया, और न जाने उसे क्या सूझा और उसने लपक कर लता का हाथ पकड़ लिया और उसकी उंगलियां चाटने लगा । लता अरे अरे कहती रह गई पर दीवान सिंह उसे छोड़ता न था , जब वह सारी उंगलियां चाट चुका तो बाल्टी लेकर अपने घर को दौड़ पड़ा, लता उसे अपलक देखती रह गई, उसे शरीर में झुरझुरी सी महसूस हुई, वह बड़ी देर तक संज्ञाहीन सी खडी रही, फिर धीमे से उसने पाली और कटोरा उठाया और दरवाजा बंद कर वहीं खडी हो गई । फिर न जाने क्या सोचकर वह अपनी उन्हीं उँगलियों कोचाटने लगी । दूर कहीं ढोली लोग गा रहे थे " तेरो जूठो मैं नि खान्छि, माया ले खवायो " । और उस शाम उसने अपने हाथ भी नहीं धोये ।
अब दीवान सिंह का सामना करना लता के बस में नहीं था, सुबह दूध लेने और शाम को बाल्टी वापस देने वह अपनी नौकरानी को भेजने लगी । दीवान सिंह समझ ही नहीं पाया कि उससे क्या गलती हो गई है । कई महीने बीत गए दीवान सिंह को लता के दीदार न हुए , वह बहुत उदास हो चला था, पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था , वह रोज बड़ी उम्मीद के साथ लता के घर दूध देने जाता पर उसे न पाकर और उदास हो जाता ।
फिर एक दिन जैसे उसके मन मांगी मुराद पूरी हुई, शाम के फेरे में उसे लता दिख गई, जो दूध की खाली बाल्टी लेकर खडी हुई थी , दोनों ने एक दूसरे को देखा और दोनों की आँखों में जैसे ढेर सरे प्रश्न थे ,, दीवान सिंह तो जैसे जड़ हो गया था, बातचीत का सिरा लता ने ही पकड़ा और बोली," ले ये बाल्टी पकड़"
दीवान सिंह,"तू इतने दिन से क्यों नहीं आई,मैं तो परेशान हो गया था"
लता," अच्छा ! परेशान होना भी आ गया तुझे,जाँघिया मास्टर !!,( फिर सहजता से झूठ बोलते हुए बोली) में अपने ननिहाल चली गई थी, आज ही लौटी हूँ , तू बता तेरी पढ़ाई ठीक चल रही है न ? अब तो तू हाईस्कूल में पहुँच गया ठैरा ?"
दीवान सिंह," अरे तेरे बिना मन ही कहाँ लगता था ? तू नहीं थी तो क्या पढ़ाई ?
लता बात काटकर बोली। " अच्छा रहने दे रहने दे बड़ा आया , हाँ नहीं तो ! अरे पढ़ लिख कर मैंस तो बन पहले "
और ऐसा कहकर वह भीतर चली गई , दीवान सिंह बड़ी देर तक उसका इंतजार करता रहा कि शायद वह फिर आयेगी, पर वहां शून्यता व्याप्त थी । बेचारा उदास होकर घर को चला गया ।
भीतर पहुँच कर लता दीवान सिंह की बातें याद कर लजा गई, और आईने में अपने को निहारने लगी, उसकी नेपाली नौकरानी गुनगुना रही थी, " झई कई आंखां मां, कस्तो बस्यो माया प्रीती, सक्ति नामा बिर्सना, तिम्रै होय ले जाऊं जोबना " वह इस भरम को समझ नहीं पा रही थी ।
दीवान सिंह अब हाईस्कूल में पहुँच गया था , घर के कामकाज के अलावा वह लता के उलाहने को भी याद कर अपनी तैयारी कर रहा था, वह रोज ही उसके घर के दो फेरे करता था, अब उन दोनों को एक दूसरे का इंतज़ार रहता । वह बार बार उसे चेताती कि उसे अच्छे नंबरों से पास होना है । आखिरकार वह वक्त भी आया जब वह गुड सेकण्ड डिवीजन पास हुआ, उसके पिता बहुत प्रसन्न थे, उनके खानदान में कोई भी हाईस्कूल पास न था । वे सोचते थे कि चलो अब उनका लड़का सरकारी दफ्तर में बाबू तो लग ही जाएगा । लता भी बहुत खुश थी, उसे अपने प्रोत्साहन की सफलता पर भी खुशी थी ।
रिजल्ट मिलने के बाद वह शाम को सीधा उसके घर पहुंचा , लता ने उसे बधाई दी, वह सकुचाता हुआ बोला," मैंने तेरे लिए अंग्रेजी में कुछ लिखा है, ये ले" और उसे एक तह किया हुआ कागज़ पकड़ा कर यह जा वह जा ।
दूसरे दिन शाम को जब वह उसके घर आया तो लता ने उससे पूछ," क्यों रे जाँघिया मास्टर चिठ्ठी में तूने क्या लिखा ठैरा?, मेरे तो कुछ समझ में नहीं आया "
वो बोला," तूने ठीक से पढ़ा नहीं होगा ?"
लता," अरे तूने तो अंग्रेजी में लिखा है DIWAN AND LATE, दीवान तो तू हुआ पर यह LATE कौन हुआ ?"
दीवान." LATE तू हुई "
वह हँसने लगी और बोली." अरे लाटे ! मेरा नाम अंग्रेजी में LATE नहीं पर LATA लिखा जाएगा , कैसी अंग्रेजी सीखी ठैरी तूने?"
दीवान," मैं भी जनता हूँ पर जैसे रामचन्द्र जी सीताजी को सीते कहते थे उसी प्रकार में तुमको लता की जगह लते कहूँगा "
लता गम्भीर हो गई , और कुछ न बोलकर भीतर चली गई ।
लता को इस तरह लजाता देखकर दीवान सिंह की स्थति अजीब सी हो गई और वह अपने घर लौट गया ।
कुछ दिन बाद शाम की मुलाक़ात में दीवान सिंह ने हिम्मत जुटा कर लता से कहा," मैंने फैसला किया है कि मैं तुझसे ही ब्या करूँगा, चाहे कुछ हो जाय, अगर तू नहीं कहेगी तो मैं आजीवन कुंवारा ही रहूँगा "
लता को इस बात का अनुमान तो था कि दीवान सिंह के दिल में उसके लिए कुछ जगह है पर वह इतना स्पष्टवादी निकलेगा उसे विशवास न था, बात को संभालते हुए वह बोली."देख दिवानियाँ, यह सरल नहीं है, तू ठैरा ठाकुर और में बनिए की संतान, लोग इसे नहीं स्वीकारेंगे , तू इस बात को यहीं ख़त्म कर दे, तेरे ईजा बाबू भी नहीं मानेंगे और मेरे घरवाले तो मुझे काट ही डालेंगे"
दीवान सिंह," लता ! मैंने तो अब ठान ली है मैं तुझसे ही ब्या करूँगा"
"हट पागल कहीं का !! " कहते हुए लता भीतर भाग गई और तकिये में मुंह छिपाकर लेट गई ।
कुछ दिनों तक इस सम्बन्ध में और कोई बात नहीं हुई, दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्करा देते, और दिन बीतते रहे । अचानक एक दिन शाम को लता दीवान सिंह का बेसब्री से इंतजार कर रही थी और दीवान सिंह के आने पर बड़ी व्यग्रता से उससे बोली," पता है मेरे घर वाले मेरी शादी कर रहे हैं "
दीवान सिंह के सर पर जैसे आसमान टूट पड़ा वह हाँफ़ता हुआ बोला ." ये कैसे हो सकता है,तेरा ब्या तो मुझसे होना है, तेरे घरवाले कहीं और कैसे कर सकते हैं ?"
वो बोली," अरे पागल, क्या तूने मेरे घर वालों से इस बारे में कभी कुछ कहा? जो वो मेरी शादी तुझसे कर देंगे, और तू कहता भी तो भला क्या वह राजी हो जायेंगे ?"
दीवान सिंह," अरे ये बात तो अपने घर में तूने कहनी चाहिए ! मुझे मौक़ा लगेगा तो मैं अपने घर में बात करूँगा"
लता," न हो ! मेरी तो इतनी हिम्मत ही नहीं ठैरी, मैं कैसे यह बात कह पाऊँगी ?"
दीवान सिंह," पर बिना कहे बात कैसे बनेगी ? तुझे अपने ईजा बाबू से इस बारे में जल्दी बात कर लेनी चाहिए"
लता, "अरे ! बिलकुल ही पगला गया है क्या? मैं तो लड़की ठैरी, लड़कियों को यह शोभा देता है क्या? " न हो मुझसे ये नहीं होगा"
दीवान सिंह." देख ! मैंने तो ठान ली है कि मैं तुझसे ही ब्या करूँगा, अगसर तूने न कही तो में भ्योल में फाल हाल लूँगा "
लता की आँखों में आंसू आ गए वह रुंधे गले से बोली," अरे फाल हालें तेरे दुश्मन ! अच्छा मैंने एक तरकीब निकाली है , तू मुझे भगा ले जा , बाद में तो घरवालों को राजी होना पडेगा "
दीवान सिह गम्भीरता से बोला," नहीं लता इससे तेरी बहुत बदनामी होगी, मेरी भी कोई कमाई नहीं ठैरी , कैसे हम जिएंगे ?"
लता बैठकर अपने घुटनों में सर दे कर सुबकने लगी । दीवान सिंह," क्या तू अपने घर वालों को इस बात पर राजी नहीं कर सकती कि तू अभी ब्या नहीं करना चाहती ?"
लता ने अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए कहा, ? इससे क्या होगा रे दिवानियाँ ? पहले तो वे मानेंगे नहीं फिर मान भी गए तो क्या बाद में स्थति बदल जाएगी?"
दीवान सिंह," अरे बाद में तो मुझे नौकरी मिल जायेगी, तब में छाती चौड़ी कर तेरे बाबू से तेरा हाथ मांग लूँगा "
लता," जो करना है जल्दी कर ! कल ही बाबू ईजा से कह रहे थे कि इसी लगन में मेरा ब्या कर देंगे, लड़का हल्द्वानी में दूकान चलाता है, भरा पूरा परिवार है, अपनी लता मजे में रहेगी । अब तू ही बता मैं उनके स्यूंण में विघनी कैसे बनूँ ?"
दीवान सिंह बड़ी गम्भीरता से बोला। " चल ठीक है, तू घबड़ाना नहीं , मैं कुछ करता हूँ "
बड़े बुझे मन से दोनों एक दूसरे से विदा हुए ।
घर पहुँच कर बाल्टी को एक तरफ रख कर दीवान सिंह अपनी ईजा से बोला," मैं दूध बोकते बोकते थक गया हूँ , अब मैं बड़ा हो गया हूँ अब यह काम छोटे को दे दो "
ईजा," अरे च्याला ! ऐसा क्यों कहता है ? ज्वान जबान मेंस हो गया है अब तो तुझे और भी काम करने चाहिए, अपने बाबू का खेतों में हाथ बटाना चाहिए , तेरे बौज्यू भी अब रिटायर होने वाले हैं , अरे उनसे कितनी उम्मीद कर सकते हैं हम लोग ?"
दीवान सिंह, " ईजा ! तू भी तो बुडी गई ठैरी, तुझे भी अब कम काम करना चाहिए "
ईजा, अरे च्यला ! मैं न करूँ तो कौन करेगा, क्या तेरे सौर आएंगे करने को ?
दीवान सिंह ," यही तो मैं भी कह रहा हूँ , अब तू अपने काम के लिए ब्वारी ले आ."
ईजा," अच्छा ! अपनी अपनी हो री ठैरी "अरे कुछ कमाना धमाना तो शुरू कर तब तेरे को बिवा भी देंगे " जा भैसों को दौंण दे आ !"
रात में खाना खाने के बाद ईजा ने दीवान के बाबू से कहा कि दीवान सिंह अब जवान हो गया है, दूध देने जाने में अब उसको शर्म लगती है शायद, कल से छोटे को ही भेज दिया करो !"
और दूसरे दिन से दीवान सिंह के फेरे लगने बंद हो गए । इस बीच कुमाऊँ रेजीमेंट में सिपाहियों की भर्ती चल रही थी, दीवान सिंह वहां जा कर इम्तिहान दे आया , वह बलिष्ठ तो था ही उस पर हाईस्कूल भी पास था इसलिए अधिकारियों ने उसे भर्ती कर लिया । बहुत डरते डरते हुई उसने अपने बाबू से कहा कि वह सिपाही की भर्ती दे आया है , पहले तो उसके बाबू बहुत नाराज हुए फिर दीवान के समझाने पर वे राजी हो गए, कि क्लर्क बनाने से अच्छा देश का सिपाही बनना है । सेना ने उसे ट्रेनिंग के लिए पिथौरागढ़ की दुर्गम पहाड़ियों पर भेज दिया । जाने से पहले वह कई बार लता से मिलने उसके घर गया पर संयोग से उसकी मुलाक़ात न हो पाई । आखिर थक हार कर उसने लता को एक चिठ्ठी लिखी और छोटे के हाथ में लता को देने के लिए दी , जिसमें उसने सारी परिस्थति बयान की और लता से धीरज रखने को कहा था, उसने यह भी ताकीद की थी कि वह ट्रेनिंग पूरी होने पर वापस आएगा और उसके बाबू से उसका हाथ मांग लेगा । और दूसरे दिन वह ट्रेनिंग पर चला गया । छोटू अभी छोटा ही था इसलिए वह चिठ्ठी देने से पहले अपनी ईजा को बताने चला गया । ईजा ने उससे कहा कि वह उसे चिठ्ठी पढ़कर सुनाये, छोटू ने चिठ्ठी पढ़ी तो ईजा को दीवान सिंह के मंसूबों का पता चला , उसने छोटू से चिठ्ठी ले ली और कहा कि ," तू रहने दे मैं ही यह चिठ्ठी पहुंचा दूंगी " बाद में ईजा ने वह चिठ्ठी फाड़ कर गधेरे में बहा दी, उसने इस बात का जिक्र किसी से भी नही किया, उसने सोचा कि यह नया नया भूत लगा है, बाद में सब ठीक हो जाएगा ।
उधर लता ने दीवान सिंह का बहुत इंतज़ार किया , वो जानना चाहती थी कि आखिर दीवान सिंह उसे किस भरोसे दिलासा दे कर गया है , अपना तो वह आया ही नहीं और दूध देने उसका छोटा भाई आ रहा है } छोटू से इस सम्बन्ध में कोई बात संभव नहीं थी , पर एक दिन उसने छोटू से पूछ ही लिया ," अरे सुन तो ! आजकल वो तेरा भाई दूध देने नहीं आ रहा है, क्या बात हो गई ? क्या बीमार शीमार चल रहा है?" छोटू ने उसे बताया कि दाज्यू लाम में चले गए हैं अब ट्रेनिंग पूरी होने के बाद ही आएंगे । यह सुनकर लता का गला भर आया, वह सोचने लगी इस दिवानियाँ ने मेरे खातिर आगे की पढ़ाई छोड़ दी और फ़ौज में भर्ती हो गया । पर वह इतनी साहसी न थी कि अपने माँ बाप से अपने प्रेम के बारे में कह सके ।
और लता का विवाह उस वणिक से हो गया, अग्रवाल जी ने शादी में कोई कसार नहीं छोड़ी थी , समय के हिसाब से उन्होंने भरपूर दहेज़ दिया । जामाता सुशील था पर आम वणिक पुत्रों की भाँति थुलथुल, था , उस पर उसके चहरे पर चेचक के दाग थे जिससे वह कुरूप भी था । पर वह व्यापार करने में बहुत चतुर था, बहुत ही कम समय में उसने हल्द्वानी में अपनी दूकान का विस्तार कर लिया था, अपने कमाए धन से उसने एक और दुकाएं खोल ली थी , जिसमें उसका छोटा भाई बैठा करता था, इस प्रकार दोनों दुकानों से बहुत अच्छी आमदनी होती थी, हल्द्वानी में ही उसने एक आलीशान मकान भी बनवा लिया था , जिसमे एक मोटरकार खरीद कर रखने की उसकी योजना थी । विदाई के समय लता जार जार रोई, उसे ये सोचकर ज्यादा रुलाई आ रही थी कि वह दीवान सिंह के लिए रुक नहीं सकी, उसे इस प्रकार रोते देखकर उसकी माँ ने सोचा कि इतने लाड प्यार में पाली हुई है इसलिए इसे अपना मायका छोड़ने में रुलाई आ रही है । और उसकी डोली विदा हो गई ।
उधर छह महीने ट्रेनिंग के बाद दीवान सिंह लौटा तो बड़े उत्साह में वह लता के घर गया वहां उसे मालूम पड़ा कि उसकी तो शादी हो गई है " यह सुनकर दीवान सिंह वहीं सीढ़ियों पर बैठ गया और फूट फूट कर रोने लगा, बहुत देर बाद जान उसकी रुलाई रुकी तो उसने पीछे दरवाजे की तरफ देखा, जो मजबूती से बंद था , देली पर ऐंपण दिए हुए थे,जिन्हें लता ही देती थी, वह उन ऐंपणों पर धीरे धीरे हाथ फेरता रहा, मानो वो लता का हाथ हो । घर वापस आ कर वह किसी से कुछ नहीं बोला , उसे मालूम था कि अब किसी से कुछ कहने का मतलब नहीं रह जाएगा, इससे लता की ही बदनामी होगी जो अब ब्याह कर अपने ससुराल चली गई है, उसकी जिंदगी में उथल पुथल मच जाएगी । एक हफ्ता घर पर रह कर वह अपनी पोस्टिंग पर चला गया । अब वह त्योहारों पर भी अपने घर नहीं आता था, ईजा उसकी भावनाओं को समझती थी पर वह भी क्या कर सकती थी ।
समय का चक्र घूमता रहा कई वर्ष बीत गए । हल्द्वानी में लता अपना विवाहित जीवन बिता रही थी, गृहस्थी के कामों में उसे बहुत फुर्सत नहीं मिलती थी, कई साल से वह अपने मायके भी नहीं जा पाई थी । उसे शुरू के कुछ वर्ष तो बच्चों को संभालने में ही लग गए, बाद में उसके पति ने घर पर कई नौकर चाकर लगा दिए, बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए एक आया थी, बाद में बच्चे स्कूल बस से जाया करते । अब समय ही समय था, उसके पति ने उसे सुझाव दिया कि वह उसके साथ व्यापार में हाथ बंटाए, जिससे उसका खाली समय का उपयोग भी हो जाएगा साथ ही घर पर अतिरिक्त आमदनी भी आयेगी । वह होशियार तो थी ही , जल्दी ही व्यापार की बारीकियों को समझ गई, उसके प्रयास से उसके पति ने और कई दुकानें खोल लीं जिनमें एक में वह आफिस बना कर बैठ करती,उस प्रतिष्ठान के सारे लेन - देन लता की ही निगरानी में ही होते । इस प्रकार जीवन की गाडी अबाध रूप से चल रही थी ।
उस दिन बाह अपने कमरे में बैठ कर रेडियो सुन रही थी और साथ में एक पत्रिका पढ़ रही कि उसे आँगन से अपनी सास की आवाज सुनाई पडी जो उसके देवर से पूछ रही थी," आज दूकान बंद करते बहुत देर हो गई, क्या काम ज्यादा था?" वह बोला नहीं मां! आज तो बाज़ार बहुत पहले ही बंद हो गई थी " उसकी माँ बोली पर तुझे इतनी देर क्यों हो गई ?" वह बोला ," अरे माँ आज उत्तराखंड के एक वीर सिपाही की शव यात्रा के कारण मिलिट्री वालों ने रास्ता ही बंद कर दिया था, उस वीर की अंतिम यात्रा देखने सारा हल्द्वानी उमड़ पड़ा था, सभी लोगों ने अपनी दुकानें बंद कर दी थी, इतना हुजूम मैंने हल्द्वानी में पहले नहीं देखा था " उसकी माँ बोली. कौन था वह वीर सिपाही ?" उसने उत्तर दिया," लोग बता रहे थे गज़ब का पराक्रमी था वह, यहीं रानीखेत का है वह, लोग बता रहे थे कि उसने देश के लिए अपना बलिदान पहले ही दे दिया था तभी तो वह अपने नाम के आगे LATE लिखता था यानी LATE DIWAN SINGH. ऐसे अदम्य बीर और साहसी को सरकार ने महाबीर चक्र से सम्मानित किया है, हम सभी लोग उसकी अंतिम यात्रा को देखने लगे, सभी की आँखें नम थीं, मैंने तो उस वीर के पार्थिव शरीर पर फूल भी चढ़ाये, हल्द्वानी से उसे रानीखेत ले जाया जा रहा था, रास्ते भर उसका सम्मान किया जाएगा "
यह सुनकर लता का कलेजा मुंह को आ गया , वह दौड़कर बाथरूम की ओर भागी, भीतर से चिटकनी बंद कर उसने साडी के पल्लू को अपने मुंह में ठूंस लिया और जोर जोर से हिचकियाँ भरने लगी , आंसुओं से उसका बदन भीग गया, फिर धीरे धीरे वह बाथरूम के फर्श पर बैठ गई और सुबकने लगी, उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं । काफी देर बाद जब उसे होश आया और अपनी वर्तमान स्थति का आभास हुआ तो उसने अपना मुंह धोया और शीशे में अपना चेहरा देखा तो उसके पपोटे सूजे हुए थे, आाँखें अभी भी आंसुओं से डूबी हुई थीं, लड़खड़ाते कदमों से वह बाहर निकली और अपने कमरे की तरफ बढ़ी, कमरे में पहुंचते ही वह धम्म से बिस्तर पर गिर गई, तभी रेडियो पर तलत महमूद की ग़ज़ल बजने लगी," आज किसी ने बातों बातों में जब उनका नाम लिया, दिल ने जैसे ठोकर खाई दर्द ने बढ़कर थाम लिया "
इति
सच में आँख भर आई...!! वाह दाज्यू....आपकी यह कहानी दिल को छू गयी। क्या कहूँ...कहना बहुत कुछ चाह रहा हूँ पर शब्द नहीं मिल पा रहे हैं।
ReplyDeleteइसे यह रूप देने के लिये आपका वहुत धन्यवाद ! इस कलेवर में यह और पाठकों तक पहु्चेगी, कहानी मार्मिक लगी और दिल को छू गई, ये मेरी कलम की सफलता है, ,
Deleteकहानी वास्तविक है या काल्पनिक? और लेखक का नाम बताएं शेयर करने के लिए साभार में लिख सकें, कहानी बहुत ही मार्मिक है
ReplyDeleteकहानी काल्पनिक ही है, मित्र , यह वास्तविक सी लग रही है यही कलम की निजय और पाठकों का स्नेह है
Deleteतारा मोहन पंत
के-६१९ ,आशियाना कालोनी,
कानपुर रोड, पो. एल. डी. ए कालोनी,
लखनऊ - २२६०१२
taramohanpant@gmail,com
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteनिःशब्द...
ReplyDeleteपंत जी आपके लेखन का जवाब नहीं...
.
अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो कृपया अपना कांटेक्ट नंबर मैसेज/मेल कर दें।
atulyadevbhumiuttarakhand@gmail.com
+918898947468